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कृष्ण ने कहा दुर्लभ यश प्राप्त करो अर्जुन

धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे (ग्यारहवां अध्याय-12)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)

रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक

प्रश्न-यश-लाभ करने और शत्रुओं को जीतकर समृद्ध राज्य भोगने के लिये कहने का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-इससे भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि इस युद्ध में तुम्हारी विजय निश्चित है अतएव शत्रुओं को जीतकर धन-धान्य से सम्पन्न महान् राज्य का उपभोग करो और दुर्लभ यश प्राप्त करो। इस अवसर को हाथ से न जाने दो।
प्रश्न-‘सव्यसाचिन्’ नाम से सम्बोधित करके यह कहने का क्या अभिप्राय है कि ये पहले से ही मेरे द्वारा मारे हुए हैं, तुम तो केवल निमित्त मात्र बन जाओ?
उत्तर-जो बायें हाथ से भी बाण चला सकता हो, उसे ‘सव्यसाची’ कहते हैं। यहाँ अर्जुन को ‘सव्यसाची’ नाम से सम्बोधित करके और निमित्त मात्र बनने के लिये कहकर भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि तुम तो दोनों ही हाथों से बाण चलाने में अत्यन्त निपुण हो, तुम्हारे लिये इन शूरवीरों पर विजय प्राप्त करना कौन-सी बड़ी बात है। फिर इन सब को तो वस्तुतः तुम्हें मारना ही क्या पड़ेगा, तुमने प्रत्यक्ष देख ही लिया कि सब के सब मेरे द्वारा पहले ही से मारे हुए हैं। तुम्हारा तो सिर्फ नाम भर होगा। अतएव अब तुम इन्हीं मारने से जरा भी हिचको मत। मार तो मैंने रक्खा ही है, तुम तो केवल निमित्त मात्र बन जाओ।
निमित्त मात्र बनने के लिये कहने का एक भाव यह भी है कि इन्हें मारने पर तुम्हें किसी प्रकार का पाप होगा, इसकी भी सम्भावना नहीं है, क्योंकि तुम तो क्षात्र धर्म के अनुसार कर्तव्य रूप से प्राप्त युद्ध में इन्हंे मारने में एक निमित्त भर बने हो। इससे पाप की बात तो दूर रही, तुम्हारे द्वारा उलटा क्षात्र धर्म का पालन होगा। अतएव तुम्हें अपने मन में किसी प्रकार का संशय न रखकर, अहंकार और ममता से रहित होकर उत्साहपूर्वक युद्ध में प्रवृत्त होना चाहिये।
द्रोणं च भीष्मं च जयद्रथं च कर्णं तथान्यानपि योधवीरान्।
मया हतांस्त्वं जहि मा व्यथिष्ठा युध्यस्व जेतासि रणे सपतान्न्।। 34।।
प्रश्न-द्रोण, भीष्म, जयद्रथ और कर्ण इन चारों के अलग-अलग नाम लेने का क्या अभिप्राय है, तथा ‘अन्यान्’ विशेषण के सहित ‘योधवीरान्’ पद से किनका लक्ष्य कराया गया है और इन सबको अपने द्वारा मारे हुए बतलाकर मारने के लिये कहने का क्या तात्पर्य है?
उत्तर-द्रोणाचार्य धनुर्वेद तथा अन्यान्य शस्त्राó प्रयोग की विद्या में अत्यन्त पारंगत और युद्ध कला में परम निपुण थे। यह बात प्रसिद्ध थी कि जब तक उनके हाथ में शस्त्र रहेगा, तब तक उन्हें कोई भी मार नहीं सकेगा। अर्जुन उन्हें अजेय समझते थे और साथ ही गुरु होने के कारण अर्जुन उनको मारना पाप भी मानते थे। भीष्म पितामह की शूरता जगत्प्रसिद्ध थी। परशुराम-सरीखे अजेय वीर को भी उन्होंने छका दिया था। साथ ही पिता शान्तनु का उन्हें यह वरदान था कि उनकी बिना इच्छा के मृत्यु भी उन्हें नहीं मार सकेगी। इन सब कारणों से अर्जुन की यह धारणा थी कि पितामह भीष्म पर विजय प्राप्त करना सहज कार्य नहीं है इसीके साथ-साथ वे पितामह का अपने हाथों वध करना पाप भी समझते थे। उन्होंने कई
बार कहा भी है, मैं इन्हें नहीं मारना चाहता जयद्रथ शिवभक्त होने के कारण उनसे दुर्लभ वरदान पाकर अत्यन्त दुर्जय हो गये थे फिर दुर्योधन की बहिन दुःशला के स्वामी होने से ये पाण्डवों के बहनोई भी लगते थे। स्वाभाविक ही सौजन्य और आत्मीयता के कारण अर्जुन उन्हें भी मारने में हिचकते थे।
कर्ण को भी अर्जुन किसी प्रकार भी अपने से कम वीर नहीं मानते थे। संसार भर में प्रसिद्ध था कि अर्जुन के योग्य प्रतिद्वन्द्वी कर्ण ही हैं। ये स्वयं बड़े ही वीर थे और परशुराम जी के द्वारा दुर्लभ शó विद्या का इन्होंने
अध्ययन किया था।
इसीलिये इन चारों के पृथक्-पृथक् नाम लेकर और ‘अन्यान्’ विशेषण के साथ ‘योधवीरान्’ पद से इनके अतिरिक्त भगदत्त, भूरिश्रवा और शल्य प्रभृति जिन-जिन योद्धाओं को अर्जुन बहुत बड़े वीर समझते थे और जिन पर विजय प्राप्त करना आसान नहीं समझते थे, उन सबका लक्ष्य कराते हुए उन सबको अपने द्वारा मारे हुए बतलाकर और उन्हें मारने के लिये आज्ञा देकर भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि तुमको किसी पर भी विजय प्राप्त करने में किसी प्रकार का भी सन्देह नहीं करना चाहिये। ये सभी मेरे द्वारा मारे हुए हैं। साथ ही इस बात का भी लक्ष्य करा दिया है कि तुम जो इन गुरुजनों को मारने में पाप की आशंका करते थे वह भी ठीक नहीं है। क्योंकि क्षत्रिय धर्मानुसार इन्हें मारने के जो तुम निमित्त बनोगे, इसमें तुम्हें कोई भी पाप नहीं होगा वरं धर्म का ही पालन होगा। अतएव उठो और इन पर विजय प्राप्त करो।
प्रश्न-‘मा व्यथिष्ठाः‘ का क्या भाव है?
उत्तर-इससे भगवान् ने अर्जुन को आश्वासन दिया है कि मेरे उग्र रूप को देखकर तुम जो इनते भयभीत और व्यथित हो रहे हो, यह ठीक नहीं है। मैं तुम्हारा प्रिय वही कृष्ण हूँ। इसलिये तुम न तो जरा भी भय करो और न सन्तप्त ही होओ।
प्रश्न-युद्ध शत्रुओं को तू निःसन्देह जीतेगा, इसलिये युद्ध कर इस कथन का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-अर्जुन के मन में इस बात की शंका थी कि न जाने युद्ध में हम जीतेंगे या हमारे ये शत्रु ही हमको जीतेंगे उस शंका को दूर करने के लिये भगवान् ने ऐसा कहा है। भगवान् के कथन का अभिप्राय यह है कि युद्ध में निश्चय ही तुम्हारी विजय होगी, इसलिये तुम्हें उत्साहपूर्वक युद्ध करना चाहिये।
एतच्छुत्वा वचनं केशवस्य कृतांजलिर्वेपमानः किरीटी।
नमस्कृत्वा भूय एवाह कृष्णं सग˜दं भीतभीतः प्रणम्य।। 35।।
प्रश्न-भगवान् के वचनों को सुनकर अर्जुन के भयभीत और कम्पित होने के वर्णन का क्या भाव है?
उत्तर-इससे संजय ने यह भाव दिखलाया है कि श्रीकृष्ण के उस घोर रूप को देखकर अर्जुन इतने व्याकुल हो गये कि भगवान् के इस प्रकार आश्वासन देने पर भी उनका डर दूर नहीं हुआ इसलिये वे डर के मारे काँपते हुए भी भगवान् से उस रूप का संवरण करने के लिये प्रार्थना करने लगे।-क्रमशः (हिफी)

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