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चतुर्भुज के बाद मनुष्य रूप में हुए कृष्ण

धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे (ग्यारहवां अध्याय-19)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)

रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके।-प्रधान सम्पादक

इत्यर्जुनं वासुदेवस्तथोक्त्वा स्वकं रूपं दर्शयाभास भूयः।
आश्वासयामास च भीतमेनं भूत्वा पुनः सौम्यवपुर्महात्मा।। 50।।
प्रश्न-‘वासुदेवः’ पद का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-भगवान् श्रीकृष्ण महाराज वसुदेव जी के पुत्र रूप में प्रकट हुए हैं और आत्मरूप में सब में निवास करते हैं। इसलिये उनका नाम वासुदेव है।
प्रश्न-‘रूपम्’ के साथ ‘स्वकम्’ विशेषण लगाने का और ‘दर्शयामास’ क्रिया के प्रयोग का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-‘स्वकं रूपम्’ का अर्थ है अपना निजी रूप। वैसे तो विश्वरूप भी भगवान् श्रीकृष्ण का ही है और वह भी उनका स्वकीय ही है तथा भगवान् जिस मानुष रूप में सबके सामने प्रकट रहते थे-वह श्रीकृष्ण रूप भी उनका स्वकीय ही है, किन्तु यहाँ ‘रूपम्’ के साथ ‘स्वकम्’ विशेषण देने का अभिप्राय उक्त दोनों से भिन्न किसी तीसरे ही रूप का लक्ष्य कराने के लिये होना चाहिये। क्योंकि विश्वरूप तो अर्जुन के सामने प्रस्तुत था ही, उसे देखकर तो वे भयभीत हो रहे थे, अतएव उसे दिखलाने की तो यहाँ कल्पना भी नहीं की जा सकती और मानुष रूप के लिये यह कहने की आवश्यकता नहीं रहती कि उसे भगवान् ने दिखलाया (दर्शयामास) क्योंकि विश्वरूप को हटा लेने के बाद भगवान् जो स्वाभाविक मनुष्यावतार का रूप है, वह तो ज्यों-का-त्यों अर्जुन के सामने रहता ही उसमें दिखलाने की क्या बात थी उसे तो अर्जुन स्वयं ही देख लेते। अतएवं यहाँ ‘स्वकम्’ विशेष और ‘दर्शयामास’ क्रिया के प्रयोग से यही भाव प्रतीत होता है कि नरलीला के लिये प्रकट किये हुए सबके सम्मुख रहने वाले मानुष रूप से और अपनी योग शक्ति से प्रकट करके दिखलाये हुए विश्व रूप से भिन्न जो नित्य वैकुण्ठ धाम में निवास करने वाला भगवान् का दिव्य चतुर्भुज निजी रूप है-उसी को देखने के लिये अर्जुन ने प्रार्थना की थी और वही रूप भगवान् ने उनको दिखलाया।
प्रश्न-‘महात्मा’ पद का और ‘सौम्यवपुः’ होकर भयभीत अर्जुन को धीरज दिया, इस कथन का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-जिनका आत्मा अर्थात् स्वरूप महान् हो, उन्हें महात्मा कहते हैं। भगवान् श्रीकृष्ण सबके आत्मरूप हैं, इसलिये वे महात्मा हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि अर्जुन को अपने चतुर्भुज रूप का दर्शन कराने के पश्चात महात्मा श्रीकृष्ण ने, सौम्यवपुः’ अर्थात् परम शान्त श्याम सुन्दर मानुष रूप से युक्त होकर भय से व्याकुल हुए अर्जुन को धैर्य दिया।
दृष्टेदं मानुषं रूपं तव सौम्यं जनार्दन।
इदानीमस्मि संवृत्तः सचेताः प्रकृतिं गतः।। 51।।
प्रश्न-‘रूपम्’ के साथ ‘सौम्यम्’ और ‘मानुषम्’ विशेषण देने का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-भगवान् का जो मानुष रूप था वह बहुत ही मधुर, सुन्दर और शान्त था, तथा पिछले श्लोक में जो भगवान् के सौम्यवपु हो जाने की बात कही गयी है, वह भी मानुष रूप को लक्ष्य करके ही कही गयी है-इसी बात को स्पष्ट करने के लिये यहाँ ‘रूपम्’ के साथ ‘सौम्यम्’ और ‘मानुषम्’ इन दोनों विशेषणों का प्रयोग किया गया है।
प्रश्न-‘सचेताः संवृत्तः’ और ‘प्रकृति गतः’ का क्या भाव है?
उत्तर-भगवान् के विराट रूप को देखकर अर्जुन के मन में भय, व्यथा और मोह आदि विकार उत्पन्न हो गये थे। उन सबका अभाव इन पदों के प्रयोग से दिखलाया गया है। अभिप्राय यह है कि आपके इस श्याम सुन्दर मधुर मानुष रूप को देखकर अब मैं स्थिर चित्त हो गया हूँ अर्थात् मेरा मोह, भ्रम और भय दूर हो गया और मैं अपनी वास्तविक स्थिति को प्राप्त हो गया हूँ। अर्थात् भय और व्याकुलता एवं कम्प आदि जो अनेक प्रकार के विकार मेरे मन, इन्द्रिय और शरीर में उत्पन्न हो गये थे- उन सबके दूर हो जाने से अब मैं पूर्ववत् स्वस्थ हो गया हूँ।
सुदुर्दर्शमिदं रूपं दृष्टवानसि यन्मम।
देवा अप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शनकांडक्षिणः।। 52।।
प्रश्न-‘रूपम्’ के साथ ‘सुदुर्दर्शम्’ और ‘इदम्’ विशेषण देने का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-‘सुदुर्दर्शम्’ विशेषण देकर भगवान् ने अपने चतुर्भुज दिव्य रूप के दर्शन की दुर्लभता और उसकी महत्ता दिखलायी है तथा ‘इदम्’ पद निकटवर्ती वस्तु काउ निर्देश करने वाला होने से इसके द्वारा विश्व रूप के पश्चात दिखलाये जाने वाले चतुर्भुज रूप का संकेत किया गया है। अभिप्राय यह है कि मेरे जिस चतुर्भुज, मायातीत, दिव्य गुणों से युक्त नित्य रूप के तुमने दर्शन किये हैं, उस रूप के दर्शन बड़े ही दुर्लभ हैं, इसके दर्शन उसी को हो सकते हैं, जो मेरा अनन्य भक्त है और जिस पर मेरी कृपा का पूर्ण प्रकाश हो जाता है।
प्रश्न-देवता लोग भी सदा इस रूप का दर्शन करने की इच्छा रखते हैं, इस कथन का क्या अभिप्राय है? तथा इस वाक्य में ‘अपि’ पद के प्रयोग का क्या भाव है?
उत्तर-इस कथन से भी भगवान् ने अपने चतुर्भुज रूप के दर्शन की दुर्लभता और उसकी महत्ता ही प्रकट की है तथा ‘अपि’ पद के प्रयोग से यह भाव दिखलाया है कि जब देवता लोग भी सदा इसके देखने की इच्छा रखते हैं, किन्तु सब देख नहीं पाते तो फिर मनुष्यों की तो बात ही क्या है?
नाहं वेर्दर्न तपसा न दानेन न चेज्यया।।
शक्य एवंविधों द्रष्टुं दृष्टवानसि मां यथा। 53।।
प्रश्न-नवम अध्याय के सत्ताईसवें और अट्ठाइसवें श्लोकों में यह कहा गया है कि तुम जो कुछ यज्ञ करते हो, दान देते हो और तप करते हो-सब मेरे अर्पण कर दो ऐसा करने से तुम सब कर्मों से मुक्त हो जाओगे और मुझे प्राप्त हो जाओगे तथा सतरहवें अध्याय के पचीसवें श्लोक में यह बात कही गयी है कि मोक्ष की इच्छा वाले पुरुषों द्वारा यज्ञ, दान और तप रूप क्रियाएँ फल की इच्छा छोड़कर की जाती है इससे यह भाव निकलता है कि यज्ञ, दान और तप मुक्ति में और भगवान् की प्राप्ति में अवश्य ही हेतु हैं। किन्तु इस श्लोक में भगवान् ने यह बात कही है कि मेरे चतुर्भुज रूप के दर्शन न तो वेद के अध्ययनाध्यापन से ही हो सकते हैं और न तप, दान और यज्ञ से ही। अतएवं इस विरोध का समाधान क्या है?
उत्तर-इसमें कोई विरोध की बात नहीं है, क्योंकि कर्मों को भगवान् के अर्पण करना अनन्य भक्ति का एक अंग है। पचपनवें श्लोक में अनन्य भक्ति का वर्णन करते हुए भगवान् ने स्वयं ‘मत्कर्मकृत्’ (मेरे लिये कर्म करने वाला) पद का प्रयोग किया है और चैवनवें श्लोक में यह स्पष्ट घोषणा की है कि अनन्य भक्ति के द्वारा मेरे इस स्वरूप को देखना, जानना और प्राप्त करना सम्भव है। अतएवं यहाँ यह समझना चाहिये कि निष्कामभाव से भगवदर्थ और भगवदर्पण बुद्धि से किये हुए यज्ञ, दान और तप आदि कर्म भक्ति के अंग होने के कारण भगवान् की प्राप्ति में हेतु हैं-सकाम भाव से किये जाने पर नहीं। अभिप्राय यह है कि उपर्युक्त यज्ञादि क्रियाएँ भगवान् का दर्शन कराने में स्वभाव से समर्थ नहीं है। भगवान् के दर्शन तो प्रेमपूर्वक भगवान् के शरण होकर निष्काम भाव से कर्म करने पर भगवत् कृपा से ही होते हैं।-क्रमशः (हिफी)

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