(महासमर की महागाथा-17) अनुभूतियों व संस्कारों से उत्पन्न होता ज्ञान

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)
इन अनुभूतियों या संस्कारों के एकत्र होने से इनके लिए इच्छा या घृणा का भाव बढ़ता है। इनसे हमारे विचार बनते हैं। इनके सुखदायक या कष्टप्रद होने से इनके पक्ष या विपक्ष में राय बनने या निश्चय की शक्ति उत्पन्न होती है। यही कारण है कि हमको बाह्य संस्कारों का ज्ञान है, परंतु शरीर के आंतरिक अंगों के काम करने का खास पता हमें कुछ नहीं। भगवद्गीता के अध्याय तेरह के श्लोक 51 और 62 में कहा गया है, ये विकार -परिवर्तन-क्षेत्र, अर्थात् शरीर में उत्पन्न होते हैं। यह सत्य का एक पहलू है। वास्तविक सवाल जहाँ का तहाँ ही रह गया-क्या ज्ञान मस्तिष्क में होता है, जो स्वयं मांस का एक लोथड़ा है?
वर्तमान विज्ञान तो इस बात को ही पर्याप्त समझता है कि माद्दा, प्रकृति उन्नति करता है और ये सब परिवर्तन मादा के अंदर ही उत्पन्न होते हैं परंतु आर्यशास्त्र इसके मुकाबले यह मानते हैं कि ज्ञान मस्तिष्क में नहीं हो सकता। जाननेवाले को अपने स्वरूप का ज्ञान होना असंभव है। वैसे ही जैसे आँख अपने आपको देख नहीं सकती। यह पुरुष है, जो चौतन्य रूप में बैठकर प्रकृति के अंदर सभी परिवर्तन उत्पन्न करता और उनका तमाशा देखता है। भगवद्गीता के अध्याय तेरह के श्लोक 211 में कहा गया है, यह पुरुष है जो प्रकृति के इन गुणों का निरीक्षण करता है। पुरुष का इन गुणों में बँध जाना ही उसके जन्म-मरण का कारण होता है। विकास-क्रम के अंदर यदि प्रकृति के साथ पुरुष को काम करता हुआ माना जाय तो यह क्रम एक प्रकार का आत्मिक विकास हो जाता है, जिसमें प्रकृति विभिन्न रूप धारण करती है। ये सब आत्मा की उन्नति की विभिन्न सीढ़ियाँ होती हैं, जिनके द्वारा मनुष्य जीवन की बहुत ही निचली अवस्था से शुरू होकर ऊँची अवस्था तक जा पहुँचता है। शंकराचार्य यह मानते हैं कि जिस वस्तु के अहंकार, मैं का होना पाया जाता है, वह प्रकृति के अंदर एक सर्वव्यापक शक्ति अर्थात् पुरुष की व्यक्तिगत चेतनता है। यही चेतनता प्रकृति की विभिन्न अवस्थाओं में बदलती हुई अपने विशेष उद्देश्य को पूर्ण कर रही है। यह उद्देश्य वही है, जो पानी की उस बूँद का है, जो चाहे बादलों द्वारा और चाहे भूमि के अंदर से होकर समुद्र तक पहुँचने के प्रयत्न में लगी होती है। इसे आवागमन कहा गया है।
रेखागणित में बताया गया है कि बिंदु और रेखा काल्पनिक बातें हैं। वे कुछ चीज नहीं हैं परंतु उनका ऐसा अस्तित्व है कि उस पर समस्त गणित अवलंबित है। अफलातून कहता है कि यह केवल विचार है, जो शरीर को छोड़कर दूसरे में जाता है। शॉपनहावर का मत है कि केवल वासना शरीर बदलती है। बौद्ध मत इसे कर्म कहता है, जो अपने इर्द-गिर्द इंद्रियों का सूक्ष्म शरीर एकत्र कर लेता है। यह सूक्ष्म शरीर एक से दूसरा स्थूल शरीर धारण करता है। बौद्धों के विचार में कर्म का अंत ही निर्वाण या मुक्ति है। बौद्ध मतवाले आवागमन का बड़ा दृष्टांत बगूला का देते हैं। हवा के अंदर गति एक विशेष रूप धारण करके अपने इर्द-गिर्द मिट्टी के कण जमा कर लेती है। इससे उसका विशेष आकार बन जाता है। जब यह बगूला एक जगह खत्म हो जाता है, तब वही गति दूसरे स्थान में जाकर नया शरीर धारण करती है। आजकल के आविष्कारों में बेतार का तार का उदाहरण इस सिद्धांत को स्पष्ट करता है। हजारों मीलों के अंतर पर दो स्थलों पर इसके उपकरण रखे रहते हैं। आवाज एक जगह की जाती है, परंतु ईथर के द्वारा उसी क्षण वह दूसरे स्थान में जा सुनाई देती है। इसी प्रकार जब विशेष प्रकार के गुण एक स्थान को छोड़ते हैं, तब उसी समय अपने योग्य दूसरे उपकरण या शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। मौलाना रूम ने कहा है, हमचो सब्जा बारहा रोयदा अम (वनस्पतियों के समान मैं कई बार उत्पन्न हुआ हूँ) । शम्सुल् तबरेज कहता है-
भगवद्गीता के अध्याय चौदह के श्लोक 51 में कहा गया है, प्रकृति के गुण-सत्त्व, रज और तम जीव और शरीर के साथ बाँध देते हैं। अध्याय पंद्रह के श्लोक 72, 83 और 104 में बताया गया है, जीव-लोक में मेरा ही अंश जीव के अलग रूप में चारों ओर इंद्रियाँ एकत्र करके प्रकृति के अंदर हरकत करता है और जब यह शरीर छोड़ता है तब उनको साथ लेकर इस प्रकार चला जाता है जिस प्रकार हवा फूलों में से सुगंध लेकर चली जाती है। अज्ञानी लोग इनके आने-जाने या प्रकृति के गुणों में फँसने को नहीं देख सकते यह तो केवल ज्ञानियों को नजर आता है। अध्याय दो के श्लोक 135 में बताया गया है, जीव के इस शरीर में बचपन, जवानी और बुढ़ापा आते हैं। मृत्यु के बाद उसे नया शरीर मिल जाता है। आगे चलकर श्लोक 226 में कहा गया है, कपड़ों के फट जाने पर मनुष्य उन्हें उतार देता है। वैसे ही जीव एक शरीर को छोड़ दूसरा धारण कर लेता है। अध्याय छह के श्लोक 417, 428 और 431 अध्याय सात का श्लोक 1910 और अध्याय आठ का श्लोक 251 आदि भी आवागमन का वर्णन करते हैं।
यहाँ प्रश्न उठता है, पुरुष प्रकृति में क्यों आ फँसता है ? बात यह है कि प्रकृति और पुरुष- दोनों कार्य-कारण की तरह लाजिम और मलजूम हैं ये एक- दूसरे से अलग नहीं रह सकते। भगवद्गीता में इन दोनों को ब्रह्म के स्वभाव के दो पहलू-परा और अपरा-कहा गया है। प्रलय के समय प्रकृति तम अवस्था में होती है। ब्रह्मांड की उत्पत्ति के समय इसकी अवस्था रज की हो जाती है। सत्त्व की अवस्था में पुरुष ज्ञान को पहुँचकर अपने स्वरूप को प्राप्त करता है ।
भगवद्गीता के अध्याय आठ के श्लोक 52, 63 और 74 में कहा गया है, अंत समय, मरते वक्त, जिसका जो खयाल होता है वह वैसा ही शरीर ग्रहण करता है। इसलिए अर्जुन! तू हर समय मेरा ध्यान रख, ताकि अंत में मेरा ध्यान रहने से तू मेरे पास आए। प्रत्येक मनुष्य प्रतिक्षण अपने समस्त पिछले जीवन का फल होता है। ज्यों-ज्यों उसके ऊपर और संस्कार पड़ते जाते हैं त्यों-त्यों वह बदलता जाता है। इन संस्कारों के संग्रह का नाम ही चरित्र है। इस चरित्र से वह श्रद्धा निमित्त के रूप में उत्पन्न होती है, जो मनुष्य से अन्य कर्म करवाकर अपने इर्द-गिर्द संस्कार एकत्र करती है। भगवद्गीता के अध्याय सत्रह के श्लोक 35 में कहा गया है, मनुष्य वही है जो उसकी श्रद्धा है। कार्य-कारण का यह क्रम मनुष्य के अंदर भी वैसा ही चलता है जैसा कि ब्रह्मांड में।-क्रमशः (हिफी)