Uncategorizedतीज-त्योहारलेखक की कलमविविध

जान माल को रब की समझें इबादत

(मो. वहीद-हिफी फीचर)

बकरीद के त्यौहार में अपनी हैसियत के मुताबिक किसी जानवर की कुर्बानी देने की परंपरा रही है। इस कुर्बानी का मकसद ये कतई नहीं है कि अल्लाह को खून या गोश्त पसंद है या उसे इसकी जरूरत है बल्कि इसका मकसद ये है कि हर इंसान अपने जान-माल को अपने रब की अमानत समझे और उसकी रजा के लिए किसी भी त्याग या बलिदान के लिए तैयार रहे। यूं जानवर की बलि या कुर्बानी दुनिया के हर धर्म और समाज की परंपरा का हिस्सा रही है लेकिन बकरीद के इतिहास पर एक नजर डाली जाए तो हमें मालूम होता है कि जानवर की कुर्बानी का कोई सीधा आदेश अल्लाह की तरफ से नहीं हुआ था। कुर्बानी दरअसल पैगंबर इब्राहीम की यादगार के तौर पर की जाती है।

इस्लामी साल में दो ईदों में से एक है बकरीद। ईद-उल-जुहा और ई-उल-फितर। इस्लाम धर्म को मानने वाले रमजान खत्म होने के लगभग 70 दिनों बाद बकरीद मनाते हैं। इस बार यह पर्व 29 जुलाई को मनाया जा रहा है। बकरीद का महत्व अलग है। इस्लाम में पांच फर्ज माने गए हैं, हज उनमें से आखिरी फर्ज माना जाता है। हज होने की खुशी में ईद-उल-जुहा का त्यौहार मनाया जाता है। ये त्यौहार अरबी महीने जिलहिज्जा की दसवीं तारीख को मनाया जाता है। इसी महीने में मुसलमान हज करने मक्का की यात्रा पर जाते हैं। मुसलमानों के लिए जिंदगी में एक बार हज करना जरूरी है। यूं तो कुर्बानी के लिए कोई चैपाया (चार पैरों वाला) कुर्बान करने की परंपरा रही है लेकिन भारत में इसे बकरे से जोड़कर देखा जाता है और इसलिए इसे बकरी-ईद या बकरीद भी कहा जाता हैै। भारत में जिस त्यौहार को बकरीद के नाम से जाना जाता है दरअसल वो ईद-उल-अजहा या ईद-उज-जुहा कहलाता है। अजहा या जुहा का अर्थ है सुबह का वक्त यानी सूरज चढ़ने से सूरज के ढलने के बीच का समय। आज भी पूरी दुनिया के मुसलमान हैसियत के मुताबिक हलाल जानवर खरीदते हैं और अपने रब की खुशी के लिए उसको कुर्बान करते हैं।
बकरीद के त्यौहार में अपनी हैसियत के मुताबिक किसी जानवर की कुर्बानी देने की परंपरा रही है। इस कुर्बानी का मकसद ये कतई नहीं है कि अल्लाह को खून या गोश्त पसंद है या उसे इसकी जरूरत है बल्कि इसका मकसद ये है कि हर इंसान अपने जान-माल को अपने रब की अमानत समझे और उसकी रजा के लिए किसी भी त्याग या बलिदान के लिए तैयार रहे। यूं जानवर की बलि या कुर्बानी दुनिया के हर धर्म और समाज की परंपरा का हिस्सा रही है लेकिन बकरीद के इतिहास पर एक नजर डाली जाए तो हमें मालूम होता है कि जानवर की कुर्बानी का कोई सीधा आदेश अल्लाह की तरफ से नहीं हुआ था। कुर्बानी दरअसल पैगंबर इब्राहीम की यादगार के तौर पर की जाती है। एक मर्तबा पैगंबर इब्राहीम ने ख्वाब में देखा कि वो अपने बेटे को अल्लाह की राह में कुर्बान कर रहे हैं। उन्होंने देखा कि उनके हाथ में छुरी है और वो उसको अपने बेटे की गर्दन पर चला रहे हैं। सुबह इब्राहिम सो के उठे तो उनको सोच-विचार में पड़ा देख उनके बेटे इस्माईल ने पूछा, अब्बाजान आप फिक्रमंद नजर आ रहे हैं, क्या बात है? बेटे के बार-बार पूछने पर पैगंबर इब्राहीम ने सपने वाली बात बताई। इस पर बच्चा इस्माईल बोला, तो इसमें इतना सोचने की बात क्या है, मैं आपकी सबसे प्यारी चीज हूं आप मुझे अल्लाह की राह में कुर्बान कर दीजिए। इब्राहीम ने बच्चे के मुंह से ये बात सुनी तो हैरान रह गए। उनको लगा कि उनका रब कोई इम्तहान ले रहा है। वो अपने रब के इम्तेहान में नाकाम नहीं होना चाहते थे। बेटे को कुर्बानी के लिए लेकर चल दिए। कुर्बानी की जगह पर पहुंचकर छुरी निकाली तो बेटे के गर्दन पर छुरी चलाने की हिम्मत न हुई तब बेटे इस्माईल ने बोला कि अब्बाजान आप अपनी आंखों पर पट्टी बांध लंे और हजरत इब्राहीम ने ऐसा ही किया जब पट्टी बांध कर बेटे की गर्दन पर छुरी चलाई तो एक करिश्मा हुआ। बेटा छुरी के नीचे से निकल गया और एक दुम्बा (कुछ परंपराओं में भेड़) वहां मौजूद था जिसकी गर्दन पर छुरी चल चुकी थी। इस तरह पैगंबर इब्राहीम अपनी परीक्षा में सफल हुए।
इसके बाद अंतिम पैगंबर मोहम्मद के दौर में कुर्बानी को मुसलमानों के लिए जरूरी करार दे दिया गया। हर वो मुसलमान जो एक या अधिक जानवर खरीदने की हैसियत रखता है वो जानवर खरीदता है और कुर्बान करता है। शरीयत के मुताबिक कुर्बानी हर उस औरत और मर्द के लिए वाजिब है, जिसके पास 13 हजार रुपए या उसके बराबर सोना-चांदी या तीनों (रुपया, सोना और चांदी) मिलाकर भी 13 हजार रुपए के बराबर है। जरूरी नहीं कि कुर्बानी किसी महंगे जानदार की की जाए। हर जगह जामतखानों में कुर्बानी के हिस्से होते हैं, आप उसमें भी हिस्सेदार बन सकते हैं। अगर किसी शख्स ने साहिबे हैसियत होते हुए कई सालों से कुर्बानी नहीं दी है तो वह साल के बीच में सदका करके इसे अदा कर सकता है।
इसका गोश्त तीन बराबर हिस्सों में बांटा जाता है। एक हिस्सा गरीबों के लिए, एक हिस्सा रिश्तेदारों और मिलने-जुलने वालों के लिए और एक हिस्सा अपने लिए होता है। इससे समाज में आपसी भाईचारा बढ़ता है और एक-दूसरे का ख्याल रखने की भावना पैदा होती है। जानवर का चमड़ा बेच कर जो पैसा मिलता है वो किसी गरीब, यतीम या जरूरतमंद को दे दिया जाता है। कुर्बानी तो जानवर की होती है लेकिन इससे जो सीख मिलती है उस पर ध्यान देने की जरूरत है। इस त्यौहार का एक पैगाम ये भी है कि हम अपने चरित्र को बुराइयों से पाक करें। मन को साफ करें और दुनिया को एक बेहतरीन जगह बनाएं। बहरहाल किसी भी त्यौहार के पीछे उसका इतिहास होता है, धार्मिक मान्यताएं होती हैं और सामाजिक सरोकार होते हैं। कुर्बानी के त्यौहार का मकसद भी सामाजिक एकता, भाईचारा, एक-दूसरे की जरूरत और किसी भी कठिनाई के समय अपना सबकुछ कुर्बान करने की भावना को मजबूत करना है। (हिफी)

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button