(महासमर की महागाथा-28) आत्मा को ढक देती है तृष्णा

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)
दार्शनिक और ऋषि के तरीके में एक अंतर है। नीत्शे उस नस्ल को उत्पन्न करने के लिए युद्ध को बड़ा पवित्र माध्यम समझता है। युद्ध के द्वारा अपने उत्कर्ष और शक्ति-वृद्धि के लिए वह युद्ध के प्राचीन देवता-वोडन-की पूजा करता है। ईसाइयों के खुदा की अपेक्षा वह वोडन को बहुत बलशाली मानता है। ऋषि मनु तो देव गुणों को विकसित करके सच्चे ब्राह्मणों के द्वारा देवयोनि उत्पन्न करना चाहते हैं। परंतु दार्शनिक नीत्शे इसका तरीका निम्न राष्ट्रों और श्रेणियों को दबाना तथा नष्ट करना समझता है। भगवद्गीता भी आसुरी भावों का विनाश करना बतलाती है। वह कहती है कि मनुष्यों में कोई द्वेष नहीं होना चाहिए। जब देवगुण संसार में उन्नति करेंगे तब निम्न गुण स्वयमेव मिट जाएँगे। छोटे भाव नहीं रहेंगे तो छोटी श्रेणियाँ स्वयं ही समाप्त हो जाएँगी। छोटे गुणों से मनुष्य छोटे हो जाते हैं और उत्तम गुणों से ऊँचे । गीता में जहाँ क्षत्रिय के लिए युद्ध आवश्यक बतलाया गया है वह केवल उस समय जब निर्बल की रक्षा करनी हो या किसी अन्याय को दूर करना हो। अध्याय अठारह के श्लोक 43 में क्षत्रिय के गुण वीरता, निर्भयता, साहस, युद्ध- कौशल और दान कहे गए हैं। डरकर भाग जानेवाला क्षत्रिय पाप का भागी होता है। केवल निडरता काम की नहीं, इसके साथ बुद्धि अथवा विचार का भी होना जरूरी है। बहुतेरे लोग बिना बुद्धि से विचार किए कई कार्य शुरू कर देते हैं। वे अपने आपको और अपने साथियों को गड्ढे में डाल देते हैं। दूसरे वे हैं जिनके हृदय में बल अथवा निर्भयता नहीं होती। वे थोड़ा सा भय आने पर स्वयं भी गिरते हैं और दूसरों को भी गिराते हैं। अधिक संख्या तो ऐसे लोगों की है, जिनका मन स्वार्थ से भरा होता है। उत्साह में वे आगे चल पड़ते हैं, किंतु जल्दी ही स्वार्थवश होकर सब धर्म-कर्म को परे फेंक देते हैं। क्षत्रिय का धर्म है, जैसा मेजिनी ने एक जगह कहा है, जहाँ कहीं अन्याय देखो-चाहे वह पुरुष पर हो या स्त्री पर, काले पर या गोरे पर- अपनी आवाज तत्काल उसके विरुद्ध उठाओ और उस अन्याय को जड़ से उखाड़ने में लग जाओ।
प्राणी मनुष्य जन्म पाकर, कस्तूरीवाले हिरन की भाँति, आत्मा की सुगंध सी अनुभव करता है और जानते या न जानते हुए उसकी खोज में भटकता फिरता है। हिरन कस्तूरी की खुशबू को झाड़ियों में ढूँढ़ता है और प्राणी आत्मा की सुगंध को इंद्रियों के विषयों में। एक जगह प्रश्न उठाया है-जीव का स्वाभाविक स्वरूप सुख है या दुःख ? अगर स्वाभाविक सुख हो तो दुःख अपने स्वरूप को भूल जाने से पैदा होता है और अगर दुःख स्वाभाविक हो तो उसे दूर करना तथा सुख को यत्नपूर्वक प्राप्त करना जरूरी है। जीवन के लक्षण में दुःख और सुख- दोनों पाए जाते हैं। भले ही एक से मनुष्य दूर भागता है और दूसरे को पाना चाहता है।
आर्य और बौद्ध दर्शन इसी एक बात की कल्पना करके शुरू होते हैं कि जीव सुख खोज में लगा हुआ है परंतु संसार में सबको दुःख ही दिखलाई देता है। इसका कारण ढूँढ़ते हुए सभी दर्शनकार एक ही निष्कर्ष पर पहुँचते हैं। योग दर्शन तो वह कारण अविद्या बतलाता है। वेदांत उसे माया और सांख्य अविवेक कहता है। इस अविद्या या माया का कारण तृष्णा या विषय-वासना है, जिसमें जकड़ा हुआ मनुष्य भूला फिरता है। इस भूले हुए मनुष्य की स्थिति पर एक बड़े साँड़-बैल का दृष्टांत दिया गया है। साँड़ के गले में एक लंबी रस्सी है, जिसका दूसरा सिरा एक पेड़ से बँधा है। साँड़ खुली जमीन पर चरता है। उसका मुँह एक तरफ है और वह घूमता हुआ चलता है। धीरे-धीरे वह रस्सी पेड़ के गिर्द लिपटकर छोटी होती जाती है। कुछ देर बाद वह सारी रस्सी इस तरह लिपट जाती है और साँड़ पेड़ के साथ जा लगता है। आगे जाना चाहता है, किंतु जाए तो कैसे ? पेड़ के साथ बँधा हुआ वह सिर मारता है, गुस्से से जलता है पर सब व्यर्थ। उसकी सारी मुसीबत उसके अज्ञान से है। उसे कोई राह दिखानेवाला मिल जाय और उसका मुँह दूसरी तरफ मोड़ दे तो उसका सारा कष्ट तत्काल मिट सकता है। हम भी इसी भाँति तृष्णा की रस्सी में बँधे हैं और अज्ञान में पड़े दुःख उठाते हैं।
भगवद्गीता के अध्याय तीन के श्लोक 371, 382, 393 आदि में कहा गया है कि जिस प्रकार धुआँ आग को और धूल शीशे को ढाँप देते हैं उसी प्रकार यह तृष्णा आत्मा को ढाँपकर उसे अज्ञान में डाल देती है। इंद्रियों, मन और बुद्धि में बैठी हुई यह तृष्णा आत्मा पर परदा डाल देती है। अपनी इंद्रियों को काबू में लाकर को पहले इसका नाश करना चाहिए। श्लोक 434 में कहा गया है, इस मनुष्य प्रकार आत्मा को और उसकी सहायता से इंद्रियों को रोककर इस शत्रु (तृष्णा) को वश में करना चाहिए। अध्याय दो के श्लोक 605, 616, 627, 638, 679 और 681 में बताया गया है, ज्ञानी के मन को भी इंद्रियाँ पकड़ लेती हैं। इनको वश में लाने से ही मनुष्य ध्यान कर सकता है। विषयों का चिंतन करने से मनुष्य उनकी तरफ खिंच जाता है। इससे तृष्णा उत्पन्न होती है, तृष्णा से क्रोध उत्पन्न होता है और क्रोध से बुद्धि का विनाश होता है। बुद्धि न रहने से मनुष्य किसी काम का नहीं रहता। विषयी आदमी का मन वैसे ही डाँवाँडोल होता है, जैसे तूफान के कारण जहाज। इसलिए महाबाहु अर्जुन! तू इन इंद्रियों को विषयों से हटाकर अपने वश में ला।
महाभारत के स्त्रीपर्व में विदुर ने धृतराष्ट्र से कहा है-दुनिया एक बियाबान है। जीवन उसमें एक जंगल के समान है। बीमारियाँ इस जंगल में शेर, चीते, भेड़िए आदि हैं। बुढ़ापा मनुष्य के गले से चुड़ैल की तरह लटक रहा है। इनसे बचने के लिए मनुष्य भागता हुआ एक गहरी कंदरा के किनारे, अर्थात् शरीर में आ गिरता है। इस कंदरा में वह सिर नीचे करके लटक जाता है। कंदरा के किनारे पर बहुत सी झाड़ियाँ उगी हुई हैं (ये झाड़ियाँ विषय हैं)। पास में छह मुँह (अर्थात् छह ऋतु) और बारह टाँगों (अर्थात् बारह मास) वाला एक हाथी (अर्थात् वर्ष) मनुष्य को मारने के लिए खड़ा है। जिस शाखा के सहारे मनुष्य लटक रहा है उसे दो चूहे- एक सफेद और दूसरा काला (अर्थात् दिन और रात काट रहे हैं। कंदरा के अंदर एक काला नाग (अर्थात् काल) मुँह खोले खड़ा है। इन झाड़ियों में शहद का एक छत्ता है, जिससे एक-एक बूँद शहद नीचे टपकता है। यह बूँद मनुष्य के मुँह में पड़ने पर उसे ऐसी मीठी लगती है कि वह सभी मुसीबतों और खतरों को भूल जाता है। यह बूँद तृष्णा को और भी बढ़ा देती है। प्यास के बढ़ने से पहले से ज्यादा दुःख होने पर भी इस मिठास की आशा से वह शहद की ओर टकटकी लगाए रहता है। उसे जीने की लालसा बनी रहती है। -क्रमशः (हिफी)