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अर्जुन को मिले विराट रूप देखने के लिए दिव्य चक्षु

धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे (ग्यारहवां अध्याय-03)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)

रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक

प्रश्न-‘अदृष्टपूर्वाणि’ और ‘वहूनि’ इन दोनों विशेषणों के सहित ‘आश्र्चाणि’ पद का क्या अर्थ है और उनको देखने के लिये कहने का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-जो दृश्य पहले कभी देखे हुए न हों, उन्हें ‘अदृष्टपूर्व’ कहते हैं। जो अद्भुत अर्थात् देखने मात्र से ‘आश्चर्य’ उत्पन्न करने वाले हो, उन्हें आश्चर्य (आश्चर्यजनक) कहते हैं। ‘बहूनि’ विशेषण अधिक संख्या का बोधक है। ऐसे बस्तु से पहले किसी के द्वारा भी न देखे हुए आश्चर्यजनक रूपों को देखने के लिये कहकर भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि जिन वस्तुओं को तुमने या अन्य किसी ने आज तक कभी नहीं देखा है, उन सबको भी तुम मेरे इस विराट् रूप में देखो।
इहैकस्थं जगत्कृतसनं पश्याद्य सचराचरम्।
मम देहे गुडाकेश यच्चान्यद्द्रष्टुमिच्छसि।। 7।।
प्रश्न-‘गुडाकेश’ सम्बोधन का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-यहाँ अर्जुन को ‘गुडाकेश’ नाम से सम्बोधित करके भगवान् यह भाव दिखलाते हैं कि तुम निद्रा के स्वामी हो, अतः सावधान होकर मेरे रूप को भलीभाँति देखो ताकि किसी प्रकार का संशय या भ्रम न रह जाय।
प्रश्न-‘अद्य’ पद का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-‘अद्य’ पद यहाँ ‘अब’ का वाचक है। इससे भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि तुमने मेरे जिस रूप के दर्शन करने की इच्छा प्रकट की है, उसे दिखलाने में जरा भी विलम्ब नहीं कर रहा हूँ, इच्छा प्रकट करते ही मैं अभी दिखला रहा हूँ।
प्रश्न-‘सचराचरम्’ और ‘कृत्स्नम्’ विशेषणों के सहित ‘जगत’ पद किसका वाचक है तथा ‘इह’ और ‘एकस्थम्’ पद का प्रयोग करके भगवान् ने अपने कौन-से शरीर में और किस जगह समस्त जगत् को देखने के लिये कहा है?
उत्तर-पशु, पक्षी, कीट, पतंग और देव, मनुष्य आदि चलने-फिरने वाले प्राणियों को ‘चर’ कहते है तथा पहाड़, वृक्ष आदि एक जगह स्थिर रहने वालों को ‘अचर’ कहते है। ऐसे समस्त प्राणियों तथा उनके शरीर, इन्द्रिय, भोग स्थान और भोगसामग्रियों के सहित समस्त ब्रह्माण्ड का वाचक यहाँ ‘कृत्स्नम्’ और ‘सचराचरम्’ इन दोनों विशेषणों के सहित ‘जगत’ पद है।
‘इह’ पद ‘देहे’ का विशेषण है। इसके साथ ‘एकस्थम्’ पद का प्रयोग करके भगवान् ने अर्जुन को यह भाव दिखलाया है कि मेरा यह शरीर जो कि सारथी के रूप में तुम्हारे सामने रथ पर विराजित है, इसी शरीर के एक अंश में तुम समस्त जगत् को स्थित देखो। अर्जुन को भगवान् ने दसवें
अध्याय के अन्तिम श्लोक में जो यह बात कही थी मैं इस समस्त जगत् को एक अंश में धारण किये स्थित हूँ, उसी बात को यहाँ उन्हें प्रत्यक्ष दिखला रहे हैं।
प्रश्न-और भी जो कुछ तू देखना चाहता है, सो देख इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-इस कथन से भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि इस वर्तमान सम्पूर्ण जगत् को देखने के अतिरिक्त और भी मेरे गुण, प्रभाव आदि के द्योतक कोई दृश्य, अपने और दूसरों के जय पराजय के दृश्य अथवा जो कुछ भी भूत, भविष्य और वर्तमान की घटनाएँ देखने की तुम्हारी इच्छा हो, उन सबको तुम इस समय मेरे शरीर के एक अंश में प्रत्यक्ष देख सकते हो।
न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा।
दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम्।। 8।।
प्रश्न-यहाँ ‘तु’ पद के साथ-साथ यह कहने का क्या अभिप्राय है कि तू मुझे इन अपने (साधारण) नेत्रों द्वारा नहीं देख सकता?
उत्तर-इससे भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि तुम मेरे अद्भुत योगशक्ति से युक्त दिव्य स्वरूप के दर्शन करना चाहते हो, यह तो बड़े आनन्द की बात है और मैं भी तुम्हें अपना वह रूप दिखलाने के लिये तैयार हूँ। परन्तु भाई! इन साधारण नेत्रों द्वारा मेरा वह अलौकिक रूप देखा नहीं जा सकता, उसको देखने के लिये जिस शक्ति की आवश्यकता है, वह तुम्हारे पास नहीं है।
प्रश्न-भगवान् ने जो अर्जुन को दिव्य दृष्टि दी थी, वह दिव्य दृष्टि क्या थी?
उत्तर-भगवान् ने अर्जुन को विश्व रूप का दर्शन करने के लिये अपने योग बल से एक प्रकार की योग शक्ति प्रदान की थी, जिसके प्रभाव से अर्जुन में अलौकिक सामथ्र्य का प्रादुर्भाव हो गया-उस दिव्य रूप को देख सकने की योग्यता प्राप्त हो गयी। इसी योग शक्ति का नाम दिव्य दृष्टि है। ऐसी ही दिव्य दृष्टि श्री वेदव्यास जी ने संजय को भी दी थी।
प्रश्न-यदि यह मान लिया जाय कि भगवान् ने अर्जुन को ऐसा ज्ञान दिया कि जिससे अर्जुन इस समस्त विश्व को भगवान् का स्वरूप मानने लगे और उस ज्ञान का नाम ही यहाँ दिव्य दृष्टि है, तो क्या हानि है?
उत्तर-यहाँ के प्रसंग को पढ़कर यह नहीं माना जा सकता कि ज्ञान के द्वारा अर्जुन का इस दृश्य जगत् को भगवद् रूप समझ लेना ही ‘विश्व रूप दर्शन’ था और वह ज्ञान ही ‘दिव्य दृष्टि’ थी। समस्त विश्व को ज्ञान के द्वारा भगवान् के एक अंश में देखने के लिये तो अर्जुन को दसवें
अध्याय के अन्त में ही कहा जा चुका था और उसको उन्होंने स्वीकार भी कर लिया था। इस प्रकार स्वीकार कर लेने के बाद भी अर्जुन जब भगवान् से बल, वीर्य, शक्ति और तेज से युक्त उनके ईश्वरीय स्वरूप को प्रत्यक्ष देखने की इच्छा करते हैं और भगवान् भी अपने श्रीकृष्ण रूप के अंदर ही एक ही जगह समस्त विश्व को दिखला रहे हैं, तब यह कैसे माना जा सकता है कि वह ज्ञान द्वारा समझा जाने वाला रूप था?
इसके अतिरिक्त भगवान् ने जो विश्व रूप का वर्णन किया है, उससे भी यह सिद्ध होता है कि अर्जुन भगवान् के जिस रूप में समस्त ब्रह्माण्ड के दृश्य और भविष्य में होने वाली युद्ध सम्बन्धी घटनाओं को और उनके परिणाम को देख रहे थे, वह रूप उनके सामने था। इससे यही मानना पड़ता है कि जिस विश्व में अर्जुन अपने को खड़े देख रहे थे, वह भगवान् के शरीर में दिखलायी देने वाले विश्व से भिन्न था। ऐसा न होता तो उस विराट रूप के द्वारा दृश्य-जगत के स्वर्ग लोक से लेकर पृथ्वी तक के आकाश को और सब दिशाओं को व्याप्त देखना सम्भव ही न था। भगवान् के उस भयानक रूप को देखकर अर्जुन को आश्चर्य, मोह, भय, सन्ताप और दिग्भ्रमादि भी हो रहे थे। इससे भी यही बात सिद्ध होती है कि भगवान् ने उपदेश देकर ज्ञान के द्वारा इस दृश्य-जगत को अपना स्वरूप समझा दिया हो, ऐसी बात नहीं थी। ऐसा होता तो अर्जुन को भय, सन्ताप, मोह और दिग्भ्रमादि होने का कोई कारण नहीं रह जाता।-क्रमशः (हिफी)

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