शास्त्र सम्मत कर्म ही करें
धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे (सोलहवां अध्याय-08)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके।-प्रधान सम्पादक
एतैर्विमुक्तः कौन्तेय तमोद्वारैóिभिर्नरः।
आचरत्यात्मनः श्रेयस्ततो याति परां गतिम्।। 22।।
प्रश्न-‘एतैः’ और ‘त्रिभिः’ इन दोनों पदों के सहित ‘तमोद्वारैः‘ पद किनका वाचक है और इनसे विमुक्त मनुष्य को ‘नर’ कहने का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-पिछले श्लोक में जिन काम, क्रोध और लोभ को नरक के त्रिविध द्वार बतलाया गया है, उन्हीं का वाचक यहाँ ‘एतैः’ और ‘त्रिभिः’ पदों के सहित तमोद्वारैः पद है। तामिó और अन्धतामिóादि नरक अन्धकारमय होते हैं, अज्ञानरूपी अन्धकार से उत्पन्न दुराचार और दुर्गुणों के फलस्वरूप उनकी प्राप्ति होती है, उनमें रहकर जीवों को मोह और दुःख रूप तम से ही घिरे रहना पड़ता है इसी से उनको तम कहा जाता है। काम, क्रोध और लोभ ये तीनों उनके द्वार अर्थात कारण हैं, इसलिये उनको तमोद्वार कहा गया है। इन तीनों नरक के द्वारों से जो विमुक्त है। सर्वथा छूटा हुआ है वही मनुष्य अपने कल्याण का साधन कर सकता है और मनुष्य देह पाकर जो इस प्रकार कल्याण का साधन करता है वही वास्तव में ‘नर’ (मनुष्य) है। यह भाव दिलखाने के लिये उसे ‘नर’ कहा गया है।
प्रश्न-अपने कल्याण का आचरण करना क्या है?
उत्तर-काम, क्रोध और लोभ के वश हुए मनुष्य अपना पतन करते हैं और इनसे छूटे हुए मनुष्य अपने कल्याण के लिये आचरण करते हैं अतः काम, क्रोध और लोभ का त्याग करके शाó प्रतिपादित सद्गुण और सदाचार रूप दैवी सम्पदा का निष्काम भाव से सेवन करना ही कल्याण के लिये आचरण करना है।
प्रश्न-इससे यह परम गति को जाता है, इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-इस वाक्य से भगवान् यह भाव दिखलाते हैं कि उपर्युक्त प्रकार से काम, क्रोध और लोभ के विस्तार रूप आसुरी सम्पदा से भलीभाँति छूटकर निष्काम भाव से दैवी सम्पदा का सेवन करने से मनुष्य परमगति को अर्थात् परमात्मा को प्राप्त होता है।
यः शाóविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः।
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्।। 23।।
प्रश्न- शाó विधि को त्यागकर अपनी इच्छा से मनमाना आचरण करना क्या है?
उत्तर-वेद और वेदों के आधार पर रचित स्मृति, पुराण, इतिहासादि सभी का नाम शाó है। आसुरी सम्पदा के आचार-व्यवहार आदि के त्याग का और दैवी सम्पदा रूप कल्याणकारी गुण-आचरणों के सेवन का ज्ञान इन शास्त्रों से ही होता है। इन कर्तव्य और अकर्तव्य का ज्ञान कराने वाले शाóों के विधान की अवहेलना करके अपनी बुद्धि से अच्छा समझकर जो मनमाने तौर पर मान-बड़ाई-प्रतिष्ठा आदि किसी की भी इच्छा विशेष को लेकर आचरण करना है, यही शाó विधि को त्यागकर मनमाना आचरण करना है।
प्रश्न-इस प्रकार आचरण करने वाला सिद्धि, सुख और परमगति को नहीं प्राप्त होता-इस कथन का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-इससे यह भाव दिखलाया गया है कि जो मनुष्य शाó विधि का त्याग करता है, उसके कर्म यदि शाó निषिद्ध अर्थात् पाप होते हैं तो वे दुर्गति के कारण होते हैं अतएव उनकी तो यहाँ बात ही नहीं है। परन्तु यदि अपनी बुद्धि से अच्छा समझकर भी किसी प्रकार की कामना से प्रेरित होकर कर्म करता है तो भी उनके मनमाने तौर पर किये जाने के कारण तथा शाó की अवहेलना करने के कारण उनसे कर्ता को कोई भी फल नहीं मिलता। अर्थात् परमगति नहीं मिलती-इसमें तो कहना ही क्या है, लौकिक अणिमादि सिद्धि और स्वर्ग प्राप्ति रूप सिद्धि भी नहीं मिलती एवं संसार से सात्त्विक सुख भी नहीं मिलता।
तस्माच्छाóं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ।
ज्ञात्वा शाóविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि।। 24।।
प्रश्न-इस कर्तव्य और अकर्तव्य की व्यवस्था में शाó ही प्रमाण है-इस कथन का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-इससे यह भाव दिखलाया गया है कि क्या करना चाहिये और क्या नहीं करना चाहिये। इसकी व्यवस्था श्रुति, वेदमूलक स्मृति और पुराण-इतिहासादि शाóों से प्राप्त होती है। अतएव इस विषय में मनुष्य को मनमाना आचरण न करके शाóों को ही प्रमाण मानना चाहिये। अर्थात् इन शास्त्रों में जिन कर्मों के करने का विधान है, उनको करना चाहिये और जिनका निषेध है, उन्हें नहीं करना चाहिये।
प्रश्न-ऐसा जानकर तू शाó विधि से नियत कर्म ही करने योग्य है-इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-इससे यह भाव दिखलाया है कि इस प्रकार शाóों को प्रमाण मानकर तुम्हें शाóों में बतलाये हुए कर्तव्य कर्मों का ही विधिपूर्वक आचरण करना चाहिये, निषिद्ध कर्मों का कभी नहीं तथा उन शाó विहित शुभ कर्मों का आचरण भी निष्काम भाव से ही करना चाहिये, क्योंकि शास्त्रों में निष्काम भाव से किये हुए शुभ कर्मों को ही भगवत्प्राप्ति में हेतु बतलाया है।-क्रमशः (हिफी)