Uncategorizedअध्यात्मधर्म-अध्यात्म

आसुरी प्रकृति वाले मनुष्य

धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे (सोलहवां अध्याय-04)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)

रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके।-प्रधान सम्पादक

प्रश्न-इस श्लोक में उत्तरार्द्ध में भगवान् ने तीन बार ‘न’ का और फिर ‘अपि’ का प्रयोग करके क्या भाव दिखलाया है?
उत्तर-यह दिखलाया है कि आसुर-स्वभाव वालों में केवल अपवित्रता ही नहीं, उनमें सदाचार भी नहीं होता और सत्य भाषण भी नहीं होता।
असत्यप्रतिष्ठं ते अगदाहुरनीश्वरम्।
अपरस्परसंभूतं किमन्यत्कामहैतुकम्।। 8।।
प्रश्न-इस श्लोक का क्या भाव है?
उत्तर-इस श्लोक में आसुरी प्रकृति वाले मनुष्यों की मनगढ़ंत कल्पना का वर्णन किया गया है। वे लोग ऐसा मानते हैं कि न तो इस चराचर जगत् का भगवान् या कोई धर्माधर्म ही आधार है तथा न इस जगत् की कोई नित्य सत्ता है। अर्थात् न तो जन्म से पहले या मरने के बाद किसी भी जीव का अस्तित्व है एवं न कोई इसका रचयिता, नियामक और शासक ईश्वर ही है। यह चराचर जगत् केवल स्त्री-पुरुष के संयोग से ही उत्पन्न हुआ है। अतएव केवल काम ही इसका कारण है, इसके सिवा इसका और कोई प्रयोजन नहीं है।
एतां दृष्टिमवष्टभ्य नष्टात्मानोऽल्पबुद्धयः।
प्रभवन्त्युग्रकर्माणः क्षयाय जगतोऽहिताः।। 9।।
प्रश्न-इस मिथ्या ज्ञान को अवलम्बन करके इस वाक्यांश से क्या तात्पर्य है?
उत्तर-आसुर-स्वभाव वाले मनुष्यों के सारे कार्य इस नास्तिकवाद के सिद्धांत को दृष्टि में रखकर ही होते हैं, यही दिखलाने के लिये ऐसा कहा गया है।
प्रश्न-उन्हें ‘नष्टात्मानः‘ ‘अल्पबुद्धयः’, ‘अहिताः’ और ‘उग्रकर्माणः’ कहने का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-इससे यह दिखलाया गया है कि नास्तिक सिद्धान्त वाले मनुष्य आत्मा की सत्ता नहीं मानते, वे केवल देहवादी या भौतिकवादी ही होते हैं इससे उनका स्वभाव भ्रष्ट हो जाता है, उनकी किसी भी सत्कार्य के करने में प्रवृत्ति नहीं होती। उनकी बुद्धि भी अत्यन्त मन्द होती है वे जो कुछ निश्चय करते हैं सब केवल भोग-सुख की दृष्टि से ही करते हैं। उनका मन निरन्तर सबका अहित करने की बात ही सोचा करता है, इससे वे अपना भी अहित ही करते हैं तथा मन, वाणी, शरीर से चराचर जीवों को डराने, दुःख देने और उनका नाश करने वाले बड़े-बड़े भयानक कर्म ही करते रहते हैं।
प्रश्न-वे जगत् का क्षय करने के लिये ही समर्थ होते हैं इस वाक्य का क्या भाव है?
उत्तर-उपर्युक्त प्रकार के लोग अपने जीवन में बुद्धि, मन, वाणी और शरीर से जो कुछ भी कर्म करते हैं-सब चराचर प्राणि-जगत् को कष्ट पहुंचाने या मार डालने के लिये ही करते हैं। इसीलिये ऐसा कहा गया है कि उनका सामथ्र्य जगत् का विनाश करने के लिये ही होता है।
काममाश्रित्य दुष्पूरं दम्भमानमदान्विताः।
मोहाद्गृहीत्वास
द्ग्राहान्प्रवर्तन्तेऽशुचिव्रताः।। 10।।
प्रश्न-‘दम्भमानमदान्विताः’ से क्या भाव है?
उत्तर-मान, धन, पूजन, प्रतिष्ठा आदि स्वार्थ साधन के लिये जहाँ जैसा बनने में श्रेष्ठता दिखलायी पड़ती हो वास्तव में न होते हुए भी वैसा होने का भाव दिखलाना ‘दम्भ’ है। अपने में सम्मान्य या पूज्य होने का अभिमान रखना ‘दम्भ’ है। अपने में सम्मान्य या पूज्य होने का अभिमान रखना ‘मान’ है और रूप, गुण, जाति, ऐश्वर्य, विद्या, पद, धन, सन्तान आदि के नशे में चूर रहना ‘मद’ है। आसुरी-स्वभाव वाले मनुष्य इन दम्भ, मान और मद से युक्त होते हैं। इसी से उन्हें ऐसा कहा गया है।
प्रश्न-दूष्पूरम विशेषण सहित ‘कामम्’ पद किसका वाचक है और उसका आश्रय लेना क्या है?
उत्तर-संसार के भिन्न-भिन्न भोगों को प्राप्त करने की जो इच्छा है जिसकी पूर्ति किसी भी प्रकार से नहीं हो सकती, ऐसी कामनाओं का वाचक यहाँ दुष्पूरम् विशेषण के सहित ‘कामन्’ पद है और ऐसी कामनाओं को पूर्ण करने के लिये मन में दृढ़ संकल्प रखना ही उनका आश्रय लेना है।
प्रश्न-अज्ञान से मिथ्या सिद्धांतों को ग्रहण करना क्या है?
उत्तर-अज्ञान के वश में होकर जो नाना प्रकार के शास्त्र विरुद्ध सिद्धांतों की कल्पना करके उनको हठपूर्वक धारण किये रहना है, यही उनको अज्ञान से ग्रहण करना है।
प्रश्न-‘अशुचिव्रताः’ का क्या भाव है?
उत्तर-इससे यह भाव दिखलाया है कि उनके खान-पान, रहन-सहन, बोल-चाल, व्यवसाय-वाणिज्य, देन-लेन और बर्ताव-व्यवहार आदि के सभी नियम शास्त्र विरुद्ध भ्रष्ट होते हैं।
चिन्तामपरिमेयां च प्रलयान्तामुपाश्रिताः।
कामोपभोगपरमा एतावदिति निश्चिताः।। 11।।
प्रश्न-उनको मृत्युपर्यन्त रहने वाली असंख्य चिन्ताओं का आश्रय लेने वाले बताने का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-इससे यह दिखलाया गया है कि वे आसुर-स्वभाव वाले मनुष्य भोग-सुख के लिये इस प्रकार की असंख्य चिन्ताओं का आश्रय किये रहते हैं जिनका जीवन भर भी अन्त नहीं होता, जो मृत्यु के शेष क्षण तक बनी रहती हैं और इतनी अपार होती हैं कि कहीं उनकी गणना या सीमा नहीं होती।
प्रश्न-विषयों के भोग में परायण होने का तथा इतना ही सुख है, ऐसा मानने का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-इससे यह भाव दिखलाया है कि विषय भोग की सामग्रियों का संग्रह करना और उन्हें भोगते रहना बस यही उनके जीवन का लक्ष्य होता है। अतएव उनका जीवन इसी के परायण होता है, उनका यह निश्चय होता है कि बस जो कुछ सुख है सो यह भोगों का भोग कर लेना ही है।
आशापाशशतैर्बद्धाः कामक्रोधपरायणाः।
ईहन्ते कामभोगार्थ मन्यायेनार्थसंचयान्।। 12।।
प्रश्न-उनको आशा की सैकड़ों फाँसियों से बँधे हुए कहने का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-आसुर-स्वभाव वाले मनुष्य मन में कामोपभोग की नाना प्रकार की पूर्ति के लिये भाँति-भाँति की सैकड़ों आशाएँ लगाये रहते हैं। उनका मन कभी किसी विषय की आशा में लटकता है, कभी किसी में खिंचता है और कभी किसी में अटकता है। इस प्रकार आशाओं के बन्धन से वे कभी छूटते ही नहीं। इसी से सैकड़ों आशाओं की फाँसियों से बँधे हुए कहा गया है।-क्रमशः (हिफी)

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button