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न्यायोचित दण्ड देने की इच्छा का भी त्याग है क्षमा

धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे (सोलहवां अध्याय-02)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)

रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके।-प्रधान सम्पादक

प्रश्न-सब प्राणियों पर दया करना क्या है?
उत्तर-किसी भी प्राणी को दुखी देखकर उसके दुःख को जिस किसी प्रकार से किसी भी स्वार्थ की कल्पना किये बिना ही निवारण करने का और सब प्रकार से उसे सुखी बनाने का जो भाव है, उसे ‘दया’ कहते हैं। दूसरों को कष्ट नहीं पहुंचाना ‘अहिंसा’ है और उनको सुख पहुँचाने का भाव ‘दया’ है। यही अहिंसा और दया का भेद है।
प्रश्न-‘अलोलुपत्व’ किसको कहते हैं?
उत्तर-इन्द्रिय और विषयों का संयोग होने पर उनमें आसक्ति होना तथा दूसरों को विषय भोग करते देखकर उन विषयों की प्राप्ति के लिये मन का ललचा उठना ‘लोलुपता’ है, इसके सर्वथा अभाव का नाम ‘अलोलुपत्व है।
प्रश्न-‘मार्दव’ क्या है?
उत्तर-अन्तःकरण, वाणी और व्यवहार में जो कठोरता का सर्वथा अभाव होकर उनका अतिशय कोमल हो जाना है, उसी को ‘मार्दव’ कहते हैं।
प्रश्न-‘ही’ किसको कहते हैं?
उत्तर-वेद, शास्त्र और लोक-व्यवहार के विरुद्ध आचरण न करने का निश्चय होने के कारण उनके विरुद्ध आचरणों में जो संकोच होता है, उसे ‘ही’ यानी लज्जा कहते हैं।
प्रश्न-‘अचापल’ क्या है?
उत्तर-हाथ-पैर आदि को हिलाना, तिनके तोड़ना, जमीन कुरेदना, बेमतलब बकते रहना, बेसिर-पैर की बातें सोचना आदि हाथ-पैर, वाणी और मन की व्यर्थ चेष्टाओं का नाम चपलता है। इसी को प्रमाद भी कहते हैं। इसके सर्वथा अभाव को ‘अचापल’ कहते हैं।
तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता।
भवन्ति संपदं दैवीमभिजातस्य भारत।। 3।।
प्रश्न-‘तेज’ किसको कहते हैं?
उत्तर-श्रेष्ठ पुरुषों की उस शक्ति विशेषण का नाम तेज है, जिसके कारण उनके सामने विषयासक्त और नीच प्रकृति वाले मनुष्य भी प्रायः अन्यायाचरण से रुककर उनके कथनानुसार श्रेष्ठ कर्मों में प्रवृत्त हो जाते हैं।
प्रश्न-‘क्षमा’ किस भाव का नाम है?
उत्तर-अपना अपराध करने वाले को किसी प्रकार भी दण्ड देने-दिलाने का भाव न रखना, किसी प्रकार भी उससे बदला लेने की इच्छा न रखना, उसके अपराधों को अपराध ही न मानना और उन्हें सर्वथा भुला देना ‘क्षमा’ है। अक्रोध में तो केवल क्रोध का अभाव मात्र ही बतलाया गया है, परन्तु क्षमा में अपराध का न्यायोचित दण्ड देने की इच्छा का भी त्याग है। यही अक्रोध और क्षमा का परस्पर भेद है।
प्रश्न-‘धृति’ किसको कहते हैं?
उत्तर-भारी-से भारी आपत्ति, भय या दुःख उपस्थित होने पर भी विचलित न होना काम, क्रोध, भय या लोभ से किसी प्रकार भी अपने धर्म और कर्तव्य से विमुख न होना ‘धृति’ है। इसी को धैर्य कहते हैं।
प्रश्न-‘शौच’ किसको कहते हैं?
उत्तर-सत्यतापूर्वक पवित्र व्यवहार से द्रव्य की शुद्धि होती है, उस द्रव्य से प्राप्त किये हुए अन्न से आहार की शुद्धि होती है, यथा योग्य वर्ताव से आचरणों की शुद्धि होती है और जल वृत्तिकादि द्वारा प्रक्षालनादि क्रिया से शरीर की शुद्धि होती है। इन सबको बाह्य शौच अर्थात् बाहर की शुद्धि कहते हैं। इसी को यहाँ शौच के नाम से कहा गया है। भीतर की शुद्धि सत्त्व-संशुद्धि के नाम से पहले श्लोक में अलग कही जा चुकी है।
प्रश्न-‘अद्रोह’ का क्या भाव है?
उत्तर-अपने साथ शत्रुता का व्यवहार करने वाले प्राणियों के प्रति भी जरा भी द्वेष या शत्रुता का भाव न होना ‘अद्रोह’ कहलाता है।
प्रश्न-‘न अतिमानिता’ का क्या भाव है?
उत्तर-अपने को श्रेष्ठ, बड़ा या पूज्य समझना एवं मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा और पूजा आदि की विशेष इच्छा करना तथा बिना इच्छा भी इन सबके प्राप्त होने पर विशेष प्रसन्न होना-ये अतिमानिता के लक्षण हैं। इन सबके सर्वथा अभाव का नाम ‘न अतिमानिता’ है।
प्रश्न-‘दैवीसम्पद्’ किसको कहते हैं?
उत्तर-‘देव’ भगवान् का नाम है। इसलिये उनसे सम्बन्ध रखने वाले उनकी प्राप्ति के साधन रूप सद्रुण और सदाचारों के समुदाय को दैवी सम्पद् कहते हैं। दैवी प्रकृति भी इसी का नाम है।
प्रश्न-ये सब दैवी सम्पत् से युक्त पुरुष के लक्षण हैं-इस कथन का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-इसका यह अभिप्राय है कि इस अध्याय के पहले श्लोक से लेकर इस श्लोक के पूर्वार्द्ध तक ढाई श्लोकों में छब्बीस लक्षणों के रूप में इस दैवी सम्पद् रूप सद्रुण और सदाचार का ही वर्णन किया गया है। अतः ये सब लक्षण जिसमें स्वभाव से विद्यमान हों अथवा जिसने साधन द्वारा प्राप्त कर लिये हों, वही पुरुष दैवी सम्पत् से युक्त है।
दम्भो दर्पोऽभिमानश्व क्रोधः पारुप्यमेव च।
अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ संपदमासुरीम्।। 4।।
प्रश्न-‘दम्भ’ किसको कहते हैं?
उत्तर-मान, बड़ाई, पूजा और प्रतिष्ठा के लिये, धनादि के लोभ से किसी को ठगने के अभिप्राय से अपने को धर्मात्मा, भगव˜क्त, ज्ञानी या महात्मा प्रसिद्ध करना अथवा दिखाऊ धर्म पालन का, दानीपन का, व्रत-उपवासादि का, योग साधन का और जिस किसी भी रूप में रहने से अपना काम सधता हो, उसी का ढांेग रचना दम्भ है।
प्रश्न-‘दर्प’ किसको कहते हैं?
उत्तर-विद्या, धन, कुटुम्ब, जाति, अवस्था, बल और ऐश्वर्य आदि के सम्बन्ध से जो मन में घमण्ड होता है-जिसके कारण मनुष्य दूसरों को तुच्छ समझकर उनकी अवहेलना करता है, उसका नाम ‘दर्प’ है।
प्रश्न-‘अभिमान’ क्या है?
उत्तर-अपने को श्रेष्ठ, बड़ा या पूज्य समझना, मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा और पूजा आदि की इच्छा रखना एवं इन सबके प्राप्त होने पर प्रसन्न होना ‘अभिमान’ है।
प्रश्न-‘क्रोध’ किसको कहते हैं?
उत्तर-बुरी आदत के अथवा क्रोधी मनुष्यों के संग के कारण या किसी के द्वारा अपना तिरस्कार, अपकार या निन्दा किये जाने पर, मन के विरुद्ध कार्य होने पर, किसी के द्वारा दुर्वचन सुनकर या किसी का अन्याय देखकर इत्यादि किसी भी कारण से अन्तःकरण में जो द्वेषयुक्त उत्तेजना हो जाती है जिसके कारण मनुष्य के मन में प्रतिहिंसा के भाव जाग्रत हो उठते हैं, नेत्रों में लाली आ जाती है, होठ फड़कने लगते हैं, मुखा की आकृति भयानक हो जाती है,
बुद्धि मारी जाती है और कर्तव्य का विवेक नहीं रह जाता-इत्यादि किसी प्रकार की भी उत्तेजित वृत्ति का नाम ‘क्रोध है।-क्रमशः (हिफी)

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