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कृष्ण ने अर्जुन को त्याग समझाया

धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे (अट्ठारहवां अध्याय-02)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)

रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके।-प्रधान सम्पादक

त्याज्यं दोषवदित्येके कर्म प्राहुर्मनीषिणः।
यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यमिति चापरे।। 3।।
प्रश्न-कई एक विद्वान कहते हैं कि कर्म मात्र दोष युक्त हैं, इसलिये त्यागने के योग्य हैं-इस वाक्य का क्या भाव है?
उत्तर-इस वाक्य से यह भाव दिखलाया गया है कि आरम्भ (क्रिया) मात्र में ही कुछ-न-कुछ पाप का सम्बन्ध हो जाता है, अतः विहित कर्म भी सर्वथा निर्दोष नहीं हैं। इसी भाव को लेकर भगवान् ने भी आगे चलकर कहा है ‘सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः’ आरम्भ किये जाने वाले सभी कर्म धूएं से अग्नि के समान दोष से युक्त होते हैं। इसलिये कितने ही विद्वानों का कहना है कि कल्याण चाहने वाले मनुष्य को नित्य, नैमित्तिक और काम्य आदि सभी कर्मों का स्वरूप से त्याग कर देना चाहिये अर्थात् संन्यास आश्रम ग्रहण कर लेना चाहिये।
प्रश्न-दूसरे विद्वान यह कहते हैं कि यज्ञ, दान और तप रूप कर्म त्यागने योग्य नहीं है-इस वाक्य का क्या तात्पर्य है?
उत्तर-इससे यह भाव दिखलाया गया है कि बहुत से विद्वानों के मत में यज्ञ, दान और तपरूप कर्म वास्तव में दोष युक्त नहीं हैं। वे मानते हैं कि उन कर्मों के निमित्त किये जाने वाले आरम्भ में जिन अवश्यम्भावी हिंसादि पापों का होना देखा जाता है, वे वास्तव में पाप नहीं हैं, बल्कि शाóों के द्वारा विहित होने के कारण यज्ञ, दान और तप रूप कर्म उलटे मनुष्य को पवित्र करने वाले हैं। इसलिये कल्याण चाहने वाले मनुष्य को निषिद्ध कर्मों का ही त्याग करना चाहिये, शाó विहित कर्तव्य कर्मों का त्याग नहीं करना चाहिये।
निश्चयं श्रृणु मे मत्र त्यागे भरतसत्तम।
त्यागो हि पुरुषव्याघ्र त्रिविधः संप्रकीर्तितः।। 4।।
प्रश्न-यहाँ ‘भरत सत्तम’ और ‘पुरुष व्याघ्र’ इन दोनों विशेषणों का क्या भाव है?
उत्तर-जो भरत वंशियों में अत्यन्त श्रेष्ठ हो, उसे भरत सत्तम कहते हैं और जो पुरुषों में सिंह के समान वीर हो, उसे पुरुष व्याघ्र कहते हैं। इन दोनों सम्बोधनों का प्रयोग करके भगवान् यह भाव दिखला रहे हैं कि तुम भरतवंशियों में उत्तम और वीर पुरुष हो, अतः आगे बतलाये जाने वाले तीन प्रकार के त्यागों में से तामस और राजस त्याग न करके सात्त्विक त्याग रूप कर्म योग का अनुष्ठान करने में समर्थ हो।
प्रश्न-‘तत्र’ शब्द का क्या अर्थ है और उसके प्रयोग का यहाँ क्या भाव है?
उत्तर-‘तत्र’ का अर्थ है उपर्युक्त दोनों विषयों में अर्थात् ‘त्याग’ और ‘संन्यास’ में। इसके प्रयोग का यहाँ यह भाव है कि अर्जुन ने भगवान् से संन्सास और त्याग इन दोनों का तत्त्व बतलाने के लिये प्रार्थना की थी, उन दोनों में से यहाँ पहले भगवान् केवल त्याग का तत्त्व समझाना आरम्भ करते हैं। अर्जुन ने दोनों तत्त्व अलग-अलग बतलाने के लिये कहा था और भगवान् ने उसका कोई प्रतिपादन न करके त्याग का ही विषय बतलाने का संकेत किया है, इससे यही बात मालूम होती है कि ‘संन्यास’ का प्रकरण भगवान् आगे कहेंगे।
प्रश्न-त्याग के विषय में तू मेरा निश्चय सुन, इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-इससे भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि तुमने जिन दो बातों को जानने की इच्छा प्रकट की थी, उनके विषय में अब तक मैंने दूसरों के मत बतलाये। अब मैं तुम्हें अपने मत के अनुसार उन दोनों में से त्याग का तत्त्व भलीभाँति बतलाना आरम्भ करता हूँ, अतएव तुम सावधान होकर उसे सुनो।
प्रश्न-त्याग (सात्त्विक, राजस और तामस-भेद से) तीन प्रकार का बतलाया गया है, इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-इससे भगवान् ने शाóों को आदर देने के लिये अपने मत को शाó सम्मत बतलाया है। अभिप्राय यह है कि शाóों में त्याग के तीन भेद माने गये हैं, उनको मैं तुम्हें भलीभाँति बतलाऊँगा।
यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत्।
यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम्।। 5।।
प्रश्न-यज्ञ, दान और तप रूप कर्म त्यागने के योग्य नहीं है, बल्कि यह अवश्य कर्तव्य है-इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-इस कथन से भगवान् ने शाó विहित कर्मों की अवश्यकर्तव्यता का प्रतिपादन किया है। अभिप्राय यह है कि शाóों में अपने-अपने वर्ण और आश्रम के अनुसार जिसके लिये कर्म का विधान है-जिसको जिस समय जिस प्रकार यज्ञ करने के लिये, दान देने के लिये और तप करने के लिये कहा गया है-उसे उसका त्याग नहीं करना चाहिये, यानी शाó-आज्ञा की अवहेलना नहीं करनी चाहिये, क्योंकि इस प्रकार त्याग से किसी प्रकार का लाभ होना तो दूर रहा, उलटा प्रत्यावाय होता है। इसलिये इन कर्मों का अनुष्ठान मनुष्य को अवश्य करना चाहिये। इनका अनुष्ठान किस भाव से करना चाहिये, यह बात अगले श्लोक में बतलायी गयी है।
प्रश्न-मनीषिणाम् पद किन मनुष्यों का वाचक है तथा यज्ञ, दान और तप ये सभी कर्म उनको पवित्र करने वाले हैं, इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-वर्णाश्रम के अनुसार जिसके लिये जो कर्म कर्तव्य रूप में बतलाये गये हैं, उन शाó विहित निष्काम भाव से भलीभाँति अनुष्ठान करने वाले बुद्धिमान मुमुक्षु पुरुषों का वाचक यहाँ मनीषिणाम् पद है। उनके द्वारा किये जाने वाले यज्ञ, दान और तप रूप सभी कर्म बन्धन कारक नहीं हैं बल्कि उनके अन्तःकरण को पवित्र करने वाले होते हैं अतएव मनुष्य को निष्काम भाव से यज्ञ, दान और तप रूप कर्मों का अनुष्ठान अवश्य करना चाहिये। यह भाव दिखलाने के लिये यहाँ यह बात कही गयी है कि यज्ञ, दान और तप रूप कर्म मनीषी पुरुषों को पवित्र करने वाले हैं।
एतान्यपि तु कर्माणि संग त्यक्त्वा फलानि च।
कर्तव्यानीति मे पार्थ निश्चितं मतमुत्तमम्।। 6।।
प्रश्न-‘एतानि’ पद किन कर्मों का वाचक है तथा यहाँ ‘तु’ और ‘अपि’-इन अव्यय पदों के प्रयोग का क्या भाव है?
उत्तर-‘एतानि’ पद यहाँ उपर्युक्त यज्ञ, दान और तप रूप कर्मों का वाचक है। उसके साथ ‘तु’ और ‘अपि’ इन दोनों अव्यय पदों का प्रयोग करके उनके सिवा माता-पितादि गुरुजनों की सेवा, वर्णाश्रमानुसार जीविका-निर्वाह के कर्म और शरीर सम्बन्धी खान-पान आदि जितने भी शास्ó विहित कर्तव्य कर्म हैं-उन सबका समाहार किया गया है।-क्रमशः (हिफी)

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