बरसाने की लठमार होली

(पं. आर.एस. द्विवेदी-हिफी फीचर)
भारत त्योहारों का देश है। हिन्दू वर्ष के अंतिम महीने अर्थात् फाल्गुन मंे होली का उत्सव मनाया जाता है। सामान्य रूप से फाल्गुन माह की पूर्णिमा को होलिका दहन होता है और अगले दिन रंगभरी होली मनायी जाती है। वैदिक पंचांग के अनुसार इस बार 13 मार्च को होलिका दहन और 14 मार्च को अबीर-गुलाल की होली खेली जाएगी। इस त्योहार की धूम पूरे देश मंे रहती है लेकिन भगवान कृष्ण की लीलास्थली ब्रज में होली का त्योहार अलग ढंग से मनाया जाता है। यहां बरसाने की लठमार होली को देखने के लिए देश-विदेश से लोग आते हैं। ब्रज की होली की शुरुआत माघ पूर्णिमा से ही हो जाती है। इस दिन द्वारिकाधीश मंदिर मंे होली का डंडा गाड़ा जाता है। इसके बाद महाशिवरात्रि के अवसर पर बरसाना के श्री राधारानी मंदिर मंे रंगोत्सव मनाया जाता है। होली का उत्सव धीरे-धीरे आगे बढ़ता है। इस बार 12 फरवरी को द्वारिकाधीश मंदिर मंे होली का डंडा लगाया गया था और 28 फरवरी को शिवरात्रि के अवसर पर श्री राधारानी मंदिर मंे रंगोत्सव मनाया गया।
इसी क्रम में 8 मार्च को बरसाने मंे लठमार होली खेली जाएगी। उससे पूर्व 7 मार्च को नंदगांव अर्थात् कान्हा की नगरी मंे फाग आमंत्रण उत्सव होगा। इसका तात्पर्य है कि होली खेलने के लिए राधा की सखियों को न्योता देना। इसी दिन बरसाना के श्री राधारानी मंदिर मंे लड्डू मार होली का आयोजन किया जाएगा। अगले दिन 8 मार्च को बरसाने की प्रसिद्ध लठमार होली होगी। इस त्योहार की मस्ती बढ़ती जाएगी और 10 मार्च यानी रंगभरी एकादशी के दिन बांके बिहारी मंदिर और श्रीकृष्ण जन्मस्थान पर रंभगरी होली खेली जाएगी इसके अगले दिन 11 मार्च को गोकुल के रमण रेती में होली का उत्सव मनाया जाएगा। अब होली का प्रमुख त्योहार शुरू होगा और 13 मार्च को होलिका दहन के बाद 14 मार्च को पूरे ब्रज में रंग-गुलाल की होली खेली जाएगी।
बरसाना में हर साल लठमार होली फाल्गुन माह के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को मनाई जाती है। इस बार यह तिथि 8 मार्च को पड़ रही है। ब्रज में होली का पर्व लगभग 40 दिनों तक मनाया जाता है जिसमें से लठमार होली का खास महत्व होती है। पौराणिक कथाओं के अनुसार, एक बार श्रीकृष्ण राधा जी से मिलने के लिए बरसाना गए और राधा रानी के साथ उनकी सखियों को चिढ़ाने लगे। ऐसे में राधा जी और उनकी सखियां कृष्ण और ग्वालों को सबक सिखाने के लिए लाठी से पीटते हुए दौड़ने लगीं। मान्यता है कि तभी से बरसाना और नंदगांव में लट्ठमार होली खेलने की शुरुआत हुई। कहा जाता है कि लट्ठमार होली की शुरुआत लगभग 5000 वर्ष पहले हुई थी।
होली का त्योहार पूरे देश भर में बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। वहीं बरसाने की लठमार होली पूरी दुनिया में प्रसिद्ध है। इस बार 13 मार्च को होलिका दहन किया जाएगा और उसके अगले दिन यानी 14 मार्च को रंगों वाली होली खेली जाएगी। जहां पूरे देश में मस्ती और हंसी-ठीठोली भरी होली खेली जाती है वहीं मथुरा के बरसाने और नंदगांव में लठ मार होली की परंपरा है। यहां की इस अनोखी परंपरा को देशभर से लोग देखने के लिए आते हैं। लठमार होली मथुरा के बरसाना और नंदगांव के बीच खेली जाती है। इसमें नंदगांव के पुरुष यानि हुरियारे और बरसाने के महिलाएं यानी हुरियारिन हिस्सा लेती हैं। इसमें पुरुष सिर पर साफा और कमर में फेंटा हाथ में ढाल लेकर आते हैं। वहीं, बरसाने की हुरियारिन सिर और चेहरे को ढक कर लाठियां बरसाती हैं। अगर किसी हुरियारे को लाठ छू जाता है, तब उसे सजा के तौर पर महिलाओं के कपड़े पहनकर नाचना होता है।
इसमें किसी को चोट नहीं लगती यह सिर्फ हंसी-मजाक में किया जाता है। साथ ही इस दौरान होली के खास ब्रज के गीत गाए जाते हैं और रंग उड़ाए जाते हैं। इसके अलावा लठमार होली में भांग और ठंडाई का जमकर लुफ्त उठाया जाता है। पूरे गांव में मंडलियां श्रीकृष्ण और राधा रानी के भजन-कीर्तन करते हुए घूमती हैं।
होली का पर्व सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि दुनियाभर में 50 से अधिक देशों में बड़ी धूमधाम और हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। खुशियों से भरे इस त्योहार का संबंध भगवान श्री कृष्ण और भगवान विष्णु के भक्त प्रह्लाद से जुड़ा हुआ है। यह त्योहार वसंत ऋतु के आगमन का प्रतीक भी माना जाता है।होली का इतिहास प्राचीन काल के विभिन्न कथाओं और परंपराओं से जुड़ा हुआ है। इसके पीछे कई कहानियां प्रचलित हैं, जिनमें से कुछ प्रमुख हैं।
यह सबसे प्रसिद्ध कथा है, जो भगवान विष्णु के भक्त प्रह्लाद और हिरण्यकश्यप की बहन होलिका से जुड़ी हुई है। इस कथा में प्रह्लाद, राक्षसों का राजा हिरण्यकश्यप का पुत्र था और भगवान विष्णु का परम भक्त था, लेकिन राजा हिरण्यकश्यप भगवान विष्णु को अपना शत्रु मानते थे। ऐसे में जब हिरण्यकश्यप को पता चला कि उसका पुत्र प्रह्लाद विष्णु भक्त है, तो उसने प्रह्लाद को रोकने की कोशिश की लेकिन वह नहीं रुका। ऐसे में हिरण्यकश्यप ने होलिका (जिसे अग्नि में न जलने का वरदान प्राप्त था) को आदेश दिया की वह प्रह्लाद को लेकर अग्नि में बैठ जाए। जब होलिका ने अपने भाई के आदेशों के मुताबिक प्रह्लाद को अपनी गोद में बैठाकर अग्नि में प्रवेश किया था, तो उस समय भगवान विष्णु ने प्रह्लाद को बचा लिया और परिणामस्वरूप, होलिका अग्नि में जल गई। इस तरह इस घटना को बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक माना जाने लगा।
एक अन्य कथा भगवान शिव के पुत्र कामदेव और उनकी पत्नी रति से जुड़ी है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार जब भगवान शिव ध्यान में लीन थे और उसी समय उनके पुत्र कामदेव ने उनका ध्यान भंग कर दिया। इससे क्रोधित होकर भगवान शिव ने कामदेव को भस्म कर दिया। इसके बाद रति की प्रार्थना पर भगवान शिव ने कामदेव को पुनर्जीवित कर दिया। ऐसे में यह घटना वसंत ऋतु के आगमन का प्रतीक बन गई।
इसी क्रम में एक कथा भगवान कृष्ण और उनकी प्रेमिका राधा और गोपियों से जुड़ी हुई है। मान्यताओं
के अनुसार भगवान कृष्ण गोपियों के साथ रंगों से खेलते थे। इसे घटना को प्रेम और खुशी का प्रतीक माना जाता है। (हिफी)