विराट रूप देख नतमस्तक हुए अर्जुन
धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे (ग्यारहवां अध्याय-06)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक
प्रश्न-‘देवम’ पद किसका वाचक है तथा ‘शिरसा प्रणम्य’ और ‘कृतांजलिः‘ का क्या भाव है?
उत्तर-यहाँ ‘देवम्’ पद भगवान् के तेजोमय विराट स्वरूप का वाचक है और शिरसा प्रणम्य तथा ‘कृतांजलिः‘ इन दोनों पदों का प्रयोग करके यह भाव दिखलाया गया है कि अर्जुन ने जब भगवान् का ऐसा अनन्त आश्चर्य दृश्यों से युक्त परम प्रकाशमय और असीम ऐश्वर्य समन्वित महान् स्वरूप देखा तब उससे वे इतने प्रभावित हुए कि उनके मन में जो पूर्व जीवन की मित्रता का एक भाव था, वह सहसा विलुप्त सा हो गया। भगवान् की महिमा के सामने उनमें अत्यन्त पूज्य भाव जाग्रत हो गया और उस पूज्य भाव के प्रवाह ने बिजली की तरह गति उत्पन्न करके उनके मस्तक को उसी क्षण भगवान् के चरणों में टिका दिया और वे हाथ जोड़कर बड़े ही विनम्र भाव से श्रद्धा भक्तिपूर्वक भगवान् का स्तवन करने लगे।
पश्यामि देवांस्तव देव देहे सर्वांस्तथा भूतविशेषसंघान्।
ब्रह्माणमीशं कमलासस्थमृषींश्व सर्वानुरगांश्व दिव्यान्।। 15।।
प्रश्न-यहाँ ‘देव’ सम्बोधन का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-भगवान् के तेजोमय अद्भुत रूप को देखकर अर्जुन के मन में जो श्रद्धा-भक्तियुक्त अत्यन्त पूज्यभाव हो गया था उसी को दिखलाने के लिये यहाँ ‘देव’ सम्बोधन का प्रयोग किया गया है।
प्रश्न-‘तव देहे’ का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-इन दोनों पदों का प्रयोग करके अर्जुन ने यह भाव दिखलाया है कि आपका जो शरीर मेरे सामने उपस्थित है, उसी के अंदर मैं इन सबको देख रहा हूँ।
प्रश्न-जब अर्जुन ने यह बात कह दी कि मैं आपके शरीर में समस्त चराचर प्राणियों के विभिन्न समुदायों को देख रहा हूँ-यह अलग कहने की क्या आवश्यकता रह गयी?
उत्तर-जगत् के समस्त प्राणियों में देवता सबसे श्रेष्ठ माने जाते हैं, इसीलिये उनका नाम अलग लिया है।
प्रश्न-ब्रह्मा और शिव तो देवों के अंदर आ ही गये? फिर उनके नाम अलग क्यों लिये गये और ब्रह्मा के साथ ‘कमला सनस्थम्’ विशेषण क्यों दिया गया?
उत्तर-ब्रह्मा और शिव देवों के भी देव हैं तथा ईश्वर कोटि में है, इसलिये उनके नाम अलग लिये गये हैं एवं ब्रह्मा के साथ ‘कमला सनस्थम्’ विशेषण देकर अर्जुन ने यह भाव दिखलाया है कि मैं भगवान् विष्णु की नाभि से निकले हुए कमल पर विराजित ब्रह्मा को देख रहा हूँ अर्थात् उन्हीं के साथ आपके विष्णु रूप को भी आपके शरीर में देख रहा हूँ।
प्रश्न-समस्त ऋषियों को और दिव्य सर्पों को अलग बतलाने का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-मनुष्य लोक के अंदर सब प्राणियों में ऋषियों को और पाताल लोक में वासुकि आदि दिव्य सर्पों को श्रेष्ठ माना गया है। इसीलिये उनको अलग बतलाया है।
यहाँ स्वर्ग, मत्र्य और पाताल तीनों लोकों के प्रधान-प्रधान व्यक्तियों के समुदाय की गणना करके अर्जुन ने यह भाव दिखलाया है कि मैं त्रिभुवनात्मक समस्त विश्व को आपके शरीर में देख रहा हूँ।
अनेकबाहूदरवक्त्रनेत्रं पश्यामि त्वां सर्वतोऽनन्तरूपम्।
नान्तं न मध्यं न पुनस्तवादिं पश्यामि विश्वेश्वर विश्वरूप।। 16।।
प्रश्न-‘विश्वेश्वर’ और ‘विश्वरूप’ इन दोनों सम्बोधनों का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-इन दोनों सम्बोधनों का प्रयोग करके अर्जुन ने यह भाव दिखलाया है कि आप ही इस समस्त विश्व के कर्ता-हर्ता और सबको अपने-अपने कार्यों में नियुक्त करने वाले सबके अधीश्वर हैं और यह समस्त विश्व वस्तुतः आपका ही स्वरूप है, आप ही इसके निमित्त और उपादान कारण हैं।
प्रश्न-‘अनेका बाहूदरवक्त्रनेत्रम्’ का क्या अर्थ है?
उत्तर-इससे अर्जुन ने यह दिखलाया है कि आपको इस समय मैं जिस रूप में देख रहा हूँ, उसके भुजा, पेट, मुख और नेत्र असंख्य हैं। उनकी कोई किसी भी प्रकार से गणना नहीं कर सकता।
प्रश्न-‘सर्वतः’ अनन्तरूपम्’ का क्या भाव है?
उत्तर-इससे अर्जुन ने यह भाव दिखलाया है कि आपको इस समय मैं सब ओर से अनेक प्रकार के पृथक-पृथक् अगणित रूपों से युक्त देख रहा हूँ, अर्थात् आपके इस एक ही शरीर में मुझे बहुत से भिन्न-भिन्न अनन्तरूप चारों ओर फैले हुए दीख रहे हैं।
प्रश्न-आपके आदि, मध्य और अन्त को नहीं देख रहा हूँ-इस कथन का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-इस कथन से अर्जुन ने यह भाव दिखलाया है कि आपके इस विराट रूप का मैं कहीं भी आदि और अन्त नहीं देख रहा हूँ, अर्थात् मुझे यह नहीं मालूूम हो रहा है कि यह कहाँ से कहाँ तक फैला हुआ है और इस प्रकार आदि अन्त का पता न लगने के कारण मैं यह भी नहीं समझ रहा हूँ कि इसका बीच कहाँ है इसलिये मैं आपके मध्य को भी नहीं देख रहा हूँ। मुझे तो आगे-पीछे, दाहिने-बायें और ऊपर-नीचे सब ओर से आप सीमा रहित दिखलायी पड़ रहे हैं। किसी ओर से भी आपकी कोई सीमा नहीं दीखती।
किरीटिनं गदिनं चक्रिणं च तेजोरार्शि सर्वतो दीप्तिमन्तमृ।
पश्यामि त्वां दुर्निरीक्ष्यं समन्ताद्दीप्तानलार्कद्युतिमप्रमेयम्।। 17।।
प्रश्न-‘किरीटिनम्’ ‘गदिनम्’ और ‘चक्रिणम्’ का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-जिसे सिर पर किरीट अर्थात् अत्यन्त शोभा और तेज से युक्त मुकुट विराजित हो, उसे ‘किरीटी’ कहते हैं जिसके हाथ में ‘गदा’ हो उसे ‘गदी’ कहते हैं और जिसके पास ‘चक्र’ हो उसे ‘चक्री’ कहते हैं। इन तीनों पदों का प्रयोग करके अर्जुन ने यह भाव दिखलाया है कि मैं आपके इस अद्भुत रूप में भी आपको महान् तेजोमय मुकुट धारण किये तथा हाथोें
में गदा और चक्र लिये हुए ही देख रहा हूँ।
प्रश्न-‘सर्वतः दीप्तिमन्तम्’ और ‘तेजोराशिम्’ का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-जिसका दिव्य प्रकाश ऊपर-नीचे, बाहर-भीतर एवं सब दिशाओं में फैला हुआ हो-उसे ‘सर्वतो दीप्तिमान् कहते हैं तथा प्रकाश
के समूह को ‘तेजोराशि’ कहते हैं। इन दोनों पदों का प्रयोग करके
अर्जुन ने यह भाव दिखलाया है कि आपका यह विराट रूप मुझको
मूर्तिमान तेज पंुज तथा सब ओर से परम प्रकाश युक्त दिखलायी दे रहा है।-क्रमशः (हिफी)