अध्यात्म

(महासमर की महागाथा-26) दैवी और आसुरी प्रकृतियों का द्वन्द्व

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)
यूरोप में यह संघर्ष खास ढंग पर चलता है। पहले-पहल समाज पर चर्च का प्रभुत्व था। यहाँ तक कि बादशाह भी पोप और उसके पादरियों से काँपते थे। सुधार के आंदोलन के पश्चात् सारा अधिकार चर्च के हाथ से निकलकर बादशाहों और उनके सरदारों के हाथों में चला गया। तत्पश्चात् फ्रांस की क्रांति ने एक और परिवर्तन उत्पन्न कर दिया, जिससे यह शक्ति जनसाधारण के हाथों में चली गई। तब यूरोप में बादशाही का कोई महत्त्व नहीं रहा। गत अर्ध शताब्दी में मजदूर लोग, जो यूरोप के शूद्र समझे जाने चाहिए, जाग उठे। यूरोप का भावी संघर्ष इन्हीं लोगों का होगा। उनका भविष्य स्पष्टतया उज्ज्वल दिखलाई देता है।
मानव-जगत् में इस संघर्ष का उल्लेख करते हुए भगवद्गीता के
अध्याय सोलह में इसे दैवी और आसुरी प्रकृतियों के मध्य द्वंद्व का रूप प्रकट किया गया है। इन दोनों प्रकृतियों का संग्राम सदा चलता रहता है। श्लोक 9 में बताया गया है- आसुरी प्रकृति के लोग मनुष्य जाति के शत्रु होते हैं। उनकी अपवित्रता, चालाकी और दंभ संसार में विनाश लाते हैं। दैवी प्रकृति वाले संसार का भला करते हैं। निर्भयता, शौच, सत्य आदि उनके गुण होते हैं। पशु-जगत् में तो यह मामला बिलकुल ही साफ है। भेड़ और भेड़िये से पूछिए, कौन सी बात अच्छी है- निर्बल की रक्षा करना या उसे खा जाना ? भेड़ तो यह कहेगी, निर्बल की रक्षा करना धर्म है। किंतु भेड़िया इसके ठीक उलटा कहेगा। मनुष्य की अवस्था में दोनों परस्पर विरोधी प्रकृतियाँ हैं। मनुष्य भी प्रायः दो प्रकार के हैं। कुछ ऐसे हैं, जो बीज के समान अपने आपको विनष्ट करके बड़े फलदार वृक्ष पैदा करते हैं। बहुत से ऐसे हैं, जो दूसरों का नुकसान करके खुश होते हैं। इन दोनों प्रकृतियों का संघर्ष संसार में सदा जारी रहता है। मनुष्य के अंदर भी हर समय दोनों प्रकार के भावों का द्वंद्व युद्ध होता रहता है। जीत कभी देव-भाव की तो कभी आसुर-भाव की होती है। क्षण-क्षण की इस जीत या हार के अनुसार मनुष्य ऊपर उठता या नीचे गिरता है।
पुराणों के अंदर रूपक के तौर पर देवताओं और दैत्यों के बीच युद्ध का उल्लेख अकसर पाया जाता है। उपनिषद् में देवताओं का अर्थ इंद्रियाँ और असुर का अर्थ विषय किया गया है। ये प्रतिक्षण आपस में लड़ाई करते हैं। यदि और आगे देखा जाय तो मालूम होता है कि संसार में दैवी और आसुरी गुणों का युद्ध हमेशा ही चलता रहता है। एक लड़की जब लाखों रुपयों पर लात मारकर अपनी पवित्रता की रक्षा करती है तब उसमें दैवी गुण की विजय होती है। यदि वह अपनी पवित्रता की रक्षा में प्राण दे देती है
तब भी दैवी गुण की जीत होती है
परंतु इस विजय-प्राप्ति से पूर्व दोनों प्रकार के गुणों का बड़ा भारी युद्ध होता है।
मनुष्य का शरीर तो मरने के लिए बना है, केवल विचार या खयाल जीवित रहता है। इन विचारों से वह देवलोक या इंद्रलोक बनता है, जहाँ पितृगण या मृत पूर्वज रहते हैं। भगवद्गीता के प्रथम अध्याय के श्लोक 42 में जिस पिंड आदि का उल्लेख है, उससे पूर्वजों की स्मृति कायम रखना अभीष्ट है। दुनिया में अंधकार और प्रकाश का, सफाई और गंदगी का, धर्म और अधर्म का युद्ध सदा से ही जारी है। जब लाखों फ्रांसीसी या जर्मन सिपाही मैदान में आमने-सामने आकर तलवार और गोले चलाते हैं तो वे व्यक्ति इतनी महत्ता नहीं रखते। असली लड़ाई तो दो गुणों के मध्य में होती है। एक देश दूसरे देश के साथ थोड़ा अन्याय करता है। इस अन्याय के विरुद्ध दूसरे देश में घृणा की आग भड़कती रहती है। दोनों विचारों की शक्ति बढ़ती है और एक दिन अन्याय तथा घृणा परस्पर युद्ध के लिए इकट्ठे होते हैं। महाभारत का युद्ध दुर्योधन के विरुद्ध नहीं, बल्कि रावण और कंस के विरुद्ध युद्ध की तरह दैत्य गुण के विरुद्ध था। सिख जब मुगल सेना से युद्ध करते थे तब उनके अंदर गुरु तेग बहादुर का कटा हुआ सिर लड़ता था, अर्थात् सिखों के दिलों में गुरु के हौतात्म्य या शहादत का भाव जोश भरता रहता था।
एक महापुरुष जब संसार में कोई नया विचार पैदा करता है, तो वह उस समय तात्कालिक सभी शक्तियों के विरुद्ध युद्ध की घोषणा करता है। यह विचार राजनीतिक स्वतंत्रता का भी हो सकता है और मजहबी स्वतंत्रता का भी। एक मनुष्य अपने व्यक्तित्व के आधार पर एक नया मजहब चलाता है। उसका विचार लाखों- करोड़ों मनुष्यों के दिमाग पर अधिकार जमाकर उन्हें अपना माध्यम बना लेता है। ऐसे ही विचारों ने संसार को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया है। खयाल या विचार के सामने एक क्या, लाखों मनुष्यों के जीवन का कोई महत्त्व नहीं होता। एक मजहबी खयाल के प्रभुत्व के कारण कितने युद्ध हुए, कितने निर्दोष मारे गए, बेचारे मनुष्य पर क्या- क्या मुसीबतें आईं। अपने अंदर गंदगी जमा करके मनुष्य प्लेग या ताऊन जैसी बीमारी का बीज पैदा कर देता है, जो पूरे नगर या प्रांत में तबाही मचा देता है। बुरा खयाल या कुत्सित विचार भी ऐसा ही होता है। ईसा ने एक गुलाम कौम में जन्म लिया। उनकी शिक्षा भ्रातृत्व और भ्रातृ-प्रेम के भावों से भरी थी। शक्ति- संपन्न लोगों ने इन भावों को दबाना चाहा परंतु ईसा सफल हुए।
ईसा से पहले एक मनुष्य ने सामाजिक अन्याय के विरुद्ध अपना बलिदान कर दिया। रोम में दो गुलामों को लड़ाकर तमाशा देखने का बड़ा शौक था, वैसे ही जैसे हमारे देश में बैलों, बटेरों या मुरगों को लड़ाने का शौक पाया जाता था। यह लड़ाई बड़े-बड़े थिएटरों में हुआ करती थी। दोनों में से एक गुलाम के मारे जाने पर हजारों दर्शक खुश होते थे। एक बार यह तमाशा होने लगा। दोनों ओर से तलवारें चमक रही थीं कि अचानक एक वृद्ध दोनों के बीच में आकर खड़ा हो गया। बुड्ढा लहूलुहान होकर भूमि पर गिर पड़ा। परिणामस्वरूप यह तमाशा सदा के लिए बंद हो गया। यह आदमी शायद आर्केमेडीज था या आर्टेमेडीज । कुछ भी हो, इतनी बड़ी आसुरी शक्ति के विरुद्ध दैवी गुण ने चुपके से युद्ध किया और विजय प्राप्त की। -क्रमशः (हिफी)

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