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अष्टावक्र गीता

विषयों के त्याग से मिलती पात्रता

 

अष्टावक्र गीता
हिफी अपने पाठकों को ज्ञानवर्द्धक एवं प्रेरणा देने वाले
आध्यात्मिक आलेख समय-समय पर मुहैया कराता रहता है। रामचरित मानस पर आधारित ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता के बाद श्रीमद्भागवत गीता की विशद् व्याख्या को क्रमबद्ध जारी करने के बाद हम महाज्ञानी अष्टावक्र और विदेह कहे जाने वाले राजा जनक के मध्य संसार और मुक्ति पर, ज्ञानी और मूर्ख पर संवाद को क्रमशः प्रस्तुत करेंगे। महात्मा अष्टावक्र शरीर से वक्र थे लेकिन प्रखर मेधा प्राप्त की थी। वे जब 12 वर्ष की उम्र के थे तभी राजा जनक के दरबार में विद्वानों को निरुत्तर कर दिया था। अष्टावक्र को देखकर विद्वान हंस पड़े तो अष्टावक्र ने उन्हंे चर्मकार कहा। राजा जनक को यह अपमानजनक लगा लेकिन जब अष्टावक्र ने कहा कि ये लोग मेरे शरीर (चमड़ी) को देखकर हंसे, आत्मा नहीं देखी तो शरीर को देखने वाले चर्मकार ही हो सकते हैं….। राजा जनक इससे बहुत प्रभावित हुए और उनके चरणों मंे शिष्य की तरह बैठकर ज्ञान प्राप्त किया था। राजा जनक ने ज्ञान, मुक्ति और बैराग्य के बारे मंे अष्टावक्र से अपने प्रश्नों का समाधान प्राप्त किया था। -प्रधान सम्पादक

अष्टावक्र ने राजा जनक को बताया कि वे विषय बन्धन नहीं हैं, उनके प्रति जो आसक्ति है वही बन्धन है जिसे छोड़ने की बात अष्टावक्र कह रहे हैं। विषयों को छोड़ने का अर्थ खाना, पीना, कपड़े, बिस्तर आदि छोड़कर नग्न हो जाना व भूखे मरने से नहीं है बल्कि शरीर को जीवित रखने के लिये जो न्यूनतम आवश्यकताएँ हैं उनसे अधिक का भोग न करने से है। भोगों में आसक्ति होने से ही लोभ, मोह, क्रोध, ईष्र्या, द्वेष, घृणा, दुःख, चिन्ता आदि अनेक अवगुण आते हैं और एक ऐसा दुष्टचक्र बन जाता है जो जन्म-जन्मों तक समाप्त नहीं होता। इसका मूल कारण एकमात्र आसक्ति का होना है। आसक्ति-त्याग से ही इन समस्त बुराइयों से वह मुक्त हो जाता है, तथा ज्ञान का अधिकारी बन जाता है।
अष्टावक्र आगे कहते हैं कि विषयों के त्याग से तुझे पात्रता उपलब्ध होगी, तू सद्गुण ग्रहण करने का पात्र बन जायेगा। पात्र मतें जो विषय रूपी जहर भरा है उसे खाली किये बिना उसमें अमृत उड़ेलने से वह अमृत भी विष बन जायेगा। इसलिए पहले अन्तःकरण को स्वच्छ कर, तभी सद्ज्ञान का प्रभाव होगा वरना वह ज्ञान भी विकृत हो जायेगा। अन्तःकरण स्वच्छ होने पर तू क्षमा, सरलता, दया, सन्तोष एवं सत्यरूपी अमृत को उसमें भरकर सेवन कर, तभी तुझे अमृत का लाभ मिलेगा। ये विषय अनित्य हैं, अविद्याजनित हैं तथा क्षमा, सरलता, सत्य आदि शाश्वत हैं। तू अनित्य के भोग को छोड़कर नित्य, शाश्वत का सेवन करे तो तू अमृतत्व को उपलब्ध होगा। विषय-त्याग से देह के प्रति जो झूठा तादात्म्य हो गया है वह छूटेगा तभी आत्मा के साथ तादात्म्य स्थापित होगा। भोगों के प्रति आसक्ति का त्याग ही वैराग्य है।
अष्टावक्र अब राजा जनक को अपने स्वरूप का बोध कराते हैं-
न पृथ्वी न जलं नाग्निर्न वायुद्र्यौर्न वा भवान्।
एषां साक्षिणमात्मामं चिद्रूपं विद्धि मुक्तये।। 3।।
अर्थात-तू न पृथ्वी है, न जल है, न अग्नि है, न वायु है, न आकाश है। मुक्ति के लिये अपने को इन सबका साक्षी चैतन्य रूप जान।
व्याख्या: राजा जनक का पहला प्रश्न है ‘ज्ञान कैसे प्राप्त होता है।’ अष्टावक्र पहले ज्ञान की अनिवार्य शर्त वैराग्य की व्याख्या करने के बाद जनक को अपने निज स्वरूप का बोध कराते हैं। वे कहते हैं-मनुष्य शरीर मात्र नहीं है, वह चैतन्य आत्मा है। आत्मा ही उसका वास्तविक स्वरूप है। वही सम्राट है। यह शरीर, मन, बुद्धि आदि उसके भृत्य हैं जो उसके आदेशानुसार कार्य कर रहे हैं। ये चूँकि स्थूल हैं इसलिये इनका प्रत्यक्ष बोध होता है। आत्मा सूक्ष्म है जिसके ज्ञान के अभाव में ऐसी भ्रान्ति होती है कि मैं शरीर हूँ। यही अज्ञान है। अष्टावक्र इसी भ्रान्ति का निवारण करने हेतु कहते हैं कि तू पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश इन पाँच तत्वों से बना भौतिक शरीर नहीं है। से पंच तत्व भौतिक हैं, अनित्य हैं, नष्ट होने वाले हैं, मृत्यु पर नष्ट हो ही जायेंगे किन्तु तू फिर भी जीवित रहेगा व मृत्यु के बाद भी तू अपनी अगली यात्रा पर निकल जायेगा, शरीर को पुराने वस्त्र के समान छोड़कर नया वस्त्र धारण कर लेगा। यह शरीर तेरा वस्त्र मात्र है। तू इससे भिन्न है। यह तेरा शरीर भौतिक पदार्थों से बना है। तू घर नहीं है बल्कि उसमें रहने वाला मालिक है। तू उसमें निवास करने वाला साक्षी चैतन्य रूप है। सम्पूर्ण भौतिक जगत का आधार यही चैतन्य है। तू भी वही चैतन्य है। अपने को भौतिक शरीर समझने की जो तुझे अनेक जन्मों के अभ्यास के कारण भ्रान्ति हो गई है उसे मिटाकर अपने को साक्षी चैतन्य स्वरूप जान। यही ज्ञान है। यदि तू उस समस्त दृश्य प्रपंच का साक्षी, दृष्टा बन जाता है तो तुझे आत्मबोध हो जायेगा।
यही सूत्र है जिसे पकड़ने पर अन्य कोई साधना आवश्यक नहीं रह जाती। हम कहते हैं-यह शरीर मेरा है, मन मेरा है, बुद्धि मेरी है आदि तो यह ‘मैं’ कौन है-जिसके ये सभी हैं। निश्चित ही ये सभी ‘मैं’ से भिन्न हैं तभी हम कहते हैं यह ‘मेरा’ है। अन्यथा मेरा कैसे कहा जा सकता है। जो मेरा है वह इस ‘मैं’ आत्मतत्व है जिसका ज्ञान होने पर ये सब विजातीय तत्व उससे भिन्न प्रतीत होने लगते हैं। यही आत्मज्ञान है।
अष्टावक्र राजा जनक को आत्मबोध कराने के बाद मुक्ति के लिये कहते हैं जो जनक का दूसरा प्रश्न है कि मुक्ति कैसे होती है?
यदि देहं पृथक्कृत्य चित्ति विश्राम्य तिष्ठसि।
अधुनैव सुखी शान्तः बन्धमुक्तों भविष्यसि ।। 4।।
अर्थात: यदि तू देह को अपने से अलग कर और चैतन्य में विश्राम कर स्थित है तो अभी ही सुखी, शान्त और बन्ध-मुक्त हो जायेगा।
व्याख्या: अष्टावक्र कहते हैं कि वैराग्य होने से पात्रता आयेगी। फिर गुरु द्वारा तत्वज्ञान का बोध कराये जाने पर होगा आत्म ज्ञान। किन्तु मुक्ति के लिये आत्मज्ञान ही पर्याप्त नहीं है। यह निश्चय हो जाना कि ‘मैं शुद्ध चैतन्य आत्मा हूँ, मैं साक्षी हूँ, यह शरीरादि में नहीं हूँ, आदि ही मुक्ति के लिए पर्याप्त नहीं है। इस आत्मज्ञान के बाद भी यदि शरीर आदि से तादात्म्य बना रहा तो फिर पुनर्जन्म की सम्भावना बनी रहती है। अतः उसे भी मुक्ति नहीं कहा जा सकता। यह ज्ञान सविकल्प समाधि में भी होता है जिसमें बीज रूप में सभी संस्कार विद्यमान रहते हैं। उचित वातावरण मिलने पर वह बीज पुनः वृक्ष बन सकता है। उस बीज को भी नष्ट कर देना निर्विकल्प समाधि है। वही मुक्तावस्था है। अष्टावक्र इसी मुक्ति की बात कह रहे हैं कि ‘तू आत्मज्ञान प्राप्ति के बाद यदि देह से अपनी आसक्ति छोड़कर, उससे दातात्म्य छोड़कर पूर्ण रूपेण चैतन्य आत्मा में विश्राम कर स्थित है तो अभी तू सुखी, शान्त और बन्ध मुक्त हो जायेगा। अपने शुद्ध स्वरूप आत्मा को जान लेना ही पर्याप्त नहीं है उसी में निरन्तर स्थित रहना है। यही निर्विकल्प समाधि की स्थिति है, यही मुक्ति है।’ पतंजलि अष्टांग योग में अन्तिम स्थिति में समाधि की बात कहते हैं। अष्टावक्र पहले ही वाक्य में जनक को समाधि का ज्ञान करा देते हैं। शरीर और आत्मा के मध्य ऐसे सात आवरण हैं। योग शरीर से आरम्भ करके एक-एक आवरण को विधि पूर्वक खोलकर आत्मा तक पहुँचता है। अष्टावक्र सीधे आत्मा का बोध कराते हैं व बाकी सभी आवरणों को एक ही साथ नष्ट करने की बात कहते हैं। वे कहते हैं ये सभी आवरण वास्तविक नहीं हैं। भ्रान्ति मात्र हैं। भ्रान्ति का विनाश बोध से ही सम्भव है, वहाँ क्रिया काम नहीं आयेगी। आत्मा के साथ अहंकार जुड़ा है, अहंकार से वासना पैदा होती है। वासना पूर्ति हेतु उसे शरीर मिलता है। यदि वासना नहीं है तो शरीर की आवश्यकता ही नहीं थी।
-क्रमशः (हिफी)
(साभार अष्टावक्र गीता)

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