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दान के लिए अपात्र व अयोग्य

धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे (सत्तरहवां अध्याय-08)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)

रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके।-प्रधान सम्पादक

यत्तु प्रत्युपकारार्थ फलमुद्दिश्य वा पुनः।
दीयते च परिकिल्कष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम्।। 21।।
प्रश्न-‘तु’ का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-यहाँ ‘तु’ का प्रयोग सात्त्विक दान से राजस दान का भेद दिखलाने के लिए किया गया है।
प्रश्न-क्लेशपूर्वक दान देना क्या है?
उत्तर-किसी के धरना देने, हठ करने या भय दिखलाने अथवा प्रतिष्ठित और प्रभावशाली पुरुषों के कुछ दबाव डालने पर बिना ही इच्छा के मन में विषाद और दुःख का अनुभव करते हुये निरुपाय होकर जो दान दिया जाता है, वह क्लेश पूर्वक दान देना है।
प्रश्न-प्रत्युपकार के लिए देना क्या है?
उत्तर-जो मनुष्य बराबर अपने काम में आता है या आगे चलकर जिससे अपना कोई छोटा या बड़ा काम निकालने की सम्भावना या आशा है, ऐसे व्यक्ति को दान देना वस्तुतः सच्चा दान नहीं है, वह तो बदला पाने के लिये दिया हुआ बयाना सा है। जिस प्रकार आजकल सोमवती अमावास्या जैसे पर्वों पर अथवा अन्य किसी निमित्त से दान का संकल्प करके ऐसे ब्राह्मणों को दिया जाता है, जो अपने या अपने सगे-सम्बन्धी
अथवा मित्रों के काम में आते हैं तथा जिनसे भविष्य में काम करवाने की आशा है या ऐसेी संस्थाओं को या संस्थाओं के संचालकों को दिया
जाता है जिनसे बदले में कई तरह
के स्वार्थ-साधन की सम्भावना होती है-यही प्रत्युपकार के उद्देश्य से दान देना है।
प्रश्न-फल के उद्देश्य से दान देना क्या है?
उत्तर-मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा और स्वर्गादि इस लोक और परलोक के भोगों की प्राप्ति के लिये या रोग आदि की निवृत्ति के लिये जो किसी वस्तु का दान किसी व्यक्ति या संस्था को दिया जाता हे, वह फल के उद्देश्य से दान देना है। कुछ लोग तो एक ही दान से एक ही साथ कई लाभ उठाना चाहते हैं। जैसे-
(क) जिसको दान दिया गया है, वह उपकार मानेगा और समय पर अच्छे-बुरे कामों में अपना पक्ष लेगा।
(ख) ख्याति होगी, जिससे प्रतिष्ठा बढ़ेगी और सम्मान मिलेगा।
(ग) अखबारों में नाम छपने से लोग बहुत धनी आदमी समझेंगे और इससे व्यापार में भी कई तरह की सहूलियतें होंगी और अधिक-से-अधिक धन कमाया जा सकेगा।
(घ) अच्छी प्रसिद्धि होने से लड़के-लड़कियों के सम्बन्ध भी बड़े घराने में हो सकें, जिनसे कई तरह के स्वार्थ सधेंगे।
(ड) शाó के अनुसार परलोक में दान का कई गुना उत्तम फल तो प्राप्त होगा ही।
इस प्रकार की भावनाओं से मनुष्य दान के महत्त्व को बहुत ही कम कर देते हैं।
प्रश्न-‘वा’, ‘पुनः’ और ‘च’ इन तीनों अव्ययों के प्रयोग का क्या भाव है?
उत्तर-इन तीनों के प्रयोग से यहाँ यह भाव दिखलाया गया है कि उपर्युक्त तीनों प्रकारों में से किसी भी एक प्रकार से दिया हुआ दान राजस हो जाता है।
अदेशकाले यद्दानमपात्रेम्यश्व दीयते।
असत्कृतवज्ञातं तत्तामसमुदाहृतम्।। 22।।
प्रश्न-बिना सत्कार किये दिये जाने वाले दान का क्या स्वरूप है?
उत्तर-दान लेने के लिये आये हुए अधिकारी पुरुष का आदर न करके अर्थात् यथायोग्य अभिवादन, कुशल प्रश्न, प्रिय भाषण और आसन आदि द्वारा सम्मान न करके जो रूखाई से दान दिया जाता है-वह बिना सत्कार के दिया जाने वाला दान है।
प्रश्न-तिरस्कारपूर्वक दिया जाने वाला दान कौन सा है?
उत्तर-पाँच बात सुनाकर, कड़वा बोलकर, धमकाकर, फिर न आने की कड़ी हिदायत देकर, दिल्लगी उड़ाकर अथवा अन्य किसी भी प्रकार से वचन, शरीर या संकेत के द्वारा अपमानित करके जो दान दिया जाता है वह तिरस्कार पूर्वक दिया जाने वाला दान है।
प्रश्न-दान के लिए अयोग्य देश-काल कौन से हैं और उनमें दिया हुआ दान तामस क्यों है?
उत्तर-जो देश और काल दान के लिये उपयुक्त नहीं हैं अर्थात् जिस देश-काल में दान देना आवश्यक नहीं है अथवा जहाँ दान देना शाó में निषेध किया है (जैसे म्लेच्छांे के देश में गौ का दान देना, ग्रहण के समय कन्या दान देना आदि) वे देश और काल दान के लिये अयोग्य है और उनमें दिया हुआ दान दाता को नरक का भागी बनाता है। इसलिये वह तामस है।
प्रश्न-दान के लिए अपात्र कौन हैं और उनको दान देना तामस क्यों है?
उत्तर-जिन मनुष्यों को दान देने की आवश्यकता नहीं है तथा जिनको दान देने का शाó मंे निषेद्य है (जैसे धर्मध्वजी, पाखण्डी, कपट वेषधारी, हिंसा करने वाला, दूसरों की निन्दा करने वाला, दूसरों की जीविका छेदन करके अपने स्वार्थ साधन में तत्पर, बनावटी विनय दिखाने वाला मद्य-मांस आदि अभक्ष्य वस्तुओं को भक्षण करने वाला, चोरी, व्यभिचार आदि नीच, कर्म करने वाला, ठग, जुआरी और नास्तिक आदि) वे सब दान के लिये अपात्र हैं तथा उनको दिया हुआ दान व्यर्थ और दाता को नरक में ले जाने वाला होता है, इसलिये वह तामस है। यहाँ भूखे, प्यासे, नंगे और रोगी आर्त मनुष्यों
को अन्न, जल, वस्त्र और औषधि आदि देने का कोई निषेध नहीं समझना चाहिये।
ऊँ तत्सदिति निर्देशो ब्रह्माóिविधः स्मृतः।
ब्राह्मणास्तेन वेदाश्व यज्ञाश्व विहिताः पुरा।। 23।।
प्रश्न-ब्रह्म अर्थात् सर्वशक्तिमान् परमेश्वर के बहुत से नाम है, फिर यहाँ केवल तीन ही नामों का वर्णन क्यों किया गया?
उत्तर-परमात्मा के ‘ऊँ’ ‘तत्’ और ‘सत्’ ये तीनों नाम वेदों में प्रधान माने गये हैं तथा यज्ञ, तप, दान आदि शुभ कर्मों से इन नामों का विशेष सम्बन्ध है। इसलिये यहाँ इन तीन नामों का ही वर्णन किया गया है।
प्रश्न-‘तेन’ पद से यहाँ उपर्युक्त तीनों नामों का ग्रहण है या जिस परमेश्वर के ये तीनों नाम हैं उसका?
उत्तर-जिस परमात्मा के ये तीनों नाम हैं उसी का वाचक यहाँ ‘तेन’ पद है।-क्रमशः (हिफी)

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