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अभ्यास योग के बारे में अर्जुन को ज्ञान

धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे (बारहवां अध्याय-04)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)

रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके।-प्रधान सम्पादक

प्रश्न-अभ्यास योग किसे कहते हैं और उसके द्वारा भगवत्प्राप्ति के लिये इच्छा करना क्या है?
उत्तर-भगवान् की प्राप्ति के लिये नाना प्रकार की युक्तियों से चित्त को स्थापित करने का जो बार-बार प्रयत्न किया जाता है उसे ‘अभ्यास योग’ कहते हैं। भगवान् के जिस नाम, रूप, गुण और लीला आदि में साधक की श्रद्धा और प्रेम हो उसी में केवल भगवत्प्राप्ति के उद्देश्य से ही बार-बार मन लगाने के लिये प्रयत्न करना अभ्यास योग के द्वारा भगवान् को प्राप्त करने की इच्छा करना है।
भगवान् में मन लगाने के साधन शास्त्रों में अनेक प्रकार के बतलाये गये हैं, उनमें से निम्नलिखित कतिपय साधन सर्व-साधारण के लिये विशेष उपयोगी प्रतीत होते हैं-
(1) सूर्य के सामने आँखें मूँदने पर मन के द्वारा सर्वत्र समभाव से जो एक प्रकार का पंुज प्रतीत होता है, उससे भी हजारों गुना अधिक प्रकाश का पंुज भगवत्स्वरूप में है-इस प्रकार मन में निश्चय करके परमात्मा के इस तेजोमय ज्योति स्वरूप में चित्त लगाने के लिए बार-बार चेष्टा करना।
(2) जैसे दियासलाई में अग्नि व्यापक है वैसे ही भगवान् सर्वत्र व्यापक हैं यह समझकर जहाँ-जहाँ मन जाय वहाँ-वहाँ ही गुण और प्रभाव सहित सर्वशक्तिमान परम प्रेमास्पद परमेश्वर के स्वरूप का प्रेमपूर्वक पुनः-पुनः चिन्तन करते रहना।
(3) जहाँ-जहाँ मन जाय, वहाँ-वहाँ से उसे हटाकर भगवान् विष्णु, शिव, राम और कृष्ण आदि जो भी अपने इष्टदेव हों-उनकी मानसिक या धातु आदि से निर्मित मूर्ति में अथवा चित्रपट में या उनके नाम-जप में श्रद्धा और प्रेम के साथ पुनः-पुनः मन लगाने का प्रयत्न करना।
़(4) भ्रमर के गुंजार की तरह एकतार आंेकार की ध्वनि करते हुए उस ध्वनि में परमेश्वर के स्वरूप का पुनः-पुनः चिन्तन करना।
(5) स्वाभाविक श्वास-प्रश्वास के साथ-साथ भगवान् के नाम का जप नित्य-निरन्तर होता रहे-इसके लिये प्रयत्न करना।
(6) परमात्मा के नाम, रूप, गुण, चरित्र और प्रभाव के रहस्य को जानने के लिय तद्विषयक शास्त्रों का पुनः-पुनः अभ्यास करना।
(7) चैथे अभ्यास के उन्तीसवें श्लोक के अनुसार प्राणायाम का अभ्यास करना।
इनमें से कोई-सा भी अभ्यास यदि श्रद्धा और विश्वास तथा लगन के साथ किया जाय तो क्रमशः सम्पूर्ण पापों और विघ्नों का नाश होकर अन्त में भगवत्प्राप्ति हो जाती है। इसलिये बड़े उत्साह और तत्परता के साथ अभ्यास करना चाहिये। साधकों की स्थिति, अधिकार तथा साधन की गति के तार तम्य से फल की प्राप्ति में देर-सबेर हो सकती है। अतएव शीघ्र फल न मिले तो कठिन समझकर, ऊबकर या आलस्य के वश होकर न तो अपने अभ्यास को छोड़ना ही चाहिये और न उसमें किसी प्रकार कमी ही आने देनी चाहिये। बल्कि उसे ब़ढ़ाते रहना चाहिये।
अभ्यासेऽयसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव।
मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्यसि।। 10।।
प्रश्न-यदि तू अभ्यास में भी असमर्थ है-इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-इससे भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि यद्यपि तुम्हारे लिये वस्तुतः मन लगाना या उपर्युक्त प्रकार से ‘अभ्यास योग’ के द्वारा मेरी प्राप्ति करना कोई कठिन बात नहीं है, तथापि यदि तुम अपने को इसमें असमर्थ मानते हो तो कोई बात नहीं, मैं तुम्हें तीसरा उपाय बतलाता हूँ स्वभाव भेद से भिन्न-भिन्न साधकों के लिये भिन्न-भिन्न प्रकार के साधन ही उपयोगी हुआ करते हैं।
प्रश्न-‘मत्कर्म’ शब्द कौन-से कर्मों का वाचक है और उनके परायण होना क्या है?
उत्तर-यहाँ ‘मत्कर्म’ शब्द उन कर्मों का वाचक है जो केवल भगवान् के लिये ही होते हैं या भगवत्-सेवा-पूजा विषयक होते हैं तथा जिन कर्मों में अपना जरा भी स्वार्थ, ममत्व और आसक्ति आदि का सम्बन्ध नहीं होता। ग्यारहवें अध्याय के अंतिम श्लोक में भी ‘मत्कर्मकृत्’ पद में ‘मत्कर्म’ शब्द आया है, वहाँ भी इसकी व्याख्या की गयी है।
एकमात्र भगवान् को ही अपना परम आश्रय और परम गति मानना और केवल उन्हीं की प्रसन्नता के लिये परम श्रद्धा और अनन्य प्रेम के साथ मन, वाणी और शरीर से उनकी सेवा-पूजा आदि तथा यज्ञ, दान और तप आदि शास्त्रविहित, कर्मों को अपना कर्तव्य समझकर निरन्तर करते रहना-यही उन कर्मों के परायण होना है।
प्रश्न-मेरे लिये कर्म करता हुआ भी मेरी प्राप्ति रूप सिद्धि को प्राप्त हो जायगा-इस वाक्य का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-इससे भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि इस प्रकार कर्मों का करना भी मेरी प्राप्ति का एक स्वतन्त्र और सुगम साधन है। जैसे भजन-
ध्यान रूपी साधन करने वालों को मेरी प्राप्ति होती है, वैसे ही मेरे लिये कर्म करने वालों को भी मैं प्राप्त हो सकता हूँ। अतएव मेरे लिये कर्म करना पूर्वोक्त साधनों की अपेक्षा किसी अंश में भी निम्न श्रेणी का साधन नहीं है।
अथैतदप्यशक्तोऽसि कर्तुं मद्योगमाश्रितः।
सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान्।। 11।।
प्रश्न-यदि मेरी प्राप्ति रूप योग के आश्रित होकर उपर्युक्त साधन करने में भी तू असमर्थ है-इस वाक्य का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-इस वाक्य से भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि वास्तव में उपर्युक्त प्रकार से भक्ति युक्त कर्मयोग का साधन करना तुम्हारे लिये
कठिन नहीं, सुगम है। तथापि यदि तुम उसे कठिन मानते हो तो मैं तुम्हें अब एक अन्य प्रकार का साधन बतलाता हूँ।
पश्न-‘यतात्मवान्’ किसको कहते हैं और अर्जुन को ‘यतात्मवान्’ होने के लिये कहने का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-‘आत्मा’ शब्द मन, बुद्धि और इन्द्रियों के सहित शरीर का वाचक है, अतः जिसने मन, बुद्धि और इन्द्रियों के सहित शरीर पर विजय प्राप्त कर ली हो, उसे ‘यतात्मवान्’ कहते हैं। मन और इन्द्रिय आदि यदि वश में नहीं होते तो वे मनुष्य को बलात्कार से भोगों में फँसा देते हैं और ऐसा होने पर समस्त कर्मों के फल रूप भोगों की कामना और आसक्ति का त्याग नहीं हो सकता। अतएव ‘सर्वकर्मफल त्याग’ के साधन में आत्म संयम की परम आवश्यकता समझकर यहाँ अर्जुन को ‘यतात्मवान्’ बनने के लिये कहा
गया है।-क्रमशः (हिफी)

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