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पांच प्रकार के मनुष्य संभव

धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे (सत्तरहवां अध्याय-01)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)

रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके।-प्रधान सम्पादक

ये शाóविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विताः।
तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वमाहो रजस्तमः।। 1।।
प्रश्न-शाó विधि के त्याग की बात सोलहवें अध्याय के तेईसवें श्लोक में कही जा चुकी है और यहाँ भी कहते हैं। इन दोनों का एक ही भाव है या इनमें कुछ अन्तर है?
उत्तर-अवश्य अन्तर है। वहाँ अवहेलना करके शाó विधि के त्याग का वर्णन है और यहाँ न जानने के कारण होेने वाले शास्त्र विधि के त्याग का है। उनको शाó की परवा ही नहीं है वे अपने मन में जिस कर्म को अच्छा समझते हैं, वही करते हंै। इसी से वहाँ वर्तते कामकारतः कहा गया है परन्तु यहाँ यजन्ते श्रद्धयान्विताः कहा है, अतः इन लोगों में श्रद्धा होती है, वहाँ अवहेलना नहीं हो सकती। इन लोगों को परिस्थिति और वातावरण की प्रतिकूलता से, अवकाश के अभाव से अथवा परिश्रम तथा अध्ययन आदि की कमी से शाó विधि का ज्ञान नहीं होता और इस अज्ञता के कारण ही इनके द्वारा उसका त्याग होता है।
प्रश्न-‘निष्ठा’ शब्द का क्या भाव है?
उत्तर-निष्ठा शब्द यहाँ स्थिति का वाचक है। क्योंकि तीसरे श्लोक में इसका उत्तर देते हुए भगवान् ने कहा है कि वह पुरुष श्रद्धामय है जिसका जैसी श्रद्धा है, वैसा ही वह पुरुष है अर्थात् वैसी ही उसकी स्थिति है। अतएव उसी का नाम निष्ठा है।
प्रश्न-उनकी निष्ठा सात्त्विक की है अथवा राजसी या तामसी? यह पूछने का क्या भाव है?
उत्तर-सोलहवें अध्याय के छठे श्लोक में भगवान् ने दैवी प्रकृति वाले और आसुरी प्रकृति वाले इन दो प्रकार के मनुष्यों का वर्णन किया। इनमें दैवी प्रकृति वाले लोग शाó विहित कर्मों का निष्काम भाव से आचरण करते हैं इसी से वे मोक्ष को प्राप्त होते हैं। आसुर स्वभाव वालों में जो तामस लोग पाप कर्मों का आचरण करते हैं वे तो नीच योनियों को या नरकों को प्राप्त होते हैं और तमो मिश्रित राजस लोग, जो शाó विधि को त्याग कर मनमाने अच्छे कर्म करते हैं, उनको अच्छे कर्मों का कोई फल नहीं मिलता किन्तु पाप कर्म का फल तो उन्हें भी भोगना ही पड़ता है। इस वर्णन से दैवी और आसुरी प्रकृति वाले मनुष्यों की उपर्युक्त बातें तो अर्जुन की समझ में आ गयीं परन्तु जानने के कारण शाó विधि का त्याग करने पर भी जो श्रद्धा के साथ पूजन आदि करने वाले हैं, वे कैसे स्वभाव वाले हैं-दैव स्वभाव वाले या आसुर स्वभाव वाले? इसका स्पष्टीकरण नहीं हुआ। अतः उसी को समझने के लिये अर्जुन का यह प्रश्न है कि ऐसे लोगों की स्थिति सात्त्विकी है अथवा राजसी, या तामसी? अर्थात् वे दैवी सम्पदा वाले हंै या आसुरी सम्पदा वाले?
प्रश्न-ऊपर के विवेचन से यह पता लगता है कि संसार में पाँच प्रकार के मनुष्य हो सकते हैं-
(1) जो शाó विधि का पालन भी करते हैं और जिनमें श्रद्धा भी है।
(2) जो शाó विधि का तो किसी अंश में पालन करते हैं, परन्तु जिनमें श्रद्धा नहीं है।
(3) जिनमें श्रद्धा तो है, परन्तु जो शाó विधि का पालन नहीं कर पाते।
(4) जो शाó विधि का पालन भी नहीं करते और जिनमें श्रद्धा भी नहीं है।
(5) जो अवहेलना से शाó विधि का त्याग करते हैं।
इन पाँचों का क्या स्वरूप है, इनकी क्या गति होती है तथा इनका वर्णन गीता के कौन-से श्लोकों में प्रधानता से किया गया।
उत्तर- (1) जिनमें श्रद्धा भी है और जो शाó विधि का पालन भी करते हैं, ऐसे पुरुष दो प्रकार के हैं-एक तो निष्काम भाव से कर्मों का आचरण करने वाले और दूसरे सकाम भाव से कर्मों का आचरण करने वाले। निष्काम भाव से आचरण करने वाले दैवी सम्पदा युक्त सात्त्विक पुरुष मोक्ष को प्राप्त होते हैं। इनका वर्णन प्रधानतया सोलहवें अध्याय के पहले तीन श्लोकों में तथा इस अध्याय के ग्यारहवें, चैदहवें से सतरहवें और बीसवें श्लोकों में है। सकाम भाव से आचरण करने वाले सत्त्व मिश्रित राजस पुरुष सिद्धि, सुख तथा स्वर्गादि लोकों को प्राप्त होते हैं इनका वर्णन दूसरे अध्याय के बयालीसवें, तैंतालीसवें और चैवालीसवें में, चैथे अध्याय के बारहवें श्लोक में, सातवें के बीसवें, इक्कीसवें और बाईसवें और नवें अध्याय के बीसवें, इक्कीसवें और तेईसवें श्लोकों में है।
(2) जो लोग शाó विधि का किसी अंश में पालन करते हुए यज्ञ, दान, तप आदि कर्म तो करते हैं परन्तु जिनमें श्रद्धा नहीं होती, उन पुरुषों के कर्म असत् (निष्फल) होते हैं उन्हें इस लोक और परलोक में उन कर्मों से कोई भी लाभ नही होता। इनका वर्णन इस अध्याय के अट्ठाइसवें श्लोक में किया गया है।
(3) जो लोग अज्ञता के कारण शाó विधि का तो त्याग करते हैं परन्तु जिनमें श्रद्धा है ऐसे पुरुष श्रद्धा के भेद से सात्त्विक भी होते हैं और राजस तथा तामस भी। इनकी गति भी इनके स्वरूप के अनुसार ही होती है। इनका वर्णन इस अध्याय के दूसरे, तीसरे तथा चैथे श्लोकांे में किया गया है।
(4) जो लोग न तो शाó को मानते हैं और न जिनमें श्रद्धा ही है इससे जो काम, क्रोध और लोभ के वश होकर अपना पापमय जीवन बिताते हैं वे आसुरी सम्पदा वाले लोग नरकों में गिरते हैं तथा नीच योनियों को
प्राप्त होते हैं। उनका वर्णन सातवें अध्याय के पंद्रहवें श्लोक में, नवें के बारहवें में, सोलहवें अध्याय के सातवें से लेकर बीसवें तक में और इस
अध्याय के पाँचवें, छठे एवं तेरहवें श्लोकांे में है।
(5) जो लोग अवहेलना से शाó विधि का त्याग करते हैं और अपनी समझ से उन्हें जो अच्छा लगता है, वही करते हैं-उन यथेच्छाचारी पुरुषों में जिनके कर्म शाó निषिद्ध होते हें, उन तामस पुरुषों को तो नरकादि दुर्गति की प्राप्ति होती है। जिनका वर्णन चैथे प्रश्न के उत्तर में आ चुका है और जिनके कर्म अच्छे होते हैं, उन रजः प्रधान तामस पुरुषों को शाó विधि का त्याग कर देने के कारण कोई भी फल नहीं मिलता। इसका वर्णन सोलहवें अध्याय के तेईसवें श्लोक में किया गया है। ध्यान रहे कि इनके द्वारा पाप कर्म किये जाते हैं उनका फल तिर्यक् योनियों की प्राप्ति और नरकों की प्राप्ति अवश्य होता है।
इन पाँचों प्रश्नों के उत्तर में प्रमाण स्वरूप जिन श्लोकांे का संकेत किया गया है उनके अतिरिक्त अन्यान्य श्लोकांे में भी इनका वर्णन है परन्तु यहाँ उन सबका उल्लेख नहीं किया गया है।-क्रमशः (हिफी)

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