भगवद् कृपा को समझ गये अर्जुन
धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे (ग्यारहवां अध्याय-01)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक
दनुग्रहाय परमं गुह्यमध्यात्मसंज्ञितम्।
यत्त्वयोक्तं वचस्तेन मोहोऽयं विगतो मम।। 1।।
प्रश्न-‘मदनुग्रहाय’ पद के प्रयोग का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-दसवें अध्याय के प्रारम्भ में प्रेम-समुद्र भगवान् ने ‘अर्जुन! तुम्हारा मुझमें अत्यन्त प्रेम है, इसी से मैं ये सब बातें तुम्हारे हित के लिये कह रहा हूँ’ ऐसा कहकर अपना जो अलौकिक प्रभाव सुनाया, उसे सुनकर अर्जुन के हृदय में कृतज्ञता, सुख और प्रेम की तरंगें उछलने लगीं। उन्होंने सोचा, ‘अहा! इन सर्वलोक महेश्वर भगवान् की मुझ तुच्छ पर कितनी कृपा है जो ये मुझ क्षुद्र को अपना प्रेमी मान रहे हैं और मेरे सामने अपने महत्त्व की कैसी-कैसी गोपनीय बातें खुले शब्दों में प्रकट करते ही जा रहे हैं।’ अब तो उन्हें महर्षियों की कही हुई बातों का स्मरण हो आया और उन्होंने परम विश्वास के साथ भगवान् का गुणगान करते हुए पुनः योगशक्ति और विभूतियों का विस्तार सुनाने के लिये प्रेम भरी प्रार्थना की-भगवान् ने प्रार्थना सुनी और अपनी विभूतियों तथा योग का संक्षिप्त वर्णन सुनाया। अर्जुन के हृदस पर भगवत्कृपा की मुहर लग गयी। वे भगवत्कृपा के अपूर्व दर्शन कर आनन्द मुग्ध हो गये।
साधक को जब तक अपने पुरुषार्थ, साधन या अपनी योग्यता का स्मरण होता है तब तक वह भगवत् कृपा के परम लाभ से वंचित सा ही रहता है। भगवत् कृपा के प्रभाव से वह सहज ही साधन के उच्च स्तर पर नहीं चढ़ सकता, परन्तु जब उसे भगवत्कृपा से ही भगवत्कृपा का भाजन होता है और तब उसका हृदय कृतज्ञता से भर जाता है और वह पुकार उठता है ‘ओहो, भगवन्! मैं किसी भी योग्य नहीं हूँ। मैं तो सर्वथा अनधिकारी हूँ। यह सब तो आपके अनुगह की ही लीला है।’ ऐसे ही कृतज्ञतापूर्ण हृदय से अर्जुन कह रहे हैं कि भगवन्! आपने जो कुछ भी महत्त्व और प्रभाव की बातें सुनायी हैं, मैं इसका पात्र नहीं हूँ। आपने अनुग्रह करने के लिये ही यह परम गोपनीय अपना रहस्य मुझको सुनाया है। ‘मदनुग्रहाय’ पद के प्रयोग का यही अभिप्राय है।
प्रश्न-‘परमम्’ ‘गुह्यम्’ ‘अध्यात्म संज्ञितम्’-इन तीन विशेषणों सहित ‘वचः‘ पद भगवान् के कौन-से उपदेश का सूचक है तथा इन विशेषणों का क्या भाव है?
उत्तर-दसवें अध्याय के पहले श्लोक में जिन परम वचनों को भगवान् ने पुनः कहने की प्रतिज्ञा की है और उस प्रतिज्ञा के अनुसार ग्यारहवें श्लोक तक जो भगवान् का उपदेश है एवं उसके बाद अर्जुन के पूछने पर पुनः बीसवें से बयालीसवें श्लोक तक भगवान् ने जो अपनी विभूतियों का और योग शक्ति का परिचय दिया है तथा सातवें नवें अध्याय तक विज्ञान सहित ज्ञान के कहने की प्रतिज्ञा करके भगवान् ने जो अपने गुण, प्रभाव, ऐश्वर्य और स्वरूप का तत्त्व और रहस्य समझाया है-उस सभी उपदेश का वाचक यहाँ ‘परमम्’ ‘गुह्यम्’ और ‘अध्यात्म संज्ञितम्’-इन तीनों विशेषणों के सहित ‘वचः’ पद है।
जिन-जिन प्रकरणों में भगवान् ने अपने गुण, प्रभाव और तत्त्व का निरूपण करके अर्जुन को अपनी शरण में आने के लिये प्रेरणा की है और स्पष्ट रूप से यह बतलाया है कि मैं श्रीकृष्ण जो तुम्हारे सामने विराजित हूँ, वही समस्त जगत् का कर्ता, हर्ता, निर्गुण, सगुण, निराकार, साकार, मायातीत, सर्वशक्तिमान, सर्वाधार परमेश्वर हूँ। उन प्रकरणों को भगवान् ने स्वयं परम गुह्य बतलाया है। अतएवं यहाँ उन्हीं विशेषणों का अनुवाद करके अर्जुन यह भाव दिखलाते हैं कि आपका यह उपदेश अवश्य ही परम गोपनीय है।
प्रश्न-यहाँ ‘अयम्’ विशेषण के सहित ‘मोहः’ पद अर्जुन के किस मोह का वाचक है और उपर्युक्त उपदेश के द्वारा उसका नाश हो जाना क्या है?
उत्तर-अर्जुन जो भगवान् के गुण, प्रभाव, ऐश्वर्य और स्वरूप को पूर्ण रूप से नहीं जानते थे-यही उनका मोह था। अब उपर्युक्त उपदेश के द्वारा भगवान् के गुण, प्रभाव, ऐश्वर्य, रहस्य और स्वरूप को कुछ समझकर वे जो यह जान गये हैं कि श्रीकृष्ण ही साक्षात् परमेश्वर हैं-यही उनके मोह का नष्ट होना है।
भवाप्ययौ हि भूतानां श्रुतौ विस्तरशो मया।
त्वत्तः कमलपत्राक्ष माहात्म्यमपि चाव्ययम्।। 2।।
प्रश्न-मैंने आपसे भूतों की उत्पत्ति और प्रलय विस्तारपूर्वक सुने हैं, इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-इससे अर्जुन ने यह भाव दिखलाया है कि आपसे ही समस्त चराचर प्राणियों की उत्पत्ति होती है, आप ही उनका पालन करते हैं और वे सब आपमें ही लीन होते हैं-यह बात मैंने आपके मुख से (सातवें अध्याय से लेकर दसवें अध्याय तक) विस्तार के साथ बार-बार सुनी है।
प्रश्न-तथा आपकी अविनाशी महिमा भी सुनी है, इस कथन का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-इससे अर्जुन ने यह भाव दिखलाया है कि केवल भूतों की उत्पत्ति और प्रलय की ही बात आपसे सुनी हो, ऐसी बात नहीं है आपकी जो अविनाशी महिमा है, अर्थात् आप समस्त विश्व का सृजन, पालन और संहार आदि करते हुए भी वास्तव में अकर्ता हैं, सबका नियमन करते हुए भी उदासीन हैं, सर्वव्यापी होते हुए भी उन-उन वस्तुओं के गुण-दोष से सर्वथा निर्लिप्त हैं, शुभाशुभ कर्मों का सुख-दुःखरूप फल देते हुए भी निर्दयता और विषमता के दोष से रहित हैं, प्रकृति, काल और समस्त लोकपालों के रूप में प्रकट होकर सबका नियमन करने वाले सर्वशक्तिमान् भगवान् हैं-इस प्रकार के महात्म्य को भी उन-उन प्रकरणों में बार-बार सुना है।
एवमेतद्यथात्थ त्वमात्मानं परमेश्वर।
द्रष्टुमिच्छामि ते रूपमैश्वरं पुरुषोत्तम।। 3।।
प्रश्न-‘परमेश्वर’ और ‘पुरुषोत्तम’ इन दोनों सम्बोधनों का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-‘परमेश्वर’ सम्बोधन से अर्जुन यह भाव दिखलाते हैं कि आप ईश्वरों के भी महान् ईश्वर हैं और सर्व समर्थ हैं, अतएव मैं आपके जिस ऐश्वर-स्वरूप के दर्शन करना चाहता हूँ उसके दर्शन आप सहज ही करा सकते हैं तथा ‘पुरुषोत्तम’ सम्बोधन से यह भाव दिखलाते हैं कि आप क्षर और अक्षर दोनों से उत्तम साक्षात् भगवान् हैं। अतएव मुझ पर दया करके मेरी इच्छा पूर्ण कीजिये।
प्रश्न-आप अपने को जैसा कहते हैं, यह ठीक ऐसा ही है-इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-इस कथन से अर्जुन ने यह भाव दिखलाया है कि अपने गुण, प्रभाव, तत्त्व और ऐश्वर्य का वर्णन करते हुए आपने अपने विषय में जो कुछ कहा है-वह पूर्णरूप से यथार्थ है, उसमें मुझे किंचित मात्र भी शंका
नहीं है।-क्रमशः (हिफी)