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लोक संग्रहार्थ प्रारब्धानुसार कर्म किये जाते हैं

धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे (अट्ठारहवां अध्याय-07)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)

रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके।-प्रधान सम्पादक

प्रश्न-‘सः’ के साथ ‘दुर्गतिः’ विशेषण देकर यह कहने का क्या अभिप्राय है कि वह यथार्थ नहीं समझता?
उत्तर-उपर्युक्त प्रकार से आत्मा को कर्ता समझने वाले मनुष्य की बुद्धि दूषित है उसमें आत्मस्वरूप को यथार्थ समझने की शक्ति नहीं है यह भाव दिखलाने के लिये यहाँ दुर्मतिः विशेषण का प्रयोग किया गया है तथा वह यथार्थ नहीं जानता-इस कथन से यह भाव दिखलाया है कि जो तेरहवें अध्याय के उन्नीतसवें श्लोक के कथनानुसार समस्त कर्मों को प्रकृति का ही खेल समझता है और आत्मा को सर्वथा अकर्ता समझता है, वही यथार्थ समझता है उससे विपरीत आत्मा को कर्ता समझने वाला मनुष्य अज्ञान और अहंकार से मोहित है, इसलिये उसका समझना ठीक नहीं है-गलत है।
प्रश्न-चैदहवें श्लोक में कर्मों के बनने में जो पाँच हेतु बतलाये गये हैं-उनमें अधिष्ठानादि चार हेतु तो प्रकृति जनित ही हैं, परन्तु ‘कर्ता’ रूप पाँचवाँ हेतु ‘प्रकृतिस्थ’ पुरुष को माना गया है और यहाँ यह बात कही जाती है कि आत्मा कर्ता नहीं है, संगरहित है। इसका क्या अभिप्राय है?
उत्तर-इस विषय में यह समझना चाहिये कि वास्तव में आत्मा नित्य, शुद्ध, बुद्ध, निर्विकार और सर्वथा असंग है प्रकृति से, प्रकृति जनित पदार्थों से या कर्मों से उसका कुछ भी सम्बन्ध नहीं है। किन्तु अनादि सिद्ध अविद्या के कारण असंग आत्मा का ही इस प्रकृति के साथ सम्बन्ध-सा हो रहा है अतः वह प्रकृति द्वारा सम्पादित क्रियाओं में मिथ्या अभिमान करके स्वयं उन कर्मों का कर्ता बन जाता है। इस प्रकार कर्ता बने हुए पुरुष का नाम ही ‘प्रकृतिस्थ पुरुष’ है वह उन प्रकृति द्वारा सम्पन्न हुई क्रियाओं का कर्ता बनना है तभी उनकी ‘कर्म’ संज्ञा होती है और वे कर्म फल देने वाले बन जाते हैं। इसीलिये उस प्रकृतिस्थ पुरुष को अच्छी-बुरी योनियों में जन्म धारण करके उन कर्मों का फल भोगना पड़ता है। इसलिये चैदहवें श्लोक में कर्मों की सिद्धि के पाँच हेतुओं में एक हेतु जो ‘कर्ता’ माना गया है वह प्रकृति में स्थित पुरुष है और यहाँ आत्मा के केवल यानी संग रहित, शुद्ध स्वरूप का वर्णन है, अतः उसको अकर्ता बतलाकर उसके यथार्थ स्वरूप का लक्षण किया गया है। जो आत्मा के यथार्थ स्वरूप को समझ लेता है, उसके कर्मों में ‘कर्ता’ रूप पाँचवाँ हेतु नहीं रहता। इसी कारण उसके कर्माें की कर्म संज्ञा नहीं रहती। यही बात अगले श्लोक में समझायी गयी है।
यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते।
हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते।। 17।।
प्रश्न-यहाँ ‘यस्य‘ पद किसका वाचक है तथा मैं कर्ता हूँ-इस भाव का न होना क्या है?
उत्तर-यहाँ ‘यस्य’ पद समस्त कर्मों को प्रकृति का खेल समझने वाले साख्य योगी का वाचक है। ऐसे पुरुष में जो देहाभिमान न रहने के कारण कर्तापन का सर्वथा अभाव हो जाना है। यानी मन, इन्द्रियों और शरीर द्वारा की जाने वाली समस्त क्रियाओं में अमुक कर्म मैंने किया है यह मेरा कर्तव्य है, इस प्रकार के भाव का लेश मात्र भी न रहना है-यही मैं कर्ता हूँ इस भाव का न होना है।
प्रश्न-बुद्धि का लिपायमान न होना क्या है?
उत्तर-कर्मों में और उनके फलरूप स्त्री, पुत्र, धन, मकान, मान, बड़ाई, स्वर्ग सुख आदि इस लोक और परलोक के समस्त पदार्थों में ममता, आसक्ति और कामना का अभाव हो जाना किसी भी कर्म से या उसके फल से अपना किसी प्रकार का भी सम्बन्ध न समझना तथा उन सबको स्वप्न के कर्म और भोगों की भाँति क्षणिक, नाशवान् और कल्पित समझ लेने के कारण अन्तःकरण में उनके संस्कारों का संगृहीत न होना यही बुद्धि का लिपायमान न होना है।
प्रश्न-वह पुरुष इस सब लोकों को मारकर भी वास्तव में न तो मारता है और न पाप से बँधता है, इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-इससे यह भाव दिखलाया गया है कि उपर्युक्त प्रकार से आत्म स्वरूप को भलीभाँति जान लेने के कारण जिसका अज्ञान जनित अहंभाव सर्वथा नष्ट हो गया है। मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ और शरीर में अहंता-ममता का सर्वथा अभाव हो जाने के कारण उनके द्वारा होने वाले कर्मों से या उनके फल से जिसका किंचित मात्र भी सम्बन्ध नहीं रहा है। उस पुरुष मन, बुद्धि और इन्द्रियों द्वारा जो लोक संग्रहार्थ प्रारब्धानुसार कर्म किये जाते हैं वे सब शाóानुकूल और सबका हित करने वाले ही होते हैं। क्योंकि अहंता, ममता, आसक्ति और स्वार्थ बुद्धि का अभाव हो जाने के बाद पाप कर्मों के आचरण का कोई कारण नहीं रह जाता। अतः जैसे अग्नि, वायु और जल आदि के द्वारा प्रारब्ध वश किसी प्राणी की मृत्यु हो जाय तो वे अग्नि, वायु आदि न तो वास्तव में उस प्राणी को मारने वाले हैं और न वे उस कर्म में बँधते ही हैं। उसी प्रकार उपर्युक्त महापुरुष लोकदृष्टि से स्वधर्म पालन करते समय यज्ञ, दान और तप आदि शुभ कर्मों को करके उनका कर्ता नहीं बनता और उनके फल से नहीं बँधता, इसमें तो कहना ही क्या है। किन्तु क्षात्र धर्म जैसे किसी कारण से योग्यता प्राप्त हो जाने पर समस्त प्राणियों का संहार रूप क्रूर कर्म करके भी उसका वह कर्ता नहीं बनता और उसके फल से भी नहीं बँधता। अर्थात् लोकदृष्टि से समस्त कर्म करता हुआ भी वह उन कर्मों से सर्वथा बन्धन रहित ही रहता है।
अभिप्राय यह है कि जैसे भगवान् सम्पूर्ण जगत की उत्पत्ति, पालन और संहार आदि कार्य करते हुए भी वास्तव में उनके कर्ता नहीं हैं। और उन कर्मों से उनका कोई सम्बन्ध नहीं है। उसी प्रकार सांख्य योगी का भी उसके मन, बुद्धि और इन्द्रियों द्वारा होने वाले समस्त कर्मों से कुछ भी सम्बन्ध नहीं रहता। यह बात अवश्य है कि उसका अन्तःकरण अत्यन्त शुद्ध तथा अहंता, ममता, आसक्ति और स्वार्थ बुद्धि से रहित हो जाने के कारण उसके मन, बुद्धि और इन्द्रियों द्वारा राग-द्वेष और अज्ञानमूलक चोरी, व्यभिचार, मिथ्याभाषण, हिंसा, कपट, दम्भ आदि पाप कर्म नहीं होते उसकी समस्त क्रियाएँ वर्णाश्रम और परिस्थिति के अनुसार शाóानुकूल ही हुआ करती हैं इसमें भी उसे किसी प्रकार का प्रयत्न नहीं करना पड़ता, उसका स्वभाव ही ऐसा बन जाता है।-क्रमशः (हिफी)

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