सद्भाव व साधुवाद से मिलते भगवान
धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे (सत्तरहवां अध्याय-09)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके।-प्रधान सम्पादक
प्रश्न-तीसरे अध्याय मे ंतो यज्ञ सहित सम्पूर्ण प्रजा की उत्पत्ति प्रजापति ब्रह्मा से बतलायी गयी है और यहाँ ब्राह्मण आदि की उत्पत्ति परमात्मा के द्वारा बतलायी जाती है, इसका क्या अभिप्राय है?
उत्तर-प्रजापति ब्रह्मा की उत्पत्ति परमात्मा से हुई है और प्रजापति से समस्त ब्राह्मण, वेद और यज्ञादि उत्पन्न हुए हैं-इसलिये कहीं इनका परमेश्वर से उत्पन्न होना बतलाया गया है और कहीं प्रजापति से, किन्तु बात एक ही है।
प्रश्न-ब्राह्मण, वेद और यज्ञ-इन तीनों से किन-किन को लेना चाहिये? तथा ‘पुरा’ पद किस समय का वाचक है?
उत्तर-‘ब्राह्मण’ शब्द ब्राह्मण आदि समस्त प्रजा का ‘वेद’ चारों वेदों का, ‘यज्ञ’ शब्द यज्ञ, तप, दान आदि समस्त शाó विहित कर्तव्य-कर्मों का तथा ‘पुरा’ पद सृष्टि के आदिकाल का वाचक है।
तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतपःक्रिया।
प्रवर्तन्ते विधानोक्ताः सततं ब्रह्मवादिनाम्।। 24।।
प्रश्न-हेतुवाचक ‘तस्मात्’ पद का प्रयोग करके यहाँ उच्चारण करके ही आरम्भ की जाती है-यह कहने का क्या वेदवादियों की शाó विहित यज्ञादि क्रियाएं सदा सदा आंेंकार का अभिप्राय है?
उत्तर-इससे भगवान् ने प्रधानतया नाम की महिमा दिखलायी है। उनका यहाँ यह भाव है कि जिस परमेश्वर से इन यज्ञादि कर्मों की उत्पत्ति हुई है, उसका नाम होने के कारण आंेकार से उच्चारण से समस्त कर्मों का अंगवैगुण्य दूर हो जाता है तथा वे पवित्र और कल्याण प्रदा हो जाते हैं। यह भगवान् के नाम की अपार महिमा है।
तदितयनभिसंधाय फलं यज्ञतपःक्रियाः।
दानक्रियाश्व विविधाः क्रियन्ते मोक्षकाड.क्षिभिः।। 25।।
प्रश्न-‘इति’ के सहित ‘तत्’ पद का यहाँ क्या अभिप्राय है?
उत्तर-‘तत्’ पद परमेश्वर का नाम है। उसके स्मरण का उद्देश्य समझाने के लिये यहाँ ‘इति’ के सहित उसका प्रयोग किया गया है। अभिप्राय यह है कि कल्याण की मनुष्य प्रत्येक क्रिया करते समय भगवान् के ‘तत्’ इस नाम का स्मरण करते हुए, जिस परमेश्वर से इस समस्त जगत की उत्पत्ति हुई है उसी का सब कुछ है और उसी की वस्तुओं से उसकी आज्ञानुसार उसी के लिये मेरे द्वारा यज्ञादि क्रिया की जाती है अतः मैं केवल निमित्त मात्र हूँ। इस भाव से अहंता-ममता का सर्वथा त्याग कर देते हैं।
प्रश्न-मोक्ष को चाहने वाले साधकों द्वारा किये जाने वाले कर्म फल को न चाहकर किये जाते हैं, इस कथन का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-यह कहकर भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि जो विहित कर्म करने वाले साधारण वेदवादी हैं, वे फल की इच्छा या अहंता-ममता का त्याग नहीं करते, किन्तु जो कल्याण का भी मनुष्य है, जिनको परमेश्वर की प्राप्ति के सिवा अन्य किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं है वे समस्त कर्म अहंता, ममता, आसक्ति और फल कामना का सर्वथा त्याग करके केवल परमेश्वर के ही लिये उनकी आज्ञानुसार किया करते हंैं।
स˜ावे साधुभावे च सदित्येतत्प्रयुज्यते।
प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः पार्थ युज्यते।। 26।।
प्रश्न-‘स˜ाव’ यहाँ किसका वाचक है। उसमें परमात्मा के सत् नाम का प्रयोग क्यों किया जाता है?
उत्तर-‘स˜ाव’ नित्य भाव का अर्थात् जिसका अस्तित्व सदा रहता है उस अविनाशी तत्त्व का वाचक है और वही परमेश्वर का स्वरूप है। इसलिये उसे ‘सत्’ नाम से कहा जाता है।
प्रश्न-‘साधुभाव’ किस भाव का वाचक है और उसमें परमात्मा के ‘सत्’ नाम का प्रयोग क्यों किया जाता है?
उत्तर-अन्तःकरण का जो शुद्ध और श्रेष्ठभाव है, उसका वाचक यहाँ साधु भाव है। वह परमेश्वर की प्राप्ति का हेतु है इसलिये उसमें परमेश्वर के ‘सत्’ नाम का प्रयोग किया जाता है अर्थात् उसे ‘सद्भाव’ कहा जाता है।
प्रश्न-‘प्रशस्त कर्म’ कौन-सा कर्म है और उसमें ‘सत्’ शब्द का प्रयोग क्यों किया जाता है।
उत्तर-जो शाó विहित करने योग्य शुभ कर्म है, वही प्रशस्त श्रेष्ठ कर्म है और वह निष्काम भाव से किये जाने पर परमात्मा की प्राप्ति का हेतु है इसलिये उसमें परमात्मा के ‘सत्’ नाम का प्रयोग किया जाता है।
यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः सदिति चोच्यते।
कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते।। 27।।
प्रश्न-यज्ञ, तप और दान से यहाँ कौन-से यज्ञ, तप और दान का ग्रहण है तथा ‘स्थिति’ शब्द किस भाव का वाचक है और वह सत् है, यह कहने का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-यज्ञ, तप और दान से यहाँ सात्त्विक यज्ञ, तप और दान का निर्देश किया गया है तथा उनमें जो श्रद्धा और प्रेमपूर्वक आस्तिक बुद्धि है, जिसे निष्ठा भी कहते हैं, उसका वाचक यहाँ स्थिति शब्द है ऐसी स्थिति परमेश्वर की प्राप्ति में हेतु है, इसलिये उसे ‘सत्’ कहते हैं।
प्रश्न-‘तद्र्थीयम्’ विशेषा के सहित ‘कर्म’ पद किस कर्म का वाचक है और उसे ‘सत्’ कहने का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-जो कोई भी कर्म केवल भगवान् की आज्ञानुसार उन्हीं के लिये किया जाता है जिसमें कर्ता का जरा भी स्वार्थ नहीं रहता उसका वाचक यहाँ ‘तदर्थीयम्’ विशेषण के सहित कर्म पद है। ऐसा कर्म कर्ता के अन्तःकरण को शुद्ध बनाकर उसे परमेश्वर की प्राप्ति करा देता है, इसलिये उसे ‘सत्’ कहते हैं।
प्रश्न-‘एव’ का प्रयोग करके क्या भाव दिखलाया गया है?
उत्तर-‘एव’ का प्रयोग करके यह भाव दिखलाया गया है कि ऐसा कर्म ‘सत्’ है इसमें तनिक भी संशय नहीं है।
अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत्।
असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह।। 28।।
प्रश्न-बिना श्रद्धा के किये हवन, दान और तप को तथा दूसरे समस्त शास्त्र विहित कर्मों को ‘असत्’ कहने का यहाँ क्या अभिप्राय है ओैर वे इस लोक और परलोक में लाभप्रद नहीं हैं, इस कथन का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-हवन, दान और तप तथा अन्यान्य शुभ कर्म श्रद्धापूर्वक किये जाने पर ही अन्तःकरण की शुद्धि में और इस लोक या परलोक के फल देने में समर्थ होते हैं। बिना श्रद्धा के किये हुए शुभ कर्म व्यर्थ हैं, इसी से उनको ‘असत्’ कहा है।
प्रश्न-‘यत्’ के सहित ‘कृतम्’ पद का अर्थ यदि निषिद्ध कर्म भी मान लिया जाय तो क्या हानि है?
उत्तर-निषिद्ध कर्मों के करने में श्रद्धा की आवश्यकता नहीं है और उनका फल भी श्रद्धा पर निर्भर नहीं है। उनको करते भी वे ही मनुष्य हैं जिनकी शास्त्र, महापुरुष और ईश्वर में पूर्ण श्रद्धा नहीं होती तथा पाप कर्मों का फल मिलने का जिनको विश्वास नहीं होता तथापि उनका दुःखरूप फल उन्हें अवश्य ही मिलता है। अतएव यहाँ ‘यत्कृतम्’ से पाप-कर्मों का ग्रहण नहीं है। इसके सिवा यज्ञ, दान और तप रूप शुभ क्रियाओं के साथ-साथ आये हुए ‘यत्कृतम्’ पद उसी जाति की क्रिया के वाचक हो सकते हैं। अतः जो यह बात कही गयी है कि वे कर्म इस लोक या परलोक में कहीं भी लाभप्रद नहीं होते-सो यह कहना भी पाप कर्मों के उपयुक्त नहीं होता, क्योंकि वे सर्वथा दुःख के हेतु होने के कारण उनके लाभप्रद होने की कोई सम्भावना ही नहीं है। अतएव यहाँ बिना श्रद्धा के किये हुए कर्मों का ही प्रसंग है, अशुभ कर्मों का नहीं।-क्रमशः (हिफी)