अध्यात्म

(महासमर की महागाथा-27) आसुरी प्रकृति के लोग समाज का करते नाश

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)
आसुरी प्रकृति के अंतराल मंे आत्मप्रियता या खुदपसंदी का भाव काम करता है और दैवी प्रकृति के अंतस्तल में आत्मविस्मृत या बेखुदी का। आत्म- प्रियता का वर्णन भगवद्गीता के अध्याय सोलह के श्लोक, 131, 182, 193, 204 और 215 में पाया जाता है। आसुरी प्रकृतिवाले मनुष्य का सोचना होता है कि जिस वस्तु का संबंध उसके अस्तित्व से है, वह सबसे अच्छी है। किसी अन्य वस्तु का उससे अच्छा होना संभव ही नहीं। वह जिस मजहब को अपना मान लेता है उसके लिए उसके दिल में ऐसी धर्मांधता उत्पन्न हो जाती है कि वह दूसरों को दुनिया से मिटा देना चाहता है। जिस देश में उसका जन्म होता है, उसके लिए वह समस्त संसार को नष्ट करने पर तैयार हो जाता है। अपनी इच्छा के मुकाबले पर वह किसी दूसरे की इच्छा की परवाह नहीं करता।
ऐसे मनुष्य केवल अपने अधिकारों को ही समझते हैं, उन्हें स्व-कर्तव्य का कभी ध्यान नहीं होता। मत्सीनी कहता है, फ्रांस की क्रांति में ऐसे मनुष्यों की संख्या बहुत ज्यादा थी। वे हर समय अपने अधिकारों का उल्लेख करते थे। इसी कारण वह क्रांति सफल नहीं हुई। जिस समाज के सभी सदस्य अपने अधिकारों का ही ध्यान करें, उसकी अवस्था खराब ही रहती है। अगर कुछ लोग इकट्ठे खाने पर बैठे हों और हर आदमी ज्यादा खाने की कोशिश करे तथा दूसरों का ध्यान न रखे तो उनमें झगड़ा ही होगा। स्वार्थी कभी आपस में मेल नहीं कर सकते
एक कहानी इस बात को स्पष्ट करती है। तीन आदमी मौत को मारने के लिए चल पड़े। रास्ते में मौत का फरिश्ता एक बूढ़े का रूप धारण किए उनको मिला। उसने उनको भूमि में गड़े हुए एक खजाने का पता बताया। तीनों ने मेहनत करके उस धन को खोदकर निकाला। उनमें से एक आदमी को रोटी लाने के लिए शहर भेजा गया। तीनों के मन में बेईमानी आ गई। जो खाना लाने गया था, वह रोटी में जहर डाल लाया। बाकी दोनों ने उसके आते ही झगड़ा करके उसे मार डाला और स्वयं रोटी खाकर मर गए। आसुरी समाज ऐसे व्यक्तियों का बना होता है। वे स्वयं नष्ट होते हैं और समाज का भी नाश कर देते हैं।
जर्मन दार्शनिक नीत्शे वर्तमान युग का एक बड़ा तत्त्ववेत्ता हुआ है। उसने विकास के सिद्धांत से एक कदम आगे बढ़ने का यत्न किया है। वह संघर्ष और निर्वाचन के कानून को ही पर्याप्त नहीं समझता। वह कहता है, विकास सिद्धांत के साथ-साथ प्रकृति का एक विशेष उद्देश्य भी है। वह है नमूने की उत्तमता उत्पन्न करना। प्रकृति में यह सतत प्रयत्न पाया जाता है कि योनि या जाति का अगला नमूना पहली सभी योनियों से उत्तम हो। प्रकृति की सहायता से हम मनुष्य की अवस्था में पहुँचे हैं। इसलिए अब हमारा कर्तव्य है कि अपने अंदर से एक ऐसी नई योनि या जाति पैदा करें, जो शारीरिक और मानसिक विशेषताओं में वर्तमान मनुष्य से ऐसे ही आगे हो जैसे मनुष्य पशुओं से आगे है।
नीत्शे ने इस योनि की जाति का नाम देवयोनि’ रखा है। इसको उत्पन्न करने का उसका खास तरीका है। वह कहता है, प्रकृति में असमता है। मनुष्य भी बुद्धि में बड़ा भेद रखते हैं। इस असमता या नाबराबरी से हमें लाभ उठाना चाहिए बल्कि इस नाबराबरी का उद्देश्य ही यह है कि जो मनुष्य शारीरिक और मानसिक तौर पर उच्च कोटि के हैं, उनकी नस्ल को उन्नति देकर एक नई योनि पैदा की जाय ऐसे ही जैसे रेत में से सोने के कणों को चुन लिया जाता है।
आजकल फसलों की खेती इसी ढंग से करके बीज को बड़ा और उत्तम बनाया गया है। गेहूँ का मोटा दाना चुन-चुनकर खेती करने से उसे कौड़ी के बराबर कर लिया गया है। पुराने समय में हिंदुओं में गाय की नस्ल अच्छी करने की ओर विशेष ध्यान था। इस दृष्टि से अच्छी नस्ल का
साँड़ छोड़ देना बड़ा पुण्य समझा जाता था।
निम्न श्रेणियों को नीत्शे मीनार की बुनियाद के समान समझता है। ये बुनियादें चौड़ी होती हैं, परंतु इनका काम केवल चोटी को सहारा देना होता है। विशेष व्यक्ति मीनारों की उन चोटियों के समान हैं, जो तूफान और आँधियाँ अपने सिर पर उठाती हैं, परंतु सदा सूर्य की चमक में रहती हैं। नीत्शे केवल इस उच्च श्रेणी को उत्पन्न करना ही निम्न श्रेणियों का उद्देश्य समझता है। वर्तमान साम्यवाद, जो सभी मनुष्यों को बराबर बनाना चाहता है, को वह एक रोग ठहराता है। ईसाई आचार नीति को वह एक गुलाम कौम का आचार समझता है, इसलिए उसका मत है कि ईसाई खूबियों का कोई महत्व नहीं है।
इस योनि को उत्पन्न करने के जो नियम नीत्शे ने बताए हैं, वे सब उसने प्रायः के धर्मशास्त्र से लिये हैं। वह कहता है, संसार में बुद्धिमत्ता और अनुभव मनु ने एकत्र किए हैं। उसका निर्णय अंतिम है। उससे इधर-उधर जाने का कोई रास्ता नहीं है। राष्ट्र के उत्कर्ष-पथ के लिए विशेष नियम बनाए गए हैं। वर्ण-व्यवस्था को वह अपने उद्देश्य के लिए आवश्यक समझता है। ब्राह्मण श्रेणी की और भी उन्नति करके वह नई योनि उत्पन्न करना चाहता है। आर्य शास्त्रों में ब्राह्मण को समाज की सभी विशेषताओं का सत माना गया है। इसी कारण यहाँ तक कहा गया है कि यदि शहर में आग लग जाय तो सबसे पहले ब्राह्मण को बचाना धर्म है। ब्राह्मण के मुकाबले अन्य श्रेणियों का महत्त्व इतना नहीं था। नीत्शे ब्राह्मण को पवित्रता तथा सुंदरता का प्रतिनिधि मानता है । उनका अधिकार शुद्ध होता है। अपने ऊपर संयम उनका काम है, तप उनका मनोरंजन है, ज्ञान उनका खेल है। ब्राह्मण राज की खातिर काम नहीं करते, बल्कि इस कारण कि उन्होंने राज के लिए जन्म लिया है।
ब्राह्मण का जीवन उपकार के लिए है, इसलिए हर अवस्था में अपने जीवन को बचाना उसका धर्म है। प्राचीन भारत में ब्राह्मण यद्यपि सभी चीजों का मालिक होता था, तथापि किसी चीज पर उसका अधिकार नहीं होता है। एक ब्राह्मण जब राजा भी खड़ा हो जाता। राजा के दरबार में नंगे सिर और नंगे पाँव जाता तब उसके तप के बल के कारण भगवद्गीता के अध्याय तीन के श्लोक 141 और 152 में कहा गया है, संसार एक यज्ञ है, जिसमें हर एक चीज दूसरे के सहारे पर चलती है। सब प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं, अन्न बादलों से और बादल सूर्य की किरणों से। सूर्य सबसे अधिक यज्ञ-रूप है। उसकी किरणें समुद्र से भाप
लेकर न केवल बादल बनाती हैं, बल्कि पौधों और मनुष्यों को जीवन भी देती हैं। यह यज्ञ ब्रह्म है जो मनुष्य इस चक्र को आगे नहीं ले जाता, वह निष्फल ही जीता है। ब्राह्मण होना ही संसार को आगे ले जाने के लिए यज्ञ है। -क्रमशः (हिफी)

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