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अनन्य अभ्यास भक्ति योग

धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे (बारहवां अध्याय-03)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)

रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके।-प्रधान सम्पादक

प्रश्न-अनन्य भक्ति योग क्या है? और उसके द्वारा भगवान् का चिन्तन करते हुए उनकी उपासना करना क्या है?
उत्तर-एक परमेश्वर के शिवा मेरा कोई नहीं है, वे ही मेरे सर्वस्व हैं-ऐसा समझकर जो भगवान् में स्वार्थ रहित तथा अत्यन्त श्रद्धा से युक्त अनन्य प्रेम करना है-जिस प्रेम में स्वार्थ, अभिमान और व्यभिचार का जरा भी दोष नहीं है जो सर्वथा पूर्ण और अटल है। जिसके किंचित अंश में भगवान् की विस्मृति असह्य हो जाती है उस अनन्य प्रेम को ‘अनन्य भक्ति योग; कहते हैं और ऐसे भक्ति योग द्वारा निरन्तर भगवान् का चिन्तन करते हुए, जो उनके गुण, प्रभाव और लीलाओं का श्रवण, कीर्तन, उनके नामों का उच्चारण और जप आदि करना है-यही अनन्य भक्ति योग के द्वारा भगवान् का चिन्तन करते हुए उनकी उपासना करना है।
तेपामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्।
भवानि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्।। 7।।
प्रश्न-‘तेषाम्’ पद के सहित ‘मय्यावेशितचेतसाम्’ पद किनका वाचक है?
उत्तर-पिछले श्लोक में मन-बुद्धि को सदा के लिये भगवान् में लगा देने वाले जिन अनन्य प्रेमी सगुण-उपासकों का वर्णन आया है, उन्हीं पे्रमी भक्तों का वाचक यहाँ ‘तेषाम्’ के सहित ‘मय्यावेशितचेतसाम्’ पद है।
प्रश्न-‘मृत्युरूप संसार- सागर’ क्या है? और उससे भगवान् का उपर्युक्त भक्त को शीघ्र ही उद्धार कर देना क्या है?
उत्तर-इस संसार में सभी कुछ मृत्युमय है, इसमें पैदा होने वाली एक भी चीज ऐसी नहीं है, जो कभी क्षण भर के लिये भी मृत्यु के थपेड़ों से बचती हो जैसे समुद्र में असंख्य लहरें उठती रहती हैं, वैसे ही इस अपार संसार-सागर में अनवरत जन्म मृत्यु रूपी तरंगे उठा करती हैं। समुद्र की लहरों की गणना चाहे हो जाय पर जब तक परमेश्वर की प्राप्ति नहीं होती, तब तक जीव को कितनी
बार जन्मना और मरना पड़ेगा-
इसकी गणना नहीं हो सकती इसीलिये इसको ‘मृत्यु रूप संसार-सागर’ कहते हैं।
उपर्युक्त प्रकार से मन-बुद्धि को भगवान् में लगाकर जो भक्त निरन्तर भगवान् की उपासना करते हैं, उनको भगवान् तत्काल ही जन्म-मृत्यु से सदा के लिये छुड़ाकर यही अपनी प्राप्ति करा देते हैं अथवा मरने के बाद अपने परम धाम में ले जाते हैं-यहाँ तक कि जैसे केवट किसी को नौका में बैठकार नदी से पार कर देता है, वैसे ही भक्ति रूपी नौका पर स्थित भक्त के लिये भगवान् स्वयं केवट बनकर उसकी समस्त संसार समुद्र के उस पार अपने परम धाम में ले जाते हैं। यही भगवान् का अपने उपर्युक्त भक्त को मृत्यु रूप संसार से पार कर देना है।
मय्येव मन आधत्स्व मयि बुर्द्धि निवेशय।
निवसिष्यसि मय्येव अत ऊध्र्व न संशयः ।। 8।।
प्रश्न-बुद्धि और मन को भगवान् में लगाना किसे कहते हैं?
उत्तर-जो सम्पूर्ण चराचर संसार को व्याप्त करके सबके हृदय में स्थित है और जो दयालुता, सर्वज्ञता, सुशीलता तथा सुहृदता आदि अनन्त गुणों के समुद्र हैं-उन परम दिव्य, प्रेममय और आनन्दमय, सर्वशक्तिमान्, सर्वोत्तम, शरण लेने के योग्य परमेश्वर के गुण, प्रभाव और लीला के तत्व तथा रहस्य को भलीभाँति समझकर उनका सदा-सर्वदा और सर्वत्र अटल निश्चय रखना-यही बुद्धि को भगवान् में लगाना है तथा इस प्रकार अपने परम प्रेमास्पद पुरुषोत्तम भगवान् के अतिरिक्त अन्य समस्त विषयों से आसक्ति को सर्वथा हटाकर मन को केवल उन्हीं में तन्मय कर देना और नित्य-निरन्तर उपर्युक्त प्रकार से उनका चिन्तन करते रहना-यही मन को भगवान् में लगाना है। इस प्रकार जो अपने मन-बुद्धि को भगवान् में लगा देता है, वह शीघ्र ही भगवान् को प्राप्त हो जाता है।
प्रश्न-भगवान् में मन-बुद्धि लगाने पर यदि मनुष्य को निश्चय ही भगवान् की प्राप्ति हो जाती है, तो फिर सब लोग भगवान् में मन-बुद्धि क्यों नहीं लगाते?
उत्तर-गुण, प्रभाव और लीला के तत्व और रहस्य को न जानने के कारण भगवान् में श्रद्धा-प्रेम नहीं
होना और अज्ञानजनित आसक्ति
के कारण सांसारिक विषयों का
चिन्तन होता रहता है। संसार में अधिकांश लोगों की यही स्थिति है इसी से सब लोग भगवान् में मन-बुद्धि नहीं लगा पाते।
प्रश्न-जिन अज्ञान जनित आसक्ति से लोगों में सांसारिक भोगों की चिन्तन की बुरी आदत पड़ रही है, उसके छूटने का क्या उपाय है?
उत्तर-भगवान् के गुण, प्रभाव और लीला के तत्त्व और रहस्य को जानने और मानने से यह आदत छूट सकती है।
प्रश्न-भगवान् के गुण, प्रभाव, लीला के तत्त्व और रहस्य का ज्ञान कैसे हो सकता है?
उत्तर-भगवान् के गुण, प्रभाव और लीला के तत्त्व और रहस्य को जानने वाले महापुरुषों का संग, उनके गुण और आचरणों का अनुकरण तथा भोग, आलस्य और प्रमाद को छोड़कर उनके बतलाये हुए मार्ग का विश्वासपूर्वक तत्परता के साथ अनुसरण करने से उनका ज्ञान हो सकता है।
अथ्य चित्तं समाधातुं न शंक्रोषि मयि स्थिरम्।
अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनंजय।। 9।।
प्रश्न-इस श्लोक का क्या भाव है?
उत्तर-भगवान् अर्जुन को निमित्त बनाकर समस्त जगत् के हितार्थ उपदेश कर रहे हैं। संसार में सब साधकों की प्रकृति एक सी नहीं होती, इसी कारण सबके लिये एक साधन उपयोगी नहीं हो सकता। विभिन्न प्रकृति के मनुष्यों के लिये भिन्न-भिन्न प्रकार के साधन ही उपयुक्त होते हैं। अतएव भगवान् इस श्लोक में कहते हैं कि यदि तुम उपर्युक्त प्रकार से मुझ में मन और बुद्धि की स्थिर स्थापना करने में अपने को असमर्थ समझते हो, तो तुम्हें अभ्यास योग के द्वारा मेरी प्राप्ति की इच्छा करनी चाहिये।-क्रमशः (हिफी)

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