वर्तमान जन्म में प्रारब्ध ही भोग
धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे (अट्ठारहवां अध्याय-05)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके।-प्रधान सम्पादक
अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिविधं कर्मणः फलम्।
भवत्यत्यागिनां प्रेत्य न तु संन्यासिनां कचित्।। 12।।
प्रश्न-‘अत्यागिनाम्’ पद किन मनुष्यों का वाचक है तथा उनके कर्मों का अच्छा, बुरा और मिला हुआ तीन प्रकार का फल क्या है, और वह मरने के पश्चात् अवश्य होता है। इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-जिन्होंने अपने द्वारा किये जाने वाले कर्मों में और उनके फल में ममता, आसक्ति और कामना का त्याग नहीं किया है, जो आसक्ति और फलेच्छापूर्वक सब प्रकार के कर्म करने वाले हैं। ऐसे सर्व साधारण प्राकृत मनुष्यों का वाचक यहाँ ‘अत्यागिनाम्’ पद है।
उनके द्वारा किये हुए शुभ कर्मों का जो स्वर्गादि की प्राप्ति या अन्य किसी प्रकार के सांसारिक इष्ट भोगों की प्राप्ति रूप फल है, वह अच्छा फल है तथा उनके द्वारा किये हुए पाप कर्मों का जो पशु, पक्षी, कीट, पतंग और वृक्ष आदि तिर्यक् योनियों की प्राप्ति या नरकों की प्राप्ति अथवा अन्य किसी प्रकार के दुःखों की प्राप्ति रूप फल है वह बुरा फल है। इसी प्रकार जो मनुष्यादि योनियों में उत्पन्न होकर कभी इष्ट भोगों को प्राप्त होना और कभी अनिष्ट भोगों को प्राप्त होना है, वह मिश्रित फल है। यही उनके कर्मों का तीन प्रकार का फल है।
यह तीन प्रकार का फल उन लोगों को मरने के बाद अवश्यक प्राप्त होता है। इस कथन से यहाँ यह भाव दिखलाया गया है कि उन पुरुषों के कर्म अपना फल भुगताये बिना नष्ट नहीं हो सकते, जन्म-जन्मान्तरों में शुभाशुभ फल देते रहते हैं इसीलिये ऐसे मनुष्य संसार चक्र में घूमते रहते हैं।
प्रश्न-यहाँ ‘प्रेत्य’ पद से यह बात कही गयी है कि उनके कर्मों का फल मरने के बाद होता है तो क्या जीते हुए उनके कर्मों का फल नहीं होता?
उत्तर-वर्तमान जन्म में मनुष्य प्रायः पूर्वकृत कर्मों से बने हुए प्रारब्ध का ही भोग करता है, नवीन कर्मों का फल वर्तमान जन्म में बहुत ही कम भोगा जाता है इसलिये एक मनुष्य योनि में किये हुए कर्मों का फल अनेक योनियों में अवश्य भोगना पड़ता है। यह भाव समझाने के लिये यहाँ ‘प्रेत्य’ पद का प्रयोग करके मरने के बाद फल भोगने की बात कही गयी है।
प्रश्न-‘तु’ अव्यय का क्या भाव है?
उत्तर-कर्मफल का त्याग न करने वालों की अपेक्षा कर्मफल का त्याग करने वाले पुरुषों की अत्यन्त श्रेष्ठता और विलक्षणता प्रकट करने के लिये यहाँ ‘तु’ अव्यय का प्रयोग किया गया है।
प्रश्न-‘संन्यासिनाम्’ पद किन मनुष्यों का वाचक है और उनके कर्मों का फल भी नहीं होता, इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-कर्मों में और उनके फल में ममता, आसक्ति और कामना का जिन्होंने सर्वथा त्याग कर दिया है दसवें श्लोक में त्यागी के नाम से जिनके लक्षण बतलाये गये हैं छठे अध्याय के पहले श्लोक में जिनके लिये ‘संन्यासी’ और योगी दोनों पदों का प्रयोग किया गया है तथा दूसरे अध्याय के इक्यावनवें श्लोक में जिनको अनामय पद की प्राप्ति का होना बतलाया गय है-इस कर्मयोगियोें का वाचक यहाँ ‘संन्यासिनाम्’ पद है।
अतः संन्यासियों के कर्मों का फल कभी नहीं होता। इस कथन से यह भाव दिखलाया गया है कि इस प्रकार कर्मफल का त्याग कर देने वाले त्यागी मनुष्य जितने कर्म करते हैं वे भूने हुए बीज की भाँति होते हैं, उनमें फल उत्पन्न करने की शक्ति नहीं होती तथा इस प्रकार यथार्थ किये जाने वाले निष्काम कर्मों से पूर्व संचित समस्त शुभाशुभ कर्मों का भी नाश हो जाता है। इस कारण उनके इस जन्म में या जन्मान्तरों में किये हुए किसी भी कर्म का किसी प्रकार का भी फल किसी भी अवस्था में, जीते हुए या मरने के बाद कभी नहीं होता। वे कर्म बन्धन से सर्वथा मुक्त हो जाते हैं।
पैश्चैतानि महाबाहो कारणानि निबोध मे।
सांख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम्।। 13।।
प्रश्न-‘सर्वकर्मणाम्’ पद यहाँ किन कर्मों का वाचक है और उनकी सिद्धि क्या है?
उत्तर-‘सर्वकर्मणाम्’ पद यहाँ शाó विहित् और निषिद्ध, सभी प्रकार के कर्मों का वाचक है तथा किसी कर्म का पूर्ण हो जाना यानी उसका बन जाना ही उसकी सिद्धि है।
प्रश्न-‘कृतान्ते’ विशेषण के सहित ‘सांख्ये’ पद किसका वाचक है तथा उसमें सम्पूर्ण कर्मों की सिद्धि के ये पाँच हेतु बतलाये गये हैं, उनको तु मुझमे जान, इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-‘कृत’ नाम कर्मों का है अतः जिस शाó में उनके समाप्त करने का उपाय बतलाया गया हो, उसका नाम ‘कृतान्त’ है। सांख्य का अर्थ ज्ञान है (सभ्य क्ख्यायते ज्ञायते परमात्माऽनेनति सांख्यं तत्त्वज्ञानम्)। अतएव जिस शाó में तत्त्वज्ञान के साधन रूप ज्ञान योग का प्रतिपादन किया गया हो, उसको सांख्य कहते हैं। इसलिये यहाँ ‘कृतान्ते’ विशेषण के सहित ‘सांख्ये’ पद उस शाó का वाचक मालूम होता है, जिसमें ज्ञान योग का भलीभाँति प्रतिपादन किया गया हो और उसके अनुसार समस्त कर्मों का प्रकृति द्वारा किये हुए एवं आत्मा को सर्वथा अकर्ता समझकर कर्मों का अभाव करने की रीति बतलायी गयी हो।
इसीलिये यहाँ सम्पूर्ण कर्मों के सिद्धि के ये पाँच हेतु सांख्य सिद्धान्त में बतलाये गये हैं, उनको तू मुझसे भलीभाँति जान-इस कथन से भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि आत्मा का अकर्तृत्व सिद्ध करने के लिये उपर्युक्त ज्ञान योग का प्रतिपादन करने वाले शाó में समस्त कर्मों की सिद्धि के जो पाँच हेतु बतलाये गये हैं-जिन पाँचों के सम्बन्ध से समस्त कर्म बनते हैं, उनको मैं तुझे बतलाता हूँ, तू सावधान होकर सुन।
अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम्।
विविधाश्व पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पंचमम्।। 14।।
प्रश्न-‘अधिष्ठानम्’ पद यहाँ किसका वाचक है?
उत्तर-‘अधिष्ठानम्’ पद यहाँ मुख्यता से करण और क्रिया से आधार रूप शरीर का वाचक है किन्तु गौणरूप से यज्ञादि कर्मों से तद्विषयक क्रिया के आधार रूप भूमि आदि का वाचक भी माना जा सकता है।
प्रश्न-‘कर्ता’ पद यहाँ किसका वाचक है?
उत्तर-यहाँ ‘कर्ता’ पद प्रकृति स्थ पुरुष का वाचक है। इसी को तेरहवें
अध्याय के इक्कीसवें श्लोक में भोक्ता बतलाया गया है और तीसरे अध्याय के सत्ताइसवें श्लोक में अहंकार विमूढात्मा कहा गया है।-क्रमशः (हिफी)