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अर्जुन ने संन्यास व त्याग के बारे में पूछा

धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे (अट्ठारहवां अध्याय-01)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)

रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके।-प्रधान सम्पादक

संन्यासस्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम्।
त्यागस्य च हृषीकेश पृथक्केशिनिषूदन।। 1।।
प्रश्न-यहाँ ‘महाबाहो’, ‘हृषीकेश’ और ‘केशिनिषूदन’ इन तीन सम्बोधनों के प्रयोग का क्या भाव है?
उत्तर-इन सम्बोधनों से अर्जुन ने यह भाव दिखलाया है कि आप सर्वशक्तिमान, सर्वान्तर्यामी और समस्त दोषों के नाश करने वाले साक्षात् परमेश्वर हैं। अतः मैं आपसे जो कुछ जानना चाहता हूँ उसे आप भलीभाँति जानते हैं। इसलिये मेरी प्रार्थना पर
ध्यान देकर आप उस विषय को
मुझे इस प्रकार समझाइये जिससे मैं उसे पूर्णरूप से यथार्थ समझ सकूँ और मेरी सारी शंकाओं का सर्वथा नाश हो जायं।
प्रश्न-मैं संन्यास के और त्याग के तत्त्व को पृथक्-पृथक् जानना चाहता हूँ इस कथन से अर्जुन का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-उपर्युक्त कथन से अर्जुन ने यह भाव प्रकट किया है कि संन्यास (ज्ञानयोग) का क्या स्वरूप है, उसमें कौन-कौन से भाव और कर्म सहायक एवं कौन-कौन से बाधक हैं, उपासना सहित सांख्य योग का और केवल सांख्य योग का साधन किस प्रकार किया जाता है इसी प्रकार त्याग (फलासक्ति के त्याग रूप कर्म योग) का क्या स्वरूप है केवल कर्म योग का साधन किस प्रकार होता है, क्या करना इसके लिये उपयोगी है और क्या करना इसमें बाधक है। भक्ति मिश्रित कर्मयोग कौन-सा है भक्ति प्रधान कर्म योग कौन-सा है तथा लौकिक और शाóीय कर्म करते हुए भक्ति मिश्रित एवं भक्ति प्रधान कर्मयोग का साधन किस प्रकार किया जाता है। इन सब बातों को भी मैं भलीभाँति जानना चाहता हूँ। इसके सिवा इन दोनों साधनों के मैं पृथक्-पृथक लक्षण एवं स्वरूप भी जानना चाहता हूँ। आप कृपा करके मुझे इन दोनों को इस प्रकार अलग-अलग करके समझाइये जिससे एक में दूसरे का मिश्रण न हो सके और दोनों भेद भलीभाँति मेरी समझ में आ जाय।
प्रश्न-उपर्युक्त प्रकार से संन्यास और त्याग का तत्त्व समझाने के लिये भगवान् ने किन-किन श्लोकों में कौन-कौन सी बात कही है?
उत्तर-इस अध्याय के तेरहवें से सतरहवें श्लोक तक संन्यास (ज्ञान योग) का स्वरूप बतलाया है। उन्नीसवें से चालीसवें श्लोक तक जो सात्त्विक भाव और कर्म बतलाये हैं, वे इसके साधन में उपयोगी हैं और राजस,
तामस इसके विरोधी हैं। पचासवें से पचपनवें तक उपासना सहित सांख्य योग की विधि और फल बताया है
तथा सतरहवें श्लोक में केवल सांख्य योग का साधन करने का प्रकार बतलाया है।
इसी प्रकार छठे श्लोक में (फल सक्ति के त्याग रूप) कर्म योग का स्वरूप बतलाया है। नवें श्लोक से सात्त्विक त्याग के नाम से केवल कर्म योग के साधन की प्रणाली बतलायी है। सैंतालीसवें और अड़तालीसवें श्लोकों में स्वधर्म के पालन को इस साधन में उपयोगी बतलाया है और सातवें तथा आठवें श्लोकों में वर्णित तामस, राजस त्याग को इसमें बाधक बतलाया है। पैंतालीसवें और छियालीसवें श्लोकों में भक्ति मिश्रित कर्मयोग का और छप्पनवें से छाछठवें श्लोक तक भक्ति प्रधान कर्मयोग का वर्णन है। छियालीसवें श्लोक में लौकिक और शास्त्रीय समस्त कर्म करते हुए भक्ति मिश्रित कर्मयोग के साधन करने की राीति बतलायी है और सत्तावनवें श्लोक में भगवान् ने भक्ति प्रधान कर्मयोग के साधन करने की रीति बतलायी है।
काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं कवयो विदुः।
सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः।। 2।।
प्रश्न-‘काम्यकर्म’ किन कर्मों का नाम है तथा कितने ही पण्डितजन उनके त्याग को ‘संन्यास’ समझते हैं, इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-स्त्री, पुत्र, धन, और स्वर्गादि प्रिय वस्तुओं की प्राप्ति के लिये और रोग-संकटादि अप्रिय की निवृत्ति के लिये यज्ञ, दान, तप, और उपासना आदि जिन शुभ कर्मों का शाóों में विधान किया गया है अर्थात् जिन कर्मों के विधान में यह बात कही गयी है कि यदि अमुक फल की इच्छा हो तो मनुष्य को यह कर्म करना चाहिये, किन्तु उक्त फल की इच्छा न होने पर उसके न करने से कोई हानि नहीं है-ऐसे शुभ कर्मों का नाम काम्यकर्म है।
कितने ही पण्डितजन काम्यकर्मों के त्याग को संन्यास समझते हैं, इस कथन से भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि कितने ही विद्वानों के मत में उपर्युक्त कर्मों का स्वरूप त्याग कर देना ही संन्यास है। उनके मत में संन्यासी वे ही हैं जो काम्यकर्मों का अनुष्ठान न करके, केवल नित्य और नैमित्तिक कर्तव्य कर्मों का ही विधिवत् अनुष्ठान किया करते हैं।
प्रश्न-‘सर्वकर्म’ शब्द किन कर्मों का वाचक है और उनके फल का त्याग क्या है? तथा कई विचार कुशल पुरुष सब कर्मों के फल त्याग को त्याग कहते हैं, इस कथन का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-ईश्वर की भक्ति, देवताओं का पूजन, माता-पितादि गुरुजनों की सेवा, यह यज्ञ, दान और तप तथा वर्णाश्रम के अनुसार जीविका के कर्म और शरीर सम्बन्धी खान-पान इत्यादि जितने भी शाó विहित कर्तव्य कर्म हैं-अर्थात् जिस वर्ण और जिस आश्रम में स्थित मनुष्य के लिये जिन कर्मों को शाó ने कर्तव्य बतलाया है तथा जिनके न करने से नीति, धर्म और कर्म की परम्परा से बाधा आती है-उन समस्त कर्मों का वाचक यहाँ ‘सर्वकर्म’ शब्द है और इनके अनुष्ठान से प्राप्त होने वाले स्त्री, पुत्र, धन, मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा और स्वर्गसुख आदि जितने भी इस लोक और परलोक के भोग हैं-उन सबकी कामना का सर्वथा त्याग कर देना, किसी भी कर्म के साथ किसी प्रकार के फल का सम्बन्ध न जोड़ना उपर्युक्त समस्त कर्मों के फल का त्याग करना है।
कई विचार कुशल पुरुष समस्त कर्म फल के त्याग को ही त्याग कहते हैं, इस वाक्य से भगवान ने यह भाव दिखलाया है कि नित्य और अनित्य वस्तु का विवेचन करके निश्चय कर लेने वाले पुरुष उपर्युक्त प्रकार से समस्त कर्मों के फल का त्याग करके केवल कर्तव्य-कर्मों का अनुष्ठान करते रहने को ही त्याग समझते हैं, अतएव वे इस प्रकार के भाव से समस्त कर्तव्य कर्म किया करते हैं।-क्रमशः (हिफी)

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