
श्रीमद् भगवत गीता का प्रबोध-99
जिस तरह मर्यादा पुुरुषोत्तम श्रीराम के चरित्र को लेकर कहा गया है कि ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता…’ उसी प्रकार भगवान कृष्ण के मुखार बिन्दु से प्रस्फुटित हुई श्रीमद् भगवत गीता का सार भी अतल गहराइयों वाला है। विद्वानों ने अपने-अपने तरह से गीता के रहस्य को समझने और समझाने का प्रयास किया है। गीता का प्रारंभ ही जिस श्लोक से होता है उसकी गहराई को समझना आसान नहीं है। कौरवों और पांडवों के मध्य जो युद्ध लड़ा गया वह भी धर्म क्षेत्रे अर्थात धर्म भूमि और कुरु क्षेत्रे अर्थात तीर्थ भूमि पर लड़ा गया जिससे युद्ध में वीर गति प्राप्त होने वालों का कल्याण हो गया। इसी तरह की व्याख्या स्वामी रामसुख दास ने गीता प्रबोधनी में की है जिसे हम हिफी के पाठकों के लिए क्रमशः प्रकाशित करने का प्रयास करेंगे। हम स्वामी जी के आभारी हैं जिन्होंने गीता के श्लोकों की सरल शब्दों में व्याख्या की है। -प्रधान सम्पादक
भगवान की आज्ञा का पालन ही शरणागति
चिन्तन में तो कर्तृत्व होता है, पर स्मृति में कर्तृत्व नहीं है। कारण कि चिन्तन मन में होता है। मन से परे बुद्धि है, बुद्धि से परे अहम् है और अहम् से परे स्वरूप है। उस स्वरूप में स्मृति होती है। स्वरूप कर्तृत्व रहित है। चिन्तन तो हम करते हैं, पर स्मृति में केवल दृष्टि उधर जाती है। तत्त्व में विस्मृति नहीं है, इसलिये दृष्टि उधर जाते ही स्मृति हो जाती है।
‘स्थितोऽसिम गतसन्देहः‘-अर्जुन को पहले क्षात्र धर्म की दृष्टि से युद्ध करना ठीक दीखता था। फिर गुरुजनों के सामने आने से युद्ध करना पाप दीखने लगा। परन्तु स्मृति प्राप्त होते ही सब उलझनें मिट गयीं। मैं क्या करूँ? या नहीं करूँ? मेरा कल्याण किसमें है? यह सन्देह बिलकुल नहीं रहा। अब अर्जुन के लिये कुछ करना शेष नहीं रहा, प्रत्युत केवल भगवान् की आज्ञा का पालन करना ही शेष रहा-‘करिष्ये वचनं तव’। यही शरणागति है।
इत्यहं वासुदेवस्य पार्थस्य च महात्मनः।
संवादमिममम श्रौषमद्भुतं रोमहर्षणम्।। 74।।
संजय बोले-इस प्रकार मैंने भगवान् वासुदेव और महात्मा पृथानन्दन अर्जुन का यह रोमांचित करने वाला अद्भुत संवाद सुना।
व्याख्या-भगवान् का स्वयं अवतार लेकर मनुष्य जैसा काम करते हुए अपने-आपको प्रकट कर देना और मेरी शरण में आ जा-यह अत्यन्त रहस्य की बात कह देना-यही संवाद में रोमहर्षण करने वाली, प्रसन्न करने वाली, आनन्द देने वाली बात है।
गीता में ‘महात्मा’ शब्द केवल भक्तों के लिये आया है। यहाँ संजय ने अर्जुन को भी ‘महात्मा’ कहा है, क्योंकि वे अर्जुन को भक्त ही मानते हैं। भगवान् ने भी कहा-‘भक्तोऽसि में’ (गीता 4/3)।
व्यासप्रसादाच्छुतवानेतद्गुह्यमहं परम्।
योगं योगेश्वरात्कृष्णात्साक्षात्कथयतः स्वयम्।। 75।।
व्यास जी की कृपा से मैंने स्वयं इस परम गोपनीय योग (गीता ग्रन्थ) को कहते हुए साक्षात् योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण से सुना है।
व्याख्या-भगवान् श्रीकृष्ण और महात्मा अर्जुन का पूरा संवाद सुनने पर संजय के आनन्द की कोई सीमा नहीं रही। इसलिये वे हर्षोल्लास में भरकर कह रहे हैं कि मैंने यह संवाद परम्परा से अथवा किसी के द्वारा नहीं सुना है, प्रत्युत इसे मैंने साक्षात् भगवान् के मुख से सुना है।
राजन्संस्मृत्य संस्कृत्य संवादमिममद्भुतम्।
केशवार्जुनयोः पुण्यं हृष्यामि च मुहुर्मुहुः।। 76।।
हे राजन्! भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुन के इस पवित्र और अद्भुत संवाद को याद कर-करके मैं बार-बार हर्षित हो रहा हूँ।
व्याख्या-भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुन के इस संवाद में जो तत्त्व भरा हुआ है, वह किसी ग्रन्थ, महात्मा का बड़ा विलक्षण संवाद है। इतनी स्पष्ट बातें दूसरी जगह पढ़ने-सुनने को मिलती नहीं। इस संवाद में युद्ध-जैसे घोर कर्म से भी कल्याण होने की बात कही गयी है। प्रत्येक वर्ण, आश्रम, सम्प्रदाय आदि का मनुष्य प्रत्येक परिस्थिति में अपना कल्याण कर सकता है-यह बात इस संवाद से मिलती है। इसलिये यह संवाद बड़ा अद्भुत है। केवल संवाद में ही इतनी विलक्षणता है, फिर इसके अनुसार आचरण करने का तो कहना ही क्या है। ज्ञान-कर्म-भक्ति की ऐसी विलक्षण बातें और जगह सुनने को मिली ही नहीं, इसलिये इनको सुनकर संजय बार-बार हर्षित हो रहे हैं।
तच्च संस्मृत्य संस्मृत्य रूपमत्यद्भुतं हरेः।
विस्मयो मे महान् राजन् हृष्यामि च पुनः पुनः।। 77।।
हे राजन्! भगवान् श्रीकृष्ण के उस अत्यन्त अद्भुत विराट रूप को भी याद कर-करके मुझे बड़ा भारी आश्चर्य हो रहा है और मैं बार-बार हर्षित हो रहा हूँ।
व्याख्या-भगवान् के विषय में पहले तो संजय ने शास्त्र में पढ़ा, फिर अद्भुत संवाद सुना और फिर अति अद्भुत विराट रूप देखा। तात्पर्य है कि शास्त्र की अपेक्षा श्रीकृष्णार्जुन-संवाद अद्भुत था और संवाद की अपेक्षा भी विराट रूप अत्यन्त अद्भुत था।
यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिध्र्रुवा नीतिर्मतिर्मम।। 78।।
जहाँ योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण हैं और जहाँ गाण्डीव-धनुषधारी अर्जुन हैं, वहाँ ही श्री, विजय, विभूति और अचल नीति है-ऐसा मेरा मत है।
व्याख्या-संजय कहते हैं कि राजन्! जहाँ अर्जुन का संरक्षण करने वाले, उन्हें सम्मति देने वाले, सम्पूर्ण योगों के महान् ईश्वर, महान् बलशाली, महान् ऐश्वर्यवान्, महान् विद्यावान्, महान् चतुर भगवान्, श्रीकृष्ण हैं और जहाँ भगवान् की आज्ञा का पालन करने वाले, भगवान् के प्रिय सखा तथा शरणागत भक्त गाण्डीव-धनुर्धारी अर्जुन हैं, उसी पक्ष में श्री, विजय विभूति, और अचल नीति-ये सभी हैं और मेरी सम्मति भी उसी पक्ष में ही है।
युद्ध में कौन जीतेगा और कौन हारेगा-इसका निर्णय वास्तव में उसी समय हो गया था, जब अर्जुन और दुर्योधन-दोनों युद्ध का निमन्त्रण देने भगवान् श्रीकृष्ण के पास पहुँचे थे। अर्जुन ने अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित नारायणी सेना को छोड़कर निःशस्त्र भगवान् श्रीकृष्ण को स्वीकार किया, और दुर्योधन ने भगवान् को छोड़कर उनकी नारायणी सेना को स्वीकार किया। गीता के अन्त में संजय भी मानो उसी निर्णय की ओर संकेत करते हैं। यह सर्वविदित तथ्य है कि जहाँ भगवान् श्रीकृष्ण विराजमान हैं, वहीं जिवय हैं-‘यतः कृष्णस्ततो जयः (महाभारत भीष्म0 43/60, शल्य0 62/32)।
ब्रह्मशट्शून्यनेत्राब्दे हेमलम्बाख्यवत्सरे।
नवम्यां चैत्रशुक्लायां रामजन्ममहोत्सवे।।
गीता प्रबोधनीटीकालेखनं पूर्णतामागात्।
यत्कृपातो नमामस्तं गीतागायकमच्युतम्।।
ऊँ तत्सदिति श्रीम˜वद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां
योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे मोक्षसन्नयासयोगो
नामाष्टादशोऽध्याय। 18।।
समाप्त (हिफी)