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भयभीत अर्जुन के सवालों का कृष्ण ने दिया जवाब

धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे (ग्यारहवां अध्याय-11)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)

रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक

लेलिह्यसे ग्रसमानः समन्ताल्लोकान्सम ग्रान्वदनेज्र्वल˜।
तेजोभिरापूर्य जगत्समग्रं भासस्तवोग्राः प्रतपन्ति विष्णो।। 30।।
प्रश्न-इस श्लोक का क्या भाव है?
उत्तर-भगवान् के महान उग्र रूप को देखकर यहाँ भयभीत अर्जुन उस अत्यन्त भयानक रूप का वर्णन करते हुए कह रहे हैं कि जिनसे अग्नि की भयानक लपटें निकल रही हैं अपने उन विकराल मुखों से आप समस्त लोकों को निगल रहे हैं और इतने पर भी अतृप्तभाव से बार-बार अपनी जीभ लपलपा रहे हैं तथा आपके अत्यन्त उग्र प्रकाश के भयानक तेज से सारा जगत अत्यन्त सन्तप्त हो रहा है।
आख्याहि मे को भवानुग्ररूपो नमोऽस्तु ते देववर प्रसीद।
विज्ञातुमिच्छामि भवन्तमाद्यं न हि प्रजानामि तव प्रवृत्तिम्।। 31।।
प्रश्न-अर्जुन यह तो जानते ही थे कि भगवान् श्रीकृष्ण ही अपने योग-शक्ति से मुझे यह अपना विश्वरूप दिखला रहे हैं फिर उन्होंने यह कैसे पूछा कि आप उग्र रूपधारी कौन हैं?
उत्तर-अर्जुन इतना तो जानते थे कि यह उग्र रूप श्रीकृष्ण का ही है परन्तु इस भयंकर रूप को देखकर उनके मन में यह जानने की इच्छा हो गयी कि ये श्रीकृष्ण वस्तुतः हैं कौन, जो इस प्रकार का भयंकर रूप भी धारण कर सकते हैं। इसीलिये उन्होंने यह भी कहा है कि आप आदि पुरुष को मैं विशेष रूप से जानना चाहता हूँ।
प्रश्न-‘देवधर’ सम्बोधन देकर भगवान् को नमस्कार करने का और प्रसन्न होने के लिये कहने का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-जो देवताओं में सर्वश्रेष्ठ हो उसे ‘देवधर’ कहते हैं। अतः भगवान् को ‘देवधर’ नाम से सम्बोधित करके अर्जुन उनके ईश्वरत्व को व्यक्त करके उनके नमस्कार कर रहे हैं तथा उनके भयानक रूप को देखकर अर्जुन भयभीत हो गये थे। अतः उनसे प्रसन्न होने की प्रार्थना कर रहे हैं।
प्रश्न-आपकी प्रवृत्ति को मैं नहीं जानता, इस कथन का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-इससे अर्जुन ने यह भाव दिखलाया है कि यह इतना भयंकर रूप जिसमें कौरव पक्ष के और हमारे प्रायः सभी योद्धा प्रत्यक्ष नष्ट होते दिखलायी दे रहे हैं-आप मुझे किसलिये दिखला रहे हैं तथा अब निकट भविष्य में आप क्या करना चाहते हैं-इस रहस्य को मैं नहीं जानता। अतएव अब आप कृपा करके इसी रहस्य को खोलकर बतलाइये।
कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो लोकान् समाहर्तुमिह प्रवृतः।
ऋतेऽपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे येऽवस्थिताः प्रत्यीकेषु योधाः।। 32।।
प्रश्न-मैं लोकों का नाश करने वाला बढ़ा हुआ काल हूँ, इस कथन का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-इस कथन से भगवान् ने अर्जुन के पहले प्रश्न का उत्तर दिया है, जिसमें अर्जुन ने यह जानना चाहा था कि आप कौन हैं। भगवान् के कथन का अभिप्राय यह है कि मैं सम्पूर्ण जगत् का सृजन, पालन और संहार करने वाला साक्षात् परमेश्वर हूँ। अतएव इस समय मुझको तुम इन सबका संहार करने वाला साक्षात् काल समझो।
प्रश्न-इस समय मैं इन लोकों को नष्ट करने के लिये प्रवृत्त हुआ हूँ, इस कथन का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-इस कथन से भगवान् ने अर्जुन के उस प्रश्न का उत्तर दिया है, जिसमें अर्जुन ने यह कहा था कि मैं आपकी प्रवृत्ति को नहीं जानता। भगवान् के कथन का अभिप्राय यह है कि इस समय मेरी सारी चेष्टाएँ इन सब लोगों का नाश करने के लिये ही हो रही हैं, यही बात समझाने के लिये मैंने इस विराट रूप के अंदर तुझको सबके नाश का भयंकर दृष्य दिखलाया है।
प्रश्न-जो प्रतिपक्षियों की सेना में उपस्थित योद्धा लोग हैं, वे तेरे बिना भी नहीं रहेंगे, इस कथन का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-इस कथन से भगवान् ने यह दिखलाया है कि गुरु, ताऊ, चाचे, मामे और भाई आदि आत्मीय स्वजनों को युद्ध के लिये तैयार देखकर तुम्हारे मन में जो कायरता का भाव आ गया है और उसके कारण तुम जो युद्ध से हटना चाहते हो यह उचित नहीं है क्योंकि यदि तुम मोह करके इनको न भी मारोगे तब भी ये बचेंगे नहीं। इनका तो मरण ही निश्चित है। जब मैं स्वयं इनका नाश करने के लिये प्रवृत्त हूँ, तब ऐसा कोई भी उपाय नहीं है जिससे इनकी रक्षा हो सके। इसलिये तुमको युद्ध में हटना नहीं चाहिये तुम्हारे लिये तो मेरी आज्ञा के अनुसार युद्ध में प्रवृत्त होना ही हितकर है।
प्रश्न-अर्जुन ने तो भगवान् के विराट रूप में अपने और शत्रु पक्ष के सभी योद्धाओं को मरते देखा था फिर भगवान् ने यहाँ केवल कौरव पक्ष के योद्धाओं की बात कैसे कही?
उत्तर-अपने पक्ष के योद्धागणों का अर्जुन के द्वारा मारा जाना
सम्भव नहीं है, अतएव ‘तुम न मारोगे तो भी वे तो मरेंगे ही’ ऐसा कथन उनके लिये नहीं बन सकता।
इसीलिये भगवान् ने यहाँ केवल कौरव पक्ष के वीरों के विषय में कहा है। इसके सिवा अर्जुन को उत्साहित
करने के लिये भगवान् के द्वारा
ऐसा कहा जाना युक्ति संगत है। भगवान् मानो यह समझा रहे हैं कि शत्रुपक्ष के जितने भी योद्धा हैं वे सब एक तरह से मरे ही हुए हैं, उन्हें मारने में तुम्हें कोई परिश्रम नहीं करना पड़ेगा।
तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून भुड्.क्ष्व राज्यं समृद्धम्।
मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्।। 33।।
प्रश्न-यहाँ ‘तस्मात्’ पद के सहित -उत्तिष्ठ’ क्रिया का प्रयोग करके क्या भाव दिखलाया गया है?
उत्तर-‘तस्मात्’ के साथ ‘उतिष्ठ’ क्रिया का प्रयोग करके भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि जब तुम्हारे युद्ध न करने पर भी ये सब नहीं बचेंगे, निःसन्देह मरेंगे ही, तब तुम्हारे लिये युद्ध करना ही सब प्रकार से लाभप्रद है। अतएव तुम किसी प्रकार से भी युद्ध से हटो मत, उत्साह के साथ खड़े हो जाओ।-क्रमशः (हिफी)

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