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शास्त्रार्थ के रूप हैं जल्प, वितंडा, वाद

धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे (दसवां अध्याय-12)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)

रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक

प्रश्न-यहाँ ‘राम’ शब्द किसका वाचक है और उनको अपना स्वरूप बतलाने का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-‘राम’ शब्द दशरथ पुत्र भगवान् श्रीरामचन्द्र जी का वाचक है। उनको अपना स्वरूप बतलाकर भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि भिन्न-भिन्न युगों में भिन्न-भिन्न प्रकार की लीला करने के लिये मैं ही भिन्न-भिन्न रूप
धारण करता हूँ। श्रीराम में और मुझमें कोई अन्तर नहीं है, स्वयं मैं ही श्रीरामरूप में अवतीर्ण होता हूँ।
प्रश्न-मछलियों में मगर को अपनी विभूति बतलाने का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-जितने प्रकार की मछलियाँ होती हैं उन सबमें मगर बहुत बड़ा और बलवान् होता है इसी विशेषता के कारण मछलियों में मगर को भगवान् ने अपनी विभूति बतलाया है।
प्रश्न-नदियों में जाह्नवी (गंगा) को अपना स्वरूप बतलाने का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-जाह्नवी अर्थात् श्रीभागीरथी गंगा जी समस्त नदियों में परम श्रेष्ठ हैं। ये श्री भगवान् के चरणोदक से उत्पन्न परम पवित्र हैं। पुराण और इतिहासों में इनका बड़ा भारी माहात्म्य बतलाया गया है।
इसके अतिरिक्त यह बात भी है कि एक बार भगवान् विष्णु स्वयं ही द्रवरूप होकर बहने लगे थे और ब्रह्माजी के कमण्डलु में जाकर गंगा रूप हो गये थे। इस प्रकार साक्षात् ब्रह्मद्रव होने के कारण भी गंगा जी का अत्यन्त महात्म्य है। इसीलिये भगवान् ने गंगा को अपना स्वरूप बतलाया है।

सर्गाणामादिरन्तश्व मध्यं चैवाहमर्जुन।
अध्यात्मविद्या विद्यानां वादः प्रवदताम्हम्।। 32।।

प्रश्न-बीसवें श्लोक में भगवान् ने अपने को भूतों का आदि, मध्य और अन्त बतलाया है, यहाँ फिर सर्गों का आदि, मध्य और अन्त बतलाते हैं। इसमें क्या पुनरुक्तिका दोष नहीं आता?
उत्तर-पुनरुक्तिका दोष नहीं है, क्योंकि वहाँ ‘भूत’ शब्द चेतन प्राणियों का वाचक है और यहाँ ‘सर्ग’ शब्द जड़ चेतन समस्त वस्तुओं और समस्त लोकों के सहित सम्पूर्ण सृष्टि का वाचक है।
प्रश्न-समस्त विद्याओं में अध्यात्म विद्या को अपना स्वरूप बतलाने का क्या अभिप्राय है?

उत्तर-अध्यात्म विद्या या ब्रह्म विद्या उस विद्या को कहते हैं जिसका आत्मा से सम्बन्ध है, जो आत्म तत्व का प्रकाश करती है और जिसके प्रभाव से अनायास ही ब्रह्म का साक्षात्कार हो जाता है। संसार में ज्ञात या अज्ञात जितनी भी विद्याएँ हैं, सभी इस ब्रह्म विद्या से निकृष्ट हैं क्योंकि उनसे अज्ञान का बन्धन टूटता नहीं, बल्कि और भी दृढ़ होता है। परन्तु इस ब्रह्म विद्या से अज्ञान की गाँठ सदा के लिये खुल जाती है और परमात्मा के स्वरूप का यथार्थ साक्षात्कार हो जाता है। इसी से यह सबसे श्रेष्ठ है और इसीलिये भगवान् ने इसको अपना स्वरूप बतलाया है।
प्रश्न-‘वाद’ को विभूतियों में बतलाने का क्या अभिप्राय है?

उत्तर-शास्त्रार्थ के तीन स्वरूप होते हैं-जल्प, वितण्डा और वाद। उचित-अनुचित का विचार छोड़कर अपने पक्ष के मण्डन और दूसरे के पक्ष का खण्डन करने के लिये जो विवाद किया जाता है, उसे ‘जल्प’ कहते हैं केवल दूसरे पक्ष का खण्डन करने के लिये किये जाने वाले विवाद को ‘वितण्डा’ कहते हैं और जो तत्त्व निर्णय के उद्देश्य से शुद्ध नीयत से किया जाता है, उसे ‘वाद’ कहते हैं। ‘जल्प’ और ‘वितण्डा’ से द्वेष, और ‘वाद’ से सत्य के निर्णय में और कल्याण-साधन में सहायता प्राप्त होती है। ‘जल्प’ और ‘वितण्डा’ त्याज्य हैं तथा ‘वाद’ आवश्यकता होने पर ग्राह्य है। इसी विशेषता के कारण भगवान् ने ‘वाद’ को अपनी विभूति बतलाया है।

अक्षराणामकारोऽस्मि द्वन्द्वः सामासिकस्य च।
अहमेवाक्षयः कालो धाताहं विश्वतोमुखः।। 33।।
प्रश्न-अक्षरों में अकार को अपना स्वरूप बतलाने का क्या अभिप्राय है?

उत्तर-स्वर और व्यंजन आदि जितने भी अक्षर हैं, उन सब में अकार सबका आदि है और वही सबमंे व्याप्त है। श्रुति में भी कहा है-
‘अकारो वै सर्वा वाक्।
‘समस्त वाणी अकार है।’ इन कारणों से अकार सब वर्णों में श्रेष्ठ है, इसीलिये भगवान् ने उसको अपना स्वरूप बतलाया है।
प्रश्न-सब प्रकार के समासों में द्वन्द्व समाज को अपनी विभूति बतलाने का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-द्वन्द्व समास में दोनों पदों के अर्थ की प्रधानता होने के कारण, वह अन्य समासों से श्रेष्ठ है इसलिये भगवान् ने उसको अपनी विभूतियों में गिना है।
प्रश्न-तीसवें श्लोक में जिस ‘काल’ को भगवान् ने अपना स्वरूप बतलाया है, उसमें और इस श्लोक में बतलाये हुए ‘काल’ में क्या भेद है?

उत्तर-तीसवें श्लोक में जिस ‘काल’ का वर्णन है, वह कल्प, युग, वर्ष, अयन, मास, दिन, घड़ी और क्षण आदि के नाम से कहे जाने वाले ‘समय’ का वाचक है। वह प्रकृति का कार्य है, महाप्रलय में वह नहीं रहता। इसीलिये वह ‘अक्षय’ नहीं है और इस श्लोक में जिस ‘काल’ का वर्णन है, वह सनातन, शाश्वत, अनादि, अनन्त और नित्य परब्रह्म परमात्मा का साक्षात् स्वरूप है, इसीलिये इसके साथ ‘अक्षय’ विशेषण दिया गया है। अतएव तीसवें श्लोक में वर्णित ‘काल’ से इसमें बहुत अन्तर है। वह प्रकृति का कार्य है और यह प्रकृति से सर्वथा अतीत है।
प्रश्न-सब ओर मुखवाला
धाता अर्थात् सबका धारण पोषण करने वाला मैं हूँ, इस कथन का क्या अभिप्राय है?

उत्तर-इस कथन से भगवान् ने विराट के साथ अपनी एकता दिखलायी है। अभिप्राय यह है कि जो सबका
धारण-पोषण करने वाला सर्व व्यापी विश्व रूप परमेश्वर है, वह मैं ही हूँ मुझसे भिन्न वह कोई दूसरा नहीं है।

मृत्युः सर्वहरश्वाहमु˜वश्व भविष्यातम्।
कीर्तिः श्रीर्वाक्च नारीणां स्मृतिमेंधा धृतिः क्षमा।। 34।।
प्रश्न-सबका नाश करने वाले मृत्यु को अपना स्वरूप बतलाने का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-भगवान् ही मृत्यु रूप होकर सबका संहार करते हैं। इसलिये यहाँ भगवान् ने मृत्यु को अपना स्वरूप बतलाया है। नवम अध्याय के उन्नीसवें श्लोक में भी कहा है कि ‘मृत्यु और अमृत मैं ही हूँ।’-क्रमशः (हिफी)

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