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अर्जुन ने कहा आप ही हैं परब्रह्म

धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे (ग्यारहवां अध्याय-07)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)

रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक

प्रश्न-‘सर्वतो दीप्तिमन्तम्’ और ‘तेजोराशिम्’ यह विशेषण दे चुकने के बाद उसी भाव के द्योतमक ‘दीप्तानलाकद्युतिम्’ पद के प्रयोग की क्या आवश्यकता है?
उत्तर-भगवान् का वह विराट रूप परम प्रकाश युक्त और मूर्तिमान तेजपंुज कैसे था, अग्नि और सूर्य की उपमा देकर इसी बात का ठीक-ठीक अनुमान करा देने के लिये ‘दीप्तानलार्कद्युतिम्’ पद का प्रयोग किया गया है। अर्जुन इससे यह भाव दिखला रहे हैं कि जैसे प्रज्वलित अग्नि और प्रकाश पंुज सूर्य प्रकाशमान तेज की राशि हैं, वैसे ही आपका यह विराट स्वरूप उनसे भी असंख्य गुना अधिक प्रकाशमान तेज पंुज है। अर्थात् अग्नि और सूर्य का वह तेज तो किसी एक ही देश में दिखलायी पड़ता है, परन्तु आपका तो यह विराट् शरीर सभी ओर से उनसे भी अनन्तगुना अधिक तेजोमय दीख रहा है।
प्रश्न-‘दुर्निरीक्ष्यम्’ का क्या भाव है? और यदि भगवान का वह रूप दुर्निरीक्ष्य था तो अर्जुन कैसे उसको देख रहे थे?
उत्तर-अत्यन्त अद्भुत प्रकाश से युक्त होने के कारण प्राकृत नेत्र उस रूप के सामने खुले नहीं रह सकते। अतएव सर्व साधारण के लिये उसको ‘दुर्निरीक्ष्य’ बतलाया गया है। अर्जुन को तो भगवान् ने उस रूप को देखने के लिये ही दिव्य दृष्टि दी थी और उसी के द्वारा वे उसको देख रहे थे। इस कारण दूसरों के लिये दुर्निरीक्ष्य होने पर भी उनके लिये वैसी बात नहीं थी।
प्रश्न-‘समन्तात् अप्रमेयम्’ का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-जो मापा न जा सके या किसी भी उपाय से जिसकी सीमा न जानी जा सके, वह ‘अप्रमेय’ है। जो सब ओर से अप्रमेय है, उसे ‘समन्तात् अप्रमेय’ कहते हैं। इसका प्रयोग करके अर्जुन ने यह भाव दिखलाया है कि आपके गुण, प्रभाव, शक्ति और स्वरूप को कोई भी प्राणी किसी भी उपाय से पूर्णतया नहीं जान सकता।
त्वमक्षरं परमं वेदितव्यं त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्।
त्वमव्ययः शाश्वतधर्मगोप्ता सनातनस्त्वं पुरुषो मतो मे।। 18।।
प्रश्न-‘वेदितव्यम्’ और ‘परमम्’ विशेषण के सहित ‘अक्षरम्’ पद किसका वाचक है और उसका क्या भाव है?
उत्तर-जिस जानने योग्य परमत्त्व को मुमुक्षु पुरुष जानने की इच्छा करते हैं, जिसे जानने के लिये जिज्ञासु साधक नाना प्रकार के साधन करते हैं, आठवें अध्याय के तीसरे श्लोक में जिस परम अक्षर को ब्रह्म बतलाया गया है-उसी परम तत्त्व स्वरूप सच्चिदानन्दधन निर्गुण निराकार परमब्रह्म परमात्मा का वाचक यहाँ ‘वेदितव्यम्’ और ‘परमम्’ विशेषणों के सहित ‘अक्षरम्’ पद है और इससे अर्जुन ने यह भाव दिखलाया है कि आपका विराट रूप देखकर मुझे
यह दृढ़ निश्चय हो गया कि वह परब्रह्म परमात्मा निर्गुण ब्रह्म भी आप ही हैं।
प्रश्न-‘निधानम्’ पद का क्या अर्थ है और भगवान् को इस जगत् का परम निधान बतलाने का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-जिस स्थान में कोई वस्तु रक्खी जाय, वह उस वस्तु का निधान अथवा आधार (आश्रय) कहलाता है। यहाँ अर्जुन ने भगवान् को इस जगत् का निधान कहकर यह भाव दिखलाया है कि कारण और कार्य के सहित यह सम्पूर्ण जगत् आप में ही स्थित है, आपने ही इसे धारण कर रक्खा है अतएव आप ही इसके आश्रय हैं।
प्रश्न-‘शाश्वत धर्म’ किसका वाचक है और भगवान् को उसके ‘गोप्ता’’ बतलाने का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-जो सदा से चला आता हो और सदा रहने वाला हो, उस सनातन (वैदिक) धर्म को ‘शाश्वत धर्म’ कहते हैं। भगवान् बार-बार अवतार लेकर उसी धर्म की रक्षा करते हैं, इसलिये भगवान् को अर्जुन ने ‘शाश्वत धर्म गोप्ता’ कहा है।
प्रश्न-‘अव्यय’ और ‘सनातन’ विशेषणों के सहित ‘पुरुष’ शब्द के प्रयोग का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-जिसका कभी नाश न हो, उसे ‘अव्यय’ कहते हैं तथा जो सदा से हो और सदा एकरस बना रहे, उसे ‘सनातन’ कहते हैं। इन दोनों विशेषणों के सहित ‘पुरुष’ शब्द का प्रयोग करके अर्जुन ने यह बतलाया हष्ै कि जिनका कभी नाश नहीं होता ऐसे समस्त जगत् के हर्ता, कर्ता, सर्वशक्तिमान् सम्पूर्ण विकारों से रहित, सनातन परम पुरुष साक्षात् परमेश्वर आप ही है।
अनादिमध्यान्त मनन्तवीर्यमनन्तबाहुं शशिसूर्यनेत्रम्।
पश्यामि त्वां दीप्तहुताशवक्त्रं स्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम्।। 19।।
प्रश्न-सोलहवें श्लोक में अर्जुन ने यह कहा था कि मैं आपके आदि, मध्य और अन्त को नहीं देख रहा हूँ फिर यहाँ इस कथन से कि मैं आपको आदि, मध्य और अन्त से रहित देख रहा हूँ पुनरुक्तिका-सा दोष प्रतीत होता है। अतः इसका क्या भाव है?
उत्तर-वहाँ अर्जुन ने भगवान् के विराट रूप को असीम बतलाया है और यहाँ उसे उत्पत्ति आदि छः विकारों से रहित नित्य बतलाया है। इसलिये पुनरुक्ति का दोष नहीं है। इसका अर्थ इस प्रकार समझना चाहिये कि ‘आदि’ शब्द उत्पत्ति का ‘मप्य’ उत्पत्ति और विनाश के बीच में होने वाले स्थिति, वृद्धि, क्षय और परिणाम-इन चारों
भाव विकारों का और ‘अन्त’ शब्द
विनाश रूप विकार का वाचक है।
ये तीनों जिसमें न हों, उसे
‘अनादिमध्यान्त’ कहते हैं। अतएव यहाँ अर्जुन के इस कथन का यह भाव है कि मैं आपको उत्पत्ति आदि छः भाव विकारों से सर्वथा रहित देख रहा हूँ।
प्रश्न-‘अनन्तवीर्यम्’ का क्या भाव है?
उत्तर-‘वीर्य’ शब्द सामथ्र्य, बल, तेज और शक्ति आदि का वाचक है। जिसके वीर्य का अन्त न हो, उसे ‘अनन्तवीर्य’ कहते हैं। यहाँ अर्जुन ने भगवान् को ‘अनन्त वीर्य’ कहकर यह भाव दिखलाया है कि आपके बल, वीर्य, सामथ्र्य और तेज की कोई भी सीमा नहीं है।
प्रश्न-‘अनन्तबाहुम्’ का क्या भाव है?
उत्तर-जिसकी भुजाओं का
पार न हो, उसे ‘अनन्त बाहु’ कहते
हैं। इससे अर्जुन ने यह भाव दिखलाया है कि आपके इस विराट् रूप में
जिस ओर देखता हूँ, उसी ओर
मुझे अगणित भुजाएँ दिखलायी दे
रही हैं।-क्रमशः (हिफी)

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