मुक्ति चाहने वाले बनें सात्विक कर्ता
धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे (अट्ठारहवां अध्याय-12)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके।-प्रधान सम्पादक
प्रश्न-‘धृत्युत्साहसमन्वितः’ पद में ‘वृति’ और ‘उत्साह’ शब्द किन भावों के वाचक हैं और इन दोनों से युक्त पुरुष के क्या लक्षण है?
उत्तर-शाó विहित स्वधर्म पालन रूप किसी भी कर्म करने में बड़ी-से बड़ी विघ्न-बाधाओं के उपस्थित होने पर भी विचलित न होना ‘वृति’ है और कर्म सम्पादन में सफलता न प्राप्त होने पर या ऐसा समझकर कि यदि मुझे फल की इच्छा नहीं है तो कर्म करने की क्या आवश्यकता है किसी भी कर्म से न उकताना, किन्तु जैसे कोई सफलता प्राप्त कर चुकने वाला और कर्म फल को चाहने वाला मनुष्य करता है उसी प्रकार श्रद्धापूर्वक उसे करने के लिये उत्सुक रहना ‘उत्साह’ है। इन दोनों गुणों से युक्त पुरुष बड़े-से बड़ा विघ्न उपस्थित होने पर भी अपने कर्तव्य का त्याग नहीं करता, बल्कि अत्यन्त उत्साहपूर्वक समस्त कठिनाइयों को पार करता हुआ अपने कर्तव्य से डटा रहता है। ये ही उसके लक्षण हैं।
प्रश्न-‘सिद्धयसिद्धयोः निर्विकारः’ यह विशेषण कैसे मनुष्य का वाचक है?
उत्तर-साधारण मनुष्यां की जिस कर्म में आसक्ति होती है और जिस कर्म को वे अपने इष्ट फल का साधन समझते हैं, उसके पूर्ण हो जाने से उनके मन में बड़ा भारी हर्ष होता है और किसी प्रकार का विघ्न उपस्थित होकर उसके अधूरा रह जाने पर उनको बड़ा भारी कष्ट होता है। इसी तरह उनके अन्तःकरण में कर्म की सिद्धि-असिद्धि के सम्बन्ध से और भी बहुत प्रकार के विकार होते हैं। अतः अहंता, ममता, आसक्ति और फलेच्छा न रहने के कारण जो मनुष्य न तो किसी भी कर्म के पूर्ण होने में हर्षित होता है और न उसमें विघ्न उपस्थित होने पर शोक ही करता है तथा इसी तरह जिसमें अन्य किसी प्रकार का भी कोई विकार नहीं होता, जो हरेक अवस्था में सदा-सर्वदा सम रहता है। ऐसे समता युक्त पुरुष का वाचक सिद्धयसिद्धयोः निर्विकारः यह विशेषण है।
प्रश्न-वह कर्ता सात्त्विक कहा जाता है-इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-इससे यह भाव दिखलाया गया है कि जिस कर्ता में उपर्युक्त समस्त भावों का समावेश है, वही पूर्ण सात्त्विक है और जिसमें जिस भाव की कमी है, उतनी ही उसकी सात्त्विकता में कमी है। इस प्रकार का सात्त्विक भाव परमात्मा के तत्त्वज्ञान को प्रकट करने वाला है, इसलिये मुक्ति चाहने वाले मनुष्य को सात्त्विक कर्ता ही बनना चाहिये।
रागी कर्मफलप्रेप्सुर्लब्धो हिंसात्मकोऽशुचिः।
हर्षशोकान्वितः कर्ता राजसः परिकीर्तितः।। 27।।
प्रश्न-‘रागी’ पद कैसे मनुष्य का वाचक है?
उत्तर-जिस मनुष्य की कर्मों में और उनके फलरूप इस लोक और परलोक में भोगों में ममता और आसक्ति है अर्थात जो कुछ किया करता है उसमें और उसके फल में जो आसक्त रहता है ऐसे मनुष्य को ‘रागी’ कहते हैं।
प्रश्न-‘कर्मफलेप्रेप्सुः’ पद कैसे मनुष्य का वाचक है?
उत्तर-जो कर्मों के फलरूप स्त्री, पुत्र, धन, मकान, मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा आदि इस लोक और परलोक के नाना प्रकार के भोगों की इच्छा करता रहता है तथा जो कुछ कर्म करता है, उन भोगों की प्राप्ति के लिये ही करता है-ऐसे स्वार्थपरायण पुरुष वाचक ‘कर्मफलप्रेप्सुः’ पद है।
प्रश्न-‘लुब्धः’ पद कैसे मनुष्य का वाचक है?
उत्तर-धनादि पदार्थों में आसक्ति रहने के कारण जो न्याय से प्राप्त अवसर पर भी अपनी शक्ति के अनुरूप धन का व्यय नहीं करता तथा न्याय-अन्याय का विचार न करके सदा धन संग्रह की लालसा रखता है, यहाँ तक कि दूसरों के स्वत्व को हड़पने की भी इच्छा रखता है और वैसी ही चेष्टा करता है ऐसे लोभी मनुष्य का वाचक ‘लुब्धः’ पद है।
प्रश्न-‘हिंसात्मकः’ पद कैसे मनुष्य का वाचक है?
उत्तर-जिस किसी भी प्रकार के दूसरों को कष्ट पहुँचाना ही जिसका स्वभाव है, जो अपनी अभिलाषा की पूर्ति के लिये राग-द्वेषपूर्वक कर्म करते समय दूसरों के कष्ट की किंचित मात्र भी परवा न करके अपने आराम तथा भोगों के लिये दूसरों को कष्ट देता रहता है-ऐसे हिंसापरायण मनुष्य का वाचक यहाँ हिंसात्मकः पद है।
प्रश्न-अशुचिः पद कैसे मनुष्य का वाचक है?
उत्तर-जिसमें शौचाचार और सदाचार का अभाव है अर्थात् जो न तो शाó विधि के अनुसार जल-मृत्तिकादि से शरीर और वóादि को शुद्ध रखता है और न यथायोग्य बर्ताव करके अपने आचरणों को ही शुद्ध रखता है, किन्तु भोगों में आसक्त होकर नाना प्रकार के भोगों की प्राप्ति के लिये शौचाचार और सदाचार का त्याग कर देता है-ऐसे मनुष्य का वाचक यहाँ ‘अशुचिः’ पद है।
प्रश्न-‘हर्षशोकान्वितः’ पद कैसे मनुष्य का वाचक है?
उत्तर-प्रत्येक क्रिया में और उसके फल में राग-द्वेष रहने के कारण हरेक कर्म करते समय तथा हरेक घटना में जो कभी हर्षित होता है और कभी शोक करता है-इस प्रकार जिसके अन्तःकरण में हर्ष और शोक होते रहते हैं, ऐसे मनुष्य का वाचक यहाँ ‘हर्षशोकान्वितः’ पद है।
प्रश्न-वह कर्ता राजस कहा गया है इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-इस कथन से यह भाव दिखलाया गया है कि जो मनुष्य उपर्युक्त समस्त भावों से या उनमें से कितने ही भावों से युक्त होकर क्रिया करने वाला हे, वह राजस कर्ता है। राजस कर्ता बार-बार नाना योनियों में जन्मता और मरता रहता है वह संसार च़क्र से मुक्त नहीं होता। इसलिये मुक्ति चाहने वाले मनुष्य को राजस कर्ता नहीं बनना चाहिये।
अयुक्तः प्राकृतः स्तब्धः शठो नैष्कृतिकोऽलसः।
विषादी दीर्घसूत्री च कर्ता तामस उच्यते।। 28।।
प्रश्न-‘अयुक्तः’ पद कैसे मनुष्य का वाचक है?
उत्तर-जिसके मन और इन्द्रियाँ वश में किये हुए नहीं हैं, बल्कि जो स्वयं उनके वशीभूत हो रहा है तथा जिसमें श्रद्धा और आस्तिकता का अभाव है-ऐसे पुरुष वाचक ‘अयुक्त’ पद है।
प्रश्न-‘प्राकृतः‘ पद कैसे मनुष्य का वाचक है?
उत्तर-जिसको किसी प्रकार की सुशिक्षा नहीं मिली है, जिसका स्वभाव बालक के समान है जिसको अपने कर्तव्य का कुछ भी ज्ञान नहीं है।
जिसके अन्तःकरण और इन्द्रियों का
सुधार नहीं हुआ है-ऐसे संस्कार रहित स्वभाविक मूर्ख का वाचक ‘प्राकृतः’ पद है।-क्रमशः (हिफी)