(महासमर की महागाथा-21) भाषाओं का स्रोत और महत्व

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)
देवनागरी अक्षर अत्यंत वैज्ञानिक ढंग पर बनाए गए हैं। केवल यही अक्षर हैं, जो उच्चारण-शास्त्र के अनुयायी कहे जा सकते हैं। इसका मतलब यह है कि देवनागरी में जितनी आवाज मुँह से निकलती है उतनी ही लिखी जाती है और जो लिखी जाती है वही बोली जाती है। इनके प्रचलन का ठीक समय नहीं बताया जा सकता। संभव है कि प्राचीन काल में संसार की जातियों के पारस्परिक संपर्क के कारण ये अक्षर पाणिनि या किसी अन्य ऋषि ने बनाए हों।
समानता की एक विचित्र बात यह है कि जहाँ पर यूरोप की भाषाओं में अक्षर ग (एक्स), जो दो मिश्रित आवाजों के लिए इस्तेमाल होता है, एक ही है वहाँ देवनागरी में भी मिश्रित आवाज देने वाला वैसा ही अक्षर क्ष पाया जाता है।
आर्य नस्ल की शाखाओं की भाषाओं का स्रोत एक भाषा मानने में तो किसी विद्वान् को इनकार नहीं क्योंकि उनकी पारस्परिक समानताएँ बहुत प्रबल हैं। पारिवारिक प्रयोग में प्रायः समस्त शब्द, दिनों के नाम और दस तक की गिनती के शब्द एक जैसे ही मालूम देते हैं। यूनानी, लैटिन, जर्मन, अंग्रेजी
आदि और यहूदी भाषा में भी ईश्वर
का नाम एक ही स्रोत, दिव् धातु से निकला हुआ है। दिव् धातु का अर्थ चमकना है।
भाषाओं की एकता का सबसे बड़ा प्रमाण उनके व्याकरणों में पाया जाता है। व्याकरण भाषा के पंजर के समान है। प्रायः सभी बच्चों को व्याकरण याद करने पर बड़ा जोर दिया जाता है परंतु इसका वास्तविक लाभ बहुत कम लोगों को मालूम है। भाषाओं के व्याकरणों की तुलना करने से स्पष्ट नजर आता है कि वे प्रायः हर बात में एक-दूसरे के समान हैं। यदि भाषाओं में भिन्नता होती तो उनकी बनावट क्योंकर एक सी होती? बर्मी और चीनी जैसी जिन भाषाओं का वास्तविक स्रोत से संबंध नहीं है, उनमें व्याकरण पाया ही नहीं जाता। कुछ लोग हैरान होते हैं कि यदि भाषाओं का स्रोत एक है, तो इतनी विभिन्नताएँ कहाँ से आ गईं? इसका उत्तर स्पष्ट है। थोड़ी-थोड़ी दूरी पर जलवायु आदि के प्रभाव से भाषा में परिवर्तन का होना एक स्वाभाविक कानून है। अपने आपको उस काल में समझिए, जब न समाचार-पत्र थे, न छापाखाने, और पुस्तक का उपलब्ध होना भी एक कठिन बात थी। अब आगे चलिए उस काल में, जब लिखने की कला का आविष्कार नहीं हुआ था। ऐसी परिस्थिति में इन विभिन्नताओं का होना किसी प्रकार आश्चर्यजनक मालूम नहीं होगा। इससे यह भी पता चलता है कि प्राचीन भारत में ब्राह्मणों का इतना आदर और मान क्यों किया जाता था। ब्राह्मण वे व्यक्ति थे, जिन्हें उस समय के पुस्तकालय मस्तिष्क के अंदर उठाने पड़ते थे, बल्कि ज्ञान का यह कोश दूसरों के सुपुर्द करने के लिए उन्हें योग्य शिष्य ढूँढ़ने पड़ते थे। बड़े आश्चर्य की बात है कि उन्होंने किस प्रकार वेदों, उपवेदों, वेदांगों, उपनिषदों, शास्त्रों आदि को केवल मस्तिष्क और भाषा के द्वारा हजारों वर्षों तक कायम रखा।
एक दृष्टि से भाषा लोहे के उस संदूक के समान है, जिसमें सारे साहित्य के कोश जमा हों। भारत के आर्यों ने अपनी भाषा और धार्मिक रीतियों को पुरानी दुनिया, मिस्र आदि में फैलाया। बौद्ध मत के उत्कर्ष काल में उनका दर्शन बर्मा, चीन आदि देशों में फैला। मुसलिम उत्कर्ष के समय अरबों ने हिंदुस्तान से ज्ञान संबंधी लाभ उठाया। हारूँउल्रशीद और उसके बेटे के खिलाफत काल में बगदाद के व्यापारी भारत में व्यापार के उद्देश्य से आते और यहाँ की पुस्तकों की नकलें भेंट के रूप में अपने देश में ले जाते। दर्शन, ज्योतिष, वैद्यक, बीजगणित आदि विषयों की सैकड़ों पुस्तकें वहाँ पहुँचीं। आयुर्वेद का अनुवाद अरबी भाषा में किया गया। अरब लोगों ने इन सभी विद्याओं को स्पेन में उस समय विश्वविद्यालय स्थापित करके फैलाया, जब शेष समस्त यूरोप अंधकार में था। विचित्र बात यह है कि यूनानी दर्शन भी यूरोप में अरबी भाषा के द्वारा
फैला।
भाषा केवल सभ्यता के कोश का संदूक ही नहीं है, यह राष्ट्रीयता की वह बड़ी पुस्तक है, जिसमें राष्ट्र या जाति का इतिहास लिखा हुआ मिलता है। यह बात संस्कृत के तुलनात्मक अध्ययन से मालूम हुई कि यूरोप की जातियाँ भी आर्य नस्ल से हैं। भारत में जब शक आदि विदेशी लोगों का आना शुरू हुआ, तब उनकी भाषा की मिलावट आदि कारणों से प्राकृत भाषा बन गई। बौद्ध मत के उत्कर्ष काल में इस भाषा का न केवल हिंदुस्तान, बल्कि बर्मा आदि में भी पवित्र भाषा का दरजा हो गया। जब भारत में लोगों के विभिन्न टुकड़े हो गए और प्राकृत, बंगाली, गुजराती, मराठी आदि भाषाओं में विभक्त हो गई। मुसलिम काल में इन पर फारसी की छाप उसी प्रकार लगी, जिस प्रकार भारत पर मुस्लिम राज्य की लगी। आजकल हमारी भाषा अंग्रेजी से प्रभावित हो रही है।
यहाँ यह समझ लेना आवश्यक है कि भाषा के बने रहने से राष्ट्रीयता बनी रहती है और उसके विनाश से राष्ट्रीयता विनष्ट हो जाती है। वर्तमान शिक्षा प्रणाली से प्रभावित होकर आम शिक्षित लोगों का दिमाग इस प्रकार का बन गया है कि वे यह समझ नहीं सकते कि भारत के नवयुवकों को अपनी भाषा छोड़कर अन्य भाषा के द्वारा शिक्षा देना प्रकृति-विरुद्ध बात है। हिसाब लगाकर देखने से पता लगता है कि शिक्षाकाल में हमारे बच्चों का आधे से ज्यादा समय केवल विदेशी भाषा सीखने और समझने में व्यय होता है। अपनी भाषा की रक्षा का एक ही तरीका है-सारी शिक्षा और सरकारी कार्य इसमें हों। तभी हमारी भाषा सजीव बनेगी और उसमें नया साहित्य उत्पन्न होगा। जो लोग अपनी भाषा में पहले उच्च कोटि की पुस्तकें देखना चाहते हैं और बाद में उसे शिक्षा का माध्यम बनाना चाहते हैं, वे घोड़े के आगे बग्घी जोतकर उसे चलाने की कोशिश करना चाहते हैं। -क्रमशः (हिफी)