(महासमर की महागाथा-25) प्रकृति योग्यतम का करती चुनाव

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)भगवद्गीता के अध्याय सात के श्लोक 30 में कहा गया है, ज्ञानी मुझको ही अधिदैव, अधिभूत और अधियज्ञ जानते हैं। मैं ही समस्त संसार को उत्पन्न करता हूँ मैं ही उसे चलाता हूँ और उसका नाश भी करता हूँ। मैं ही साम्राज्यों को बनाता और बिगाड़ता हूँ। ये मेरे नाटक के दृश्य हैं। यह कालचक्र अनादि काल से इसी प्रकार चला आता है।
भगवद्गीता का ग्यारहवाँ अध्याय सबसे बढ़कर सुंदर दृश्य पेश करता है। इसमें ब्रह्म के विराट् स्वरूप अर्थात् सृष्टि की स्थिति और विनाश के दृश्यों का वर्णन ऐसे शब्दों में किया गया है, जो मानवी कलम का काम नहीं है। कहा गया है, मैं सबसे बड़ा काल हूँ, जो सबका नाश करता है। देखो, ये सारे योद्धा किस तरह मेरी दाढ़ों के नीचे आकर पिस रहे हैं। अर्जुन, तुम केवल निमित्त मात्र हो। यह चक्र तो स्वयमेव मेरी शक्ति से चल रहा है। कवित्व की उड़ान और सौंदर्य इससे आगे नहीं जा सकते। इसी कारण अर्जुन अंत में, अध्याय अठारह के श्लोक 773 में, कहता है, हे हरि! मैं उस अद्भुत स्वरूप को बार-बार याद कर प्रसन्न होता हूँ। यहाँ पहुँचकर इतिहास दर्शन और दर्शन इतिहास में परिणत हो जाता है- दोनों एकरूप हो जाते हैं। ज्यों-ज्यों हमारे अंदर ब्रह्म का चित्र वास्तविकता के निकट पहुँचता है त्यों-त्यों हमारा दर्शन वास्तविक अस्तित्व और उसके प्रदर्शन को वस्तु और उसकी छाया को एक ही समझने लगता है।
डारविन ने जहाँ विकास का निरूपण किया है, वहाँ उसकी प्रक्रिया को एक खास कानून में लाना आवश्यक समझा है। विकास योग्यतम अवशेष के कानून पर चलता है। वनस्पतियों और जानवरों में परस्पर और एक-दूसरे के विरुद्ध एक संघर्ष चल रहा है, जिसका कारण यह है कि हर एक अपने आपको बचाने की कोशिश करता है-इस बात की परवाह किए बिना कि दूसरे इससे मरते हैं या जीते हैं। इस संघर्ष में जो प्राणी बाह्य परिस्थिति के अधिक अनुकूल होगा, वह बच जाएगा, शेष मारे जाएँगे। दूसरे शब्दों में, स्वयं प्रकृति योग्यतम का निर्वाचन करती है और वही वनस्पतियों और जानवरों में उन्नति करता है। जैसा पहले भी
कहा गया है, योग्य का अर्थ यह नहीं है कि वह निश्चय ही सबसे अच्छा
हो। वास्तव में देखा जाय तो वनस्पति और पशु-जगत् में अच्छा शब्द का अर्थ सिवा इसके कुछ नहीं है कि उसे बाह्य परिस्थिति अधिक पसंद करती है।
बाह्य परिस्थिति में मनुष्य का बड़ा भाग है परंतु जब हम मानव सृष्टि में आते हैं तब योग्य का अर्थ भी उन्नति करने लगता है। यहाँ पर जीवित रहने के लिए मनुष्य को बाह्य परिस्थिति के अनुकूल बनाना ही पर्याप्त नहीं है। उसे अपने परिवार को भी योग्य बनाना चाहिए, नहीं तो किसी दूसरे योग्य परिवार के मुकाबले वह अकेला जीवित नहीं रह सकेगा। परिवार के जीवित रहने के लिए यह जरूरी है कि वह अपने कबीले को भी बलवान् बनाए। और कबीले के लिए अन्य जातियों या राष्ट्रों के मुकाबले जिंदा रहने के लिए यह आवश्यक है कि वह अपनी उस जाति या राष्ट्र को योग्य बनाए, जिसमें कई कबीले सम्मिलित हैं, नहीं तो किसी भी योग्य जाति या राष्ट्र के मुकाबले में वह कबीला मारा जाएगा। राष्ट्रों या जातियों में सबसे अधिक वह फैलेगी जो प्रकृति के कानूनों को मालूम करके प्राकृतिक शक्तियों पर अपना अधिकार जमा लेगी और साथ ही प्रकृति की उत्पन्न की हुई बीमारियों से अपने आपको बचा सकेगी। मनुष्य के संबंध में यह कथन अधिक यथार्थपूर्ण है कि दूसरों के मुकाबले में वह मनुष्य जीवित रहेगा जिसके राष्ट्र, कबीले और परिवार में दूसरों की अपेक्षा अधिक योग्यता पाई जाती है। अब मनुष्य का मापदंड आदर्श व्यक्तिगत नहीं रहता, बल्कि राष्ट्रीय हो जाता है।
डारविन ने वनस्पतियों के असंख्य उदाहरण देकर यह सिद्ध किया है कि विभिन्न प्रकार की घास खेत में परस्पर संघर्ष करती है। खेत में पहले एक घास होती है। थोड़े समय के पश्चात् दूसरी बढ़ना शुरू करती है। यदि दूसरी अधिक बलवान् होती है तो वह पहली के लिए बढ़ने की कोई जगह नहीं छोड़ती। यही हाल वृक्षों का है। किसी बड़े वृक्ष के निकट छोटे पौधे बढ़ नहीं सकते, क्योंकि वहाँ की भूमि से सारी खुराक बड़ा वृक्ष अपने लिए खींच लेता है। अब जानवरों को लीजिए। मछलियों में बड़ी अपने से छोटी पर निर्वाह करती है। जंगल के पशुओं का भी यही हाल है। बलवान् जानवर निर्बल को मारकर खा जाता है। कीड़े- मकोड़े पक्षियों के भोजन हैं। प्रायः वही कीड़े बचकर बढ़ते हैं जिनका रंग दरख्तों के पत्तों या फूलों के समान होता है और इस कारण वे आसानी से छिप सकते हैं। हिरनों की वह जाति बढ़ती है, जो ज्यादा तेज दौड़ने की वजह से अपने को बचा सकती है। धीरे दौड़ने वाले हिरन आसानी से शत्रु का शिकार हो जाते हैं। अन्य प्राणियों के अतिरिक्त प्रकृति का भी बाह्य परिस्थिति में बड़ा हाथ होता है। जहाँ बहुत अधिक सर्दी पड़ती है वहाँ वही जानवर अपनी नस्ल फैला सकते हैं, जिनके शरीर पर बाल अधिक हों। गरम और रेतीले स्थानों में ऊँट की वृद्धि का अवसर होता है, क्योंकि वह कई दिनों तक पानी के बिना गुजारा कर सकता है।
हरबर्ट स्पेंसर का मत है कि समाज के अंदर विभिन्न सदस्यों के बीच जाति या राष्ट्र के अंदर उसके विभिन्न हिस्सों के बीच और संसार में विभिन्न राष्ट्रों या जातियों के बीच जीवित रहने के लिए संघर्ष पाया जाता है। यूरोप में समाज की विभिन्न श्रेणियों के अंदर यह संघर्ष प्राचीन काल से चला आ रहा है। रोम के इतिहास में इसका प्रमाण गरीबों और अमीरों की कशमकश में मिलता है। इस संबंध में एक कथा प्रसिद्ध है। रोम के निर्धन पेशे वाले लोग शहर को छोड़कर एक पहाड़ी पर जाकर आबाद हुए। उनकी शिकायत थी कि कमाते तो हम हैं, परंतु भोग-विलास धनी करते हैं। एक वृद्ध ने उनके पास जाकर उन्हें पेट और पाँव का उदाहरण यों दिया, एक बार हाथों और पैरों ने काम करना छोड़ दिया, इस कारण कि काम करने का कष्ट तो वे उठाते हैं, परंतु खाने के वक्त सब कुछ पेट हड़प जाता है। हाथ-पाँव ने काम करना छोड़ दिया और पेट में कुछ नहीं गया। अब हाथ-पाँव भी सूखने लगे। ऐसी ही दशा तुम्हारी होगी। इस उदाहरण से प्रभावित होकर वे सब पेशेवाले वापस शहर में आ गए।-क्रमशः (हिफी)