अध्यात्म

(महासमर की महागाथा-33) कर्म और ज्ञान दोनों जरूरी

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)
ज्यों-ज्यों प्रेम बढ़ता है त्यों-त्यों विश्वास बढ़ता है। तब निस्स्वार्थ भाव आता है और अहंकार मर जाता है। अपने पूज्य की भक्ति में भक्त अपने आपको खो देता है। इस विश्वास
के अंदर वह बल पैदा हो जाता है जिसका मुकाबला दुनिया में नहीं हो सकता।
एक जाट कन्या का दृष्टांत है। वह अपने पिता के लिए भत्ता (खाना) सिर पर रखकर ले जा रही थी। रास्ते में नदी थी। उसने राम का नाम लिया और नदी के पार हो गई। राम का एक उपासक वहाँ हर रोज भक्ति किया करता था। उसे बहुत गुस्सा आया और उसने भी राम के भरोसे नदी पार करने का निश्चय किया। नदी में पाँव रखते ही उसे डर मालूम हुआ कि कहीं डूब न जाऊँ। फिर उसने एक मोटा सा रस्सा पेट पर बाँधा और दूसरा सिरा कमर में लटकाकर पानी में उतरा। थोड़ी ही दूर गया था कि गोते खाने लगा। तब राम को बुरा-भला कहना शुरू किया। राम ने प्रकट होकर पूछा कि क्यों भाई, इतना गुस्सा क्यों करते हो? उसने उत्तर दिया, उम्र भर तुम्हारी भक्ति करता रहा हूँ, पर मुझमें जाट की कन्या के बराबर भी शक्ति पैदा नहीं हुई। राम ने समझाया, तुम्हारा प्रेम और विश्वास मेरी अपेक्षा अन्यों में ज्यादा है, मैं तुम्हारे लिए क्या कर सकता हूँ!
इसी तरह एक हिरनी की कहानी याद रखने योग्य है। छोटे बच्चे समेत उसे शिकारी ने पकड़ लिया। शिकारी ने एक तरफ आग लगा दी, दूसरी तरफ कुत्ते खड़े कर दिए, तीसरी तरफ बाड़ बना दी और चौथी तरफ तीर-कमान लेकर खुद गया। हिरनी को परमात्मा के सिवा कोई सहारा दिखाई न दिया। उसने भगवान् को सच्चे हृदय से याद किया। संयोग से आँधी चल पड़ी। इससे बाड़ में आग लग गई और वह जल गई। उधर से एक साँप निकला। उसने शिकारी को डस लिया। यह देखकर हिरनी अपने बच्चे को लेकर भाग गई।
एक और कहानी
कहते हैं, एक नाव में तीन विद्वान् पुरुष जा रहे थे। उनमें से हर कोई किसी-न-किसी विद्या का पंडित था। एक राग जानता था, दूसरा ज्योतिष और तीसरा तर्कशास्त्र। सब अपने-अपने गुण की तारीफ कर रहे थे। रागी ने दूसरों से पूछा, क्या आपने राग विद्या का कुछ अध्ययन किया है? नहीं में जवाब मिलने पर उसने कहा, आपने अपने जीवन का चौथा भाग व्यर्थ गँवाया। ज्योतिषी ने भी वैसा ही प्रश्न दोहराया। जब उसे भी नकार में ही उत्तर मिला तो उसने कहा, श्आप लोगों ने आधी जिंदगी बेकार गँवा दी। इसी प्रकार तर्कशास्त्रवाले ने प्रश्न किया और वही जवाब मिलने पर वह बोला, आपने तर्कशास्त्र नहीं पढ़ा तो अपने जीवन के तीन हिस्से यों ही खो दिए। इतने में आँधी चल पड़ी और नौका डगमगाने लगी। नाविक बातें सुन रहा था। उसने सबसे पूछा, क्या आप लोगों ने तैरना भी सीखा है? सबने जवाब दिया, नहीं। तब वह बोला, आप सबने सारी जिंदगी ही व्यर्थ गँवाई। वही हाल कर्म का है। अगर हमने कर्म करना नहीं सीखा तो बाकी सीखा हुआ सब बेकार हो जाता है। सिर्फ ज्ञान प्राप्त कर लेने से मनुष्य का कर्तव्य पूरा नहीं होता। भगवद्गीता के अध्याय तीन के श्लोक 49 और 52 आदि में कहा गया है, बिना कर्म के कोई मनुष्य रह नहीं सकता और बगैर कर्म के कोई भी मनुष्य कर्म के फंदे से निकल नहीं सकता। आगे चलकर श्लोक 201 में बताया गया है, जनक आदि ने कर्म करके ही सिद्धि प्राप्त की थी।
कर्म और ज्ञान पर विचार करते हुए प्रश्न उठता है, दोनों में से कौन अच्छा है? भगवद्गीता के अध्याय पाँच के श्लोक 42 और 53 में उत्तर दिया गया है, ज्ञान-योग और कर्म-योग वास्तव में एक ही हैं। मूर्ख ही इन्हें अलग-अलग समझते हैं। जनसाधारण के लिए बगैर कर्म के अकेले ज्ञान-मार्ग पर चलना बहुत कठिन है।
एक राजा ने शत्रु पर आक्रमण किया। उसका मंत्री शत्रु से मिल गया। फलतः उसे राजपाट, स्त्री आदि छोड़कर भागना पड़ा। यद्यपि उसे ज्ञात था कि उसकी स्त्री और मंत्री ने उसका साथ छोड़ दिया है, तथापि मन उनकी ओर लगा रहने से वह दुःख में पड़ा रहता।
कर्म और ज्ञान एक-दूसरे के अंदर मिला हुआ फल देते हैं। जब अंधा लूले को कंधे पर उठाता है, तभी वृक्ष से फल तोड़कर दोनों खा सकते हैं। बगैर ज्ञान के कर्म अंधे के समान है और बगैर कर्म के ज्ञान लूले के समान है।
एक व्यक्ति ने किसी जिन्न को अपने वश में कर लिया। जिन्न ने उससे यह शर्त की, ‘आप जो कुछ माँगेंगे मैं वही प्रस्तुत कर दूँगा, परंतु मुझे हर समय आपको कुछ-न-कुछ काम बताना होगा। अगर आप ऐसा नहीं करेंगे तो मैं आपको खा जाऊँगा।श्शर्त मंजूर कर ली गई। जब वह आदमी उस जिन्न से अपनी सभी आवश्यकताएँ पूरी करवा चुका तब उसके लिए उसे कोई काम नजर नहीं आया। वह डर के मारे भाग निकला। जिन्न उसका पीछा कर रहा था।
उस व्यक्ति को रास्ते में एक साध्सु मिला। साधु ने उससे भागने का कारण पूछा। अपनी समस्या बतलाने पर साधु ने उसे समाधान सुझाया, जमीन में एक बाँस गाड़ दीजिए। जिन्न जब दूसरे कामों से निपट जाए तब उसे बाँस के ऊपर-नीचे चढ़ने-उतरने की आज्ञा दे दें। इस युक्ति से उसका छुटकारा हुआ। मनुष्य का मन भी उस जिन्न के समान है। यदि मनुष्य इसे कोई काम न बताए तो यह मनुष्य को ही खाने को दौड़ता है। कर्म-मार्ग ही इसके लिए बाँस है, जिसके द्वारा इससे बचाव हो सकता है।
भगवद्गीता के अध्याय तीन के श्लोक 61 में बताया गया है, इंद्रियों को बाहर से रोककर मन के विषयों का ध्यान करना ठगों का काम है। मनुष्य का स्वभाव ही उससे कर्म करवाता है। ज्ञानियों के लिए इस कारण भी कर्म करना आवश्यक है कि दूसरे लोग उनका अनुकरण करते हैं। भगवान् कृष्ण कहते हैं, यद्यपि संसार में मेरे लिए कुछ भी करना बाकी नहीं है। फिर भी मैं कर्म करता हूँ, जिससे जनसाधारण काम छोड़कर अपने विनाश का कारण न हों।
(अध्याय तीन, श्लोक 222, 233 और 244)-क्रमशः (हिफी)

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