
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक
सुदामा
सुदामा जी भगवान् श्रीकृष्ण चन्द्र के बाल्यकाल के सखा थे। दोनों उज्जैन में सान्दीपनिजी महाराज के घर एक साथ ही पढ़े थे। सुदामा वेदवेत्ता, विषयों से विरक्त, शान्त और जितेन्द्रिय थे। विद्या पढ़ चुकने पर दोनों सखा अपने-अपने घर चले गये।
सुदामा बड़े ही गरीब थे। एक समय ऐसा हुआ कि लगातार कई दिनों तक इस ब्राह्मण परिवार को अन्न के दर्शन नहीं हुए। भूख के मारे बेचारी ब्राह्मणी का मुख सूख गया, बच्चों की दशा देखकर उसकी छाती भर आयी। वह जानती थी कि द्वारकाधीश भगवान् श्रीकृष्ण चन्द्र मेरे स्वामी के सखा हैं। उसने डर से काँपते-काँपते पति को सब हालत सुनाकर द्वारका जाने के लिये अनुरोध किया। वह पति के निष्काम भाव को भी जानती थी, इससे उसने कहा-‘प्रभो! मैं जानती हूँ कि आपको धन की रत्ती भर भी चाह नहीं है, परन्तु धन बिना गृहस्थी का निर्वाह होना बड़ा कठिन है। अतएव मेरी समझ से आपका अपने प्रिय मित्र के पास जाना ही आवश्यक और उचित है।’
सुदामा ने सोचा कि ब्राह्मणी दुःखों से घबड़ाकर धन के लिये मुझे वहाँ भेजना चाहती है। उन्हें इस कार्य के लिये मित्र के घर जाने में बड़ा संकोच हुआ। वे कहने लगे-‘पगली् क्या तू धन के लिये मुझे वहाँ भेजती है? क्या ब्राह्मण कभी धन की इच्छा किया करते हैं? अपना तो काम भगवान् का भजन ही करना है। भूख लगने पर भीख माँग ही सकते हैं।’
ब्राह्मणी ने कहा-‘यह तो ठीक है, परन्तु यहाँ भीख भी तो नसीब नहीं होती। मेरे फटे चिथड़े और भूख से छटपटाते बच्चों के मुँह की ओर तो देखिये! मुझे धन नहीं चाहिये। मैं नहीं कहती कि आप उनके पास जाकर राज्य या लक्ष्मी माँगे। अपनी इस दीनदशा में एक बार वहाँ जाकर आप उनसे मिल तो आइये।’ सुदामा ने जाने से बहुत आनाकानी की; परन्तु अन्त में यह विचार कर कि चलो इसी बहाने श्रीकृष्ण चन्द्र के दुर्लभ दर्शन का परम लाभ होगा। सुदामा ने जाने का निश्चय कर लिया। परन्तु खाली हाथों कैसे जायँ? उन्होंने स्त्री से कहा-‘हे कल्याण् ियदि कुछ भेंट देने योग्य सामग्री घर में हो तो लाओ।’ पति की बात तो ठीक थी, परन्तु वह वेचारी क्या देती? घर में अन्न की कनी भी तो नहीं थी। ब्राह्मणी चुप हो गयी। परन्तु आखिर यह सोचकर कि कुछ दिये बिना सुदामा जायँगे नहीं, वह बडे संकोच से पड़ोसिन के पास गयी। आशा तो नहीं थी, परन्तु पड़ोसिन ने दया करके चार मुट्ठी चिउरे उसे दे दिये। ब्राह्मणी ने उनको एक मैले-कुचैले फटे चिथड़े में बाँधकर श्रीकृष्ण की भेंट के लिये पति को दे दिया।
सुदामा जी द्वारका पहुँचे। पूछते-पूछते भगवान् के महलों के दरवाजे पर गये। यहाँ पर कविवर नरोत्तम जी ने बड़ा सुन्दर वर्णन किया है। वे लिखते हैं, द्वारपाल सुदामा जी को आदर से वहीं बैठाकर संवाद देने प्रभु के पास गया और वहाँ जाकर उसने कहा-
सीस पगा न झगा तन पै प्रभु।
जाने को आहि, बसै केहि गामा।
धोती फटी-सी, लटी दुपटी,
अरु पायँ उपानह की नहिं सामा।।
द्वार खड़ो द्विज दुर्बल, देखि
रहो चकि सो बसुधा अभिरामा।
पूछत दीनदयाल को धाम,
बतावत आपनो नाम सुदामा।।
भगवान् ‘सुदामा’ शब्द सुनते ही सारी सुध-बुध भूल गये और हड़बड़ाकर उठे। मुकुट वहीं रह गया, पीताम्बर कहीं गिर पड़ा, पादुका भी नहीं पहन पाये और दौड़े द्वार पर! भगवान् ने दूर से ही सुदामा का बुरा हाल देखकर कहा-
ऐसे बिहाल बिवाइन सो,
पग कंटक जाल गड़े पुनि जोये।
हाय! महादुख पाये सखा! तुम
आये इतै न, कितै दिन खोये।।
देखि सुदामा की दीन दसा,
करुना करिके करुनानिधि रोये।
पानी परात को हाथ छुयो नहि,
नैनन के जल सो पग धोये।।
परात का पानी छूने की आवश्यकता नहीं हुई। सरकार ने अपने आँसुओं की धारा से ही सुदामा के पद पखार डाले और उन्हें छाती से चिपटा लिया। तदनन्तर भगवान् उन्हें आदर सहित महल में ले गये और वहाँ अपने दिव्य पलंग पर बैठाया, तथा स्वयं अपने हाथों से पूजन की सामग्री का संग्रह कर, अपने ही हाथों से उनके चरणों को धोकर, उस जल को स्वयं त्रिलोक पावन होते हुए भी अपने मस्तक पर धारण किया।
तदनन्तर भगवान् ने प्रिय मित्र के शरीर में दिव्य गन्ध युक्त चन्दन, अगर, कुकुंगम लगाया और सुगन्धित धूप, दीप आदि से पूजन करके उन्हें दिव्य भोजन कराया। पान-सुपारी दी। ब्राह्मण सुदामा का शरीर अत्यन्त मलिन और क्षीण था। देह भर में स्थान-स्थान पर नसें निकली हुई थीं। वे एक फटा-पुराना कपड़ा पहने हुए थे। परन्तु भगवान् के प्रिय सखा होने के नाते साक्षात् लक्ष्मी का अवतार रुक्मिणी जी अपनी सखी देवियों सहित रत्नदण्ड युक्त व्यंजन-चामर हाथों में लिये परम दरिद्र भिक्षुक ब्राह्मण की बड़ी चाव से सेवा-पूजा करने लगीं। भगवान् श्रीकृष्ण सुदामा का हाथ अपने हाथ में लेकर लड़कपन की मनोहर बातें करने लगे।
कुछ देर के बाद भगवान् ने प्रिय मित्र की ओर प्रेम पूर्ण दृष्टि से देखते हुए हँसकर कहा कि भाई्! तुम मेरे लिये कुछ भेंट भी लाये हो? भक्तों की प्रेम पूर्वक दी हुई जरा सी वस्तु को भी मैं बहुत मानता हूँ, क्योंकि मैं प्रेम का भूखा हूँ। अभक्त के द्वारा दी हुई अपार सामग्री भी मुझे सन्तुष्ट नहीं कर सकती।’
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः।।
भगवान् के इतना कहने पर भी सुदामा चिउरों की पोटली भगवान् को नहीं दे सके। भगवान् की अतुल राज सम्पत्ति और वैभव देखकर उन्हें चिउरा देने में सुदामा को बड़ी लज्जा हुई।
तब सब प्राणियों के अन्तर की बात जानने वाले हरि ने ब्राह्मण के आने का कारण समझकर विचार किया कि ‘यह मेरा निष्काम भक्त और प्रिय सखा है। इसने धन की कामना से पहले भी कभी मेरा भजन नहीं किया और न अब भी इसे किसी तरह की कामना है। परन्तु यह अपनी पतिव्रता पत्नी की प्रार्थना से मेरे पास आया है, अतएव इसे मैं वह (भोग और मोक्ष रूप) सम्प़ित्त दूँगा, जो देवताओं को भी दुर्लभ है।’
यों विचार कर भगवान् ने ‘यह क्या है?’ कहकर जल्दी से सुदामा की बगल में दबी हुई चिउरों की पोटली जबरदस्ती खींच ली। पुराना फटा कपड़ा था, पोटली खुल गयी और चिउरे चारों ओर बिखर गये। भगवान् बड़े प्रेम से कहने लगे-
नन्वेतुदपनीतं में परमप्रीणनं सखे।
तर्पयन्तत्यंग मां विश्वमेते पृथुकतण्डुलाः।।
हे सखे! आपके द्वारा लाया हुआ यह चिउरों का उपहार मुझको अत्यन्त प्रसन्न करने वाला है। ये चिउरे मुझको और (मेरे साथ ही) समस्त विश्व को तृप्त कर देंगे।’ यों कहकर भगवान् उन बिखरे हुए चिउरों को बीन-बीनकर उन्हें चबाने लगे। भक्त के प्रेमपूर्वक लाये हुए उपहार का इस प्रकार भोग लगाकर भगवान् ने अपने अतुलनीय प्रेम का परिचय दिया।-क्रमशः (हिफी)