कर्म का सिद्धांत

Theory of karma (कर्म का सिद्धांत) 8 प्रारब्ध से कैसे बचा जाए?

अब ये गेहू का बीज, ये संचित कर्म है। तुम मिटटी में डाल दो। ये मिट्टी है, इसमें डाल दूं तो क्या होगा?

शरीर छोड़ने के बाद जब अगला जन्म लोगे तो वहां भी वो चित्ति में संचित कर्म वो साथ-साथ तुम्हारी धरोहर के रूप में तुम्हारे साथ जाती है। तो इनको जलाना है।
तुम्हें जो सिद्ध मार्ग के साधक है, उनकी यही चेष्ठा रहनी चाहिए कि और कर्म मैं पैदा न करू और पिछले सारे कर्म जला दूं। लेकिन कैसे जलते हैं क्रियामन विचार? क्रियामन विचार मन में उठने वाले विचार उनको आसानी से तुम रोक सकते हो। यदि तुम निरन्तर दुष्टभाव से अपने विचारों को देखना प्रारम्भ कर दो, और ये ज्ञान

जैसे उदाहरण के तौर पर एक आदमी बीमार था। एक महीना पहले बीमार था ये समझो बुरी तरह से बीमार था। संत्संग मंे आया अथवा ठीक हो गया। आज मिलने आई दो अम्मा, मेरे से हफ्ता पहले वह भी बीमार थी गुरु मां से बात की। आज बिल्कुल ठीक हो गई। जो ठीक हो गई इसको ध्यान मंे रखते गुरु प्रसाद समझ के अगर वो साधना में जुट जाती है। यहां से जाए और फिर से तुम बीमार हो जाओ तो वहीं मैनें रोका। मैंने कहा- ‘‘खबरदार! ऐसा कोई भी impression उसको भूलने की कोशिश करना।  क्योंकि प्रत्येक तुम्हारे जीवन में उसको नहीं होने देना, उसको नहीं करने देना।
तो क्रियामन को तुम रोक सकते हो। संचित कर्मों को अच्छे कर्म करके, साधना करके, निष्काम सेवा करके, गुरु सानिध्य में रहकर तुम उसको जला सकते हो।
अब तीसरा रह गया प्रारब्ध भोग। अब तीर चल गया है, उससे कैसे बचा जाए? प्रारब्ध से कैसे बचा जाए? गेहूं का बीज मैंने पैदा कर दिया गेहूं का बीज हो गया संचित कर्म। समझ आ रही है बात की नहीं आ रही है? तो ध्यान से समझलें। ये जीवन बदल जाएगा।
अब ये गेहू का बीज, ये संचित कर्म है। तुम मिटटी में डाल दो। ये मिट्टी है, इसमें डाल दूं तो क्या होगा? मैंने ये डाल दिया, तो या तो ये उगेगा या नहीं। अगर उगेगा, और कब उगेगा जब इसको मैं पानी दूंगा, इसको खाद दूंगा, पानी और खाद का मतलब, संचित कर्म मैंने पैदा किया। और मैं बीज ही नहीं डाल रहा, बार-बार मैं जो और कर्म पैदा कर रहा हूं, वो उस संचित कर्म का, पानी देने, खाद देने का काम करता है। वो अंकुरित होके उसका पौधा बनेगा, और उसमंे जो गेहूं पैदा होगा वो मुझे खाना है।  गेहू का बीज तो तुमने फैंक दिया, लेकिन गुरु कहता है, ‘‘खबरदार इसको पानी नहीं देना है।’’ तो वो थोड़ा सा अंकुरित होगा, थोड़ा सा पौधा बनेगा और वहीं मर जाएगा। उसमें से गेहू पैदा ही नहीं होगा और प्रारब्ध भोग से तुम बच जाओंगे।
इसी को कहते है जब उसको पानी दे दोगे, पानी दे दे के खाद देते हो तो उसका फल खा खा के मनुष्य रोता है। लेकिन यदि तुम उसको अपने कर्मोें के जल से नहीं सीचोगें, कर्मों की खाद से नहीं सीचोगे तो प्रारब्ध भोग में वो अंकुरित तो होगा, लेकिन तुम्हें तो कष्ट नहीं देगा। तो प्रारब्ध भोग होगा। लेकिन उसकी इंटेनसिटी जो वे डुरेशन जो है प्ररब्ध भोग में लिखा है कि दो बरस दुख पाना है तो उसको reduce करके दो महीना कर सकते हो। दो हफ्ता कर सकती हो। जहां इंटेनसिटी बड़ी भयकर है, ंवहां जो उसका वेग है, जो धारा है, उसकी धारा के उसके विपरीत सतकर्मों की धारा पैदा कर देते हो तो वो वेग से तुम्हारे कष्टों की धारा जो बह रही है, उसको बीच में रोक देती है। तो प्ररब्ध भोग को यहां कम किया जा सकता है। वह जो भिखारी था। उसने सत्संग नहीं किया। जो भिखारी था उसने मंत्र जप नहीं किया, उसका प्रराब्ध भोग ही सबूत है। भगवान शिव ने भी प्रयास किया तो वहां को काटने क लिए बार-बार ऐसा हुआ। फिर बताता हूं साधना सिद्ध कुण्डली योग, साधना मंत्र जप, निष्काम प्रेम से भरी सेवा के बारे में।

एक बुल्लेशाह रूबाई है। वे कहता था की चाहे मंदिर मस्जिद तोड़ो लेकिन किसी का दिल नहीं तोड़

ना क्योंकि इस दिल में दिलबर रहता है। दिलवर यानी शिव, दिल के भीतर रहता है। पत्थर से मंदिर बनाते हो पत्थर के मंदिर में पत्थर का शिव पैदा करते हो, बड़ी बात नहीं है। यदि वास्तव में जो मंदिर तुम्हें मिला है, इस मंदिर में तुम उस दिल की स्थापना करो। और प्रत्येक मनुष्य के मन में जो मंदिर है, उस के भीतर जो शिव बैठा है, यदि उसके प्रति तुम नतमस्तक होते हो तो तुम पर शिव कृपा होनी शुरू हो जानी है। तो पत्थर का सब तोड़ देना लेकिन किसी का दिल नहीं तोड़ना। या अगर पत्थर को तोड़ने की बारी आए किसी का दिल तोड़ने की बारी आए, तो दिल किसी का नहंी तोड़ना। दिल किसी का नहीं दुखाना। क्योंकि उसमें वो दिलबर, वो शिव साक्षात सजीव बैठा है। उसको तुम तोड़के अगर मंदिर में जा कर पूजा करने से मुझे नहीं समझ आयी। तुमको इसलिए मैं कभी दोहराता हूं की दिल किसी का न दुखे, चाहे तुम मुझे साॅफ्ट कहो या कुछ कहो। मैं अपनी मस्ती में मस्त हूं। अवधूत किसी का अहित नहीं करसकता। या तो जीतीत करने का चेष्ठा करेगा। या कष्ट दूर करने की चेष्ठा करेगा हम लोग शिव के आपा है हम तो विष को पीना जानते हैं। किसी को कष्ट है उसको पीना जानते है। यहां नीलकण्ठ में अपना कंठ है, उसको स्थापित कर देते है। लेकिन भीतर जो विष ले लिया है, तो किसी और के ऊपर विष छिड़कना नहीं चाहिए। वैसे ही तुम बनो। जब तुम ऐसे बन गए, तो तुम्हें शिव का सनिध्य पूर्ण रूप से प्राप्त होगा। किसी का दिल कभी नहीं दुखाना। जब कोई दुखी होता, तो उससे भी बहुत बड़े कर्म उत्पन्न होते हैं इस प्रकृति में और वहीं कर्म संक्षिप्त कर्म के रूप में आ जाते हैं। एक अहंकारी मनुष्य, जब अहंकार होता है तब वो किसी को कुछ समझता ही नहीं। और वह किसी का दिल दुखाने की कोशिश करता है।

तो न तो क्रोध करना ही किसी का दिल दुखाना ये बड़ा जरूरी है। एक सिद्ध था साधना करता था और सिद्ध मार्ग पर चलता था। अभी सिद्ध हुआ नहीं लेकिन साधना करते करते अनुभव होने शुरू हो गया। कभी शरीर के बाहर आ जाए, शरीर के भीतर चला जाए। अलग अलग लोकों में भ्रमण करते हुए धीरे-धरे अपने दरवाजे में प्रवेश करना शुरू कर गया। प्राणायाम दोहा करने लगा प्राणायम करू तो मन में ऐसे प्रवेश करते करते एक दिन उसको ऐसे माहरथ हासिल हो गयी कि वो अपने चित्त को फाड़कर उसके भीतर प्रवेश कर गया। जब चित्त के भीतर प्रवेश किया तो उसके पीछले जन्मों के सारे अनुभव सारे दुष्टांत दिखने लग गए। past life  बोलते हैं past life के expression अभी बड़ा रिवाज चला था और दुनिया जा जा past life reservation करा रही थी खुश होके है। कोई जरूरत नहीं reservation कराने की। उसको सब दिखना शुरू हो गया। कभी वो राजा था, तो कभी वो भिखारी था, तो बड़े आनंद में था, तो कभी बड़े दुख मय जीवन और कितने लाखों कर्म जो प्रारब्ध भोग बनाने के लिए तैयार बैठा थे। ऐसे बड़े बड़े हथियार आटोंबम उसके मन में उसके चित्त में रखे जो उसके ऊपर गिरने वाले था। असलहा मैंने पैदा किया है। इसको मै अगर हजार जन्म मिटाता जाऊं तो मेरेसे मिटने वाला नहीं है। अब मैं क्या करूं? तो सिद्ध मार्ग पर चलता है तो वहां भी आस-पास में काई सिद्ध होगा। वो अवश्य ही उसकी सहायता के लिए पहुंच जाएगा। वो एक सिद्ध उसके सूक्ष्म चित्ति में प्रवेश कर गया। उसके प्रणाम किया। बोला भगवान, मुझको रास्ता दिखाओं। मैं तो सोच रहा था सिद्ध हो जाऊंगा, दिनत्व को प्राप्त हो जाऊंगा। लेकिन इतना…..इतने लाखों जन्मों का कर्म? ये तो कितने जन्म और ले लूगा ये तो मेरा उधार नहीं करेगा। मुझे बताओं मैं क्या करूं? तो ये सिद्ध उसकी सहायता करने आया। उससे बोला, तू एक चीज बता, मुझे कि ये जो घटनाएं तूने देखी। किसी कुछ सुखद घटनाए थी कुछ दुखद घटनाएं थी,  हा दुख की ज्यादा प्रभाव डालती है। वो जितना प्रभाव डालती है, संचित कर्म उतना ही पैदा हो जाते हैं। उसके बाद उसने ये कहा कि क्या तुझे याद है कि पहला कर्म तूने कब किया था? बोला, भगवान मुझे नहीं याद है कौन सा कर्म मैने पहले किया था मुझे याद नहीं। लेकिन वे घटनाएं देख के मैं घबरा गया। तो सिद्ध ने कहा-देखों जितने भी मनुष्य है, उतने कथा सुनने में बड़ा आनंद लेते हैं। अभी तक मुझे सुन रहे हो बड़ा आनंद आ रहा है। साधक आंख बंद करता है तो उसे अंदर के जो दृष्टांत देखता है, वो की कथा सुनी हो गई। तुम कथा सुनने में रस लेना बंद कर दो, साधना में रस लेना शुरू कर दो। लेकिन तुमने साधना का नाम लेकर अपने अंतर में प्रवेश करके अपने अंदर की कथाए सुनना शुरू कर दिया है। तुम्हारे जीवन में जो पिछली घटनाएं होनी थी, तुमने उसमे रूचि लेना शुरू कर दिया। इससे तुम्हें कोई लेना देना नहीं है। इसको तो तुम छोड़ आए। जैसे आज वो आज आई थी। वहीं बीती में एक हफ्ते पहले शुरू हुई थी। मेरे ऐसे कष्ट में। बोला देख रूचि ले रहे हो एक हफ्ते की दुख की रूचि ले रहे हो। एक हफ्ते की दुख की कथा सुनने की रूचि ले रही है। आज जो कष्ट मिटा है उसको सुनने का कोई मतलब नहंीं है। और उसी घटना को जब हम ध्यान में जाते हैं, देखने के बाद बाबा बोलता है उसे दृष्टांत रखना है। तुम जितने साधक हो उसका दृष्ट भाव रखना है, उसको आनंद लेना नहीं है। उस कथा को सुनना नहीं है कि क्या घटा था तुम्हारे पिछले जीवने में और क्या घटा था उससे कुछ नहीं लेना है। वह बोला महराज, ये सब तो ठीक है लेकिन अब ये बताओं मैं इससे कैसे पार हों?’’सिद्ध बोला- बड़ा सरल है। पार पाना बड़ा सरल है पार पाना शारणर्थी, शारणर्थी तुमकों होना पड़ेगा। समर्पण तुमको करना पड़ेगा समर्पण वहीं कर पाता है जिसके मन में अहंकारं नहीं होता। जो सर्मपण करता है वो झुक जाता है और जो झुक जाता है तो जितना भी कर्म उसके संचित कर दो? जब वो गुरु के चरणों में अपने इष्ट के चरणों में झुकता है, तो वो सारे कर्म वही छोड़ देता है शरणागति इसलिए कहते हैं लोग। इसलिए नहीं कहते कि तुम्हारे गुरू को कोई जरूरत है तुम्हारे शरणागति के होने की। इसलिए नहीं कहते कि शिव को अवश्यकता तुम्हारे शरणागति होने की। क्योंकि शरणागति हो जाओ, पूर्ण समर्पण करो। इसलिए कहते हैं जो भी साधक साधना मार्ग में जाना चाहता है उसका गुरू होना चाहिए। गुरू क्यों होना चाहिए, मैं खुद क्यों नहीं साधना कर लूँ ? मैं जब खुद साधना करूंगा तो मुझे उपलब्धि होगी और जब उपलब्धि होगी तो अहंकार होगा, मैं और तन जाऊंगा और कितना मैं तनुंगा मुझे मालूम नहीं। मेरे चित्ति में और जब गुरू होता है तब ये भाव आता है कि ये मैं नहीं कर रहा ये वो कर रहा है। उसी की शक्ति करवा रही है। और वो वास्तव में प्रकृति मार्ग में गुरू की शक्ति करवाती है। उस समय जब तुम शरणागति होने पर पूर्ण रूप से Surrender करते हो कि Surrender तो वो भी कर्म है।

इसलिए शरणागति होना। लेकिन उसके लिए तुम पर शुरू कर दो गुरू कृपा प्राप्त होनी चाहिए। गुरू तुम्हारा नहीं है जाओ पहले विधिवत दिक्षा लो। भोलेनाथ कितने दयालु! हैं दयालु भगवान है! वो बोलते हैं, शिवलिंग के ऊपर मुझे मिठाई चढ़ाने की कोई जरूरत नहीं है। मुझे अच्छे-अच्छे द्रव्य चढ़ाने की कोई जरूरत नहीं। मेरे ऊपर धतूरा जहर जो भी बेकार की चीज है सब चढ़ा दो। मैं उसी में आनन्द में हूँ। भोलेनाथ बोलते हैं ‘‘तू अपने सारे कष्ट मेरी ओर समर्पित कर दे लेकिन मैं आया तो हूं लेकिन मेरे पास मेरा क्या है? यदि मैं ये कहता हूँ कि ये तन समर्पित करता हूँ तो वो भी नहीं कर सकता क्योंकि तन मेरे माता पिता ने मुझे दिया है। यदि मैं ये कहता हूँ, कि धन मैं समर्पित करता हुँ तो मैं वो भी नहीं कर सकता क्योंकि वो मैंने इस संसार से उठाया है। मेरा अपना सिर्फ एक ही चीज है, जो कई जन्मों से मेरे साथ चली आ रही है शुरू से चली आ रही है, और वो है मेरा कर्म।  मैं क्या समर्पित कर सकता हूँ शिव चरणों में? और वो है तेरे कर्म। अपने कर्मों को जब भी सत्संग में लाओ तो यही सोचों कि मैं पूर्ण रूप से समर्पित होता हूँ और मैं अपना जो कुछ है तुमको समर्पित किया। सारे कर्म वहीं उसी समय छूट जाते हैं और तुम उन कर्माे से विहीन हो जाते हो। Total Bankruptcy  की State आ जाती है। जितना खाता है वो खाता है बाकी वही छोड़ देते हैं। गुरू से जब दिक्षा लेके तुम साधना करते हो तो इतनी दिव्य अग्नि पैदा होती है कि सब कुछ जल जाता है। यही उसने किया और वो सिद्धत्व को प्राप्त हुआ। तो क्रियामन मन से जो भी विचार आए उसको देखना यह विचार ऐसाStrong impression वाला न हो कि जो संचित कर्म के रूप में बैठ जाए। संस्कार के रूप में तुम्हारे मन में न बैठ जाए। सोचों, संचित कर्म पैदा नहीं करने। और अगर पैदा कर लिए तो उसी समय उसको नष्ट करने की चेष्ठा करती है। और नष्ट कैसे करना है निष्काम सेवा से। बड़ी आसान है, मैंने कर के दिखाया है अभी यहाँ जितनी चप्पल पड़ी है अगर कोई जन उठा के इसको कोने में प्यार से झाड़ पोछ के लगा देवे, तो उसके न जाने कितने हजार जन्मों के संचित कर्म वहीं जल के भस्म हो जायेंगे। कितना आसान है, सेवा करना कितना आसान है। कोई बेचारा बैठ नहीं पा रहा है, तुम लाके कुर्सी वहाँ उसको बैठा दो कि आप यहाँ शान्ति से बैठ जाओ। निश्काम सेवा करते ही प्रतिदिन अपने से यही बात पूछना तुम कि मैंने आज कितनी निष्काम सेवा करी। निष्काम सेवा बहुत जरूरी है। यही निष्काम सेवा तेरे संचित कर्मो को जलाती है।

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