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स्वभाव व शास्त्रजा श्रद्धा

धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे (सत्तरहवां अध्याय-02)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)

रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके।-प्रधान सम्पादक

त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा।
सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां श्रणु।। 2।।
प्रश्न-‘देहिनाम्’ पद किन मनुष्यों के लिये प्रयुक्त हुआ है?
उत्तर-जिनका देह में स्वाभाविक अभिमान है, ऐसे साधारण मनुष्यों के लिये प्रयुक्त हुआ है।
प्रश्न-‘सा’ और ‘स्वभावजा’ ये पद कैसी श्रद्धा के वाचक है?
उत्तर-‘सा’ एवं ‘स्वभावजा’ पद शाó विधि का त्याग करके श्रद्धापूर्वक यज्ञादि कर्म करने वाले मनुष्यों में रहने वाली श्रद्धा के वाचक हैं। वह श्रद्धा शाó से उत्पन्न नहीं है, स्वभाव से है। इसलिये उसे ‘स्वभावजा’ कहते हैं। जो श्रद्धा शाó के श्रवण-पठनादि से होती है, उसे ‘शाóजा’ कहते हैं और जो पूर्वजन्मों के तथा इस जन्म के कर्मों के संस्कारानुसार स्वाभाविक होती है, वह ‘स्वभावजा’ कहलाती है।
प्रश्न-सात्त्विकी, राजसी, तामसी और त्रिविधा के साथ ‘इति’ के प्रयोग का क्या भाव है?
उत्तर-इनके साथ ‘इति’ पद का प्रयोग करके भगवान् यह दिखलाते हैं कि यह श्रद्धा सात्त्विकी, राजसी और तामसी-इस प्रकार तीन ही तरह की होती है।
सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत।
श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छद्धः स एव सः।। 3।।
प्रश्न-सभी मनुष्यों से यहाँ क्या तात्पर्य है?
उत्तर-पिछले श्लोक में जिन देहाभिमानी मनुष्यों के लिये ‘देहिनाम्’ पद आया है, उन्हीं के लिये ‘सर्वस्य’ पद आया है। अर्थात् यहाँ देहाभिमानी साधारण मनुष्यों के सम्बन्ध में कहा जा रहा है क्योंकि इसी श्लोक में आगे यह कहा गया है कि जिसकी जैसी श्रद्धा है, वह स्वयं भी वैसा ही है। यह कथन देहाभिमानी जीव के लिये ही लागू हो सकता है, गुणातीत ज्ञानी के लिये नहीं।
प्रश्न-पिछले श्लोक में श्रद्धा को ‘स्वभावजा’ स्वभाव से उत्पन्न बतलाया गया है और यहाँ सत्त्वानुरूपा अन्तःकरण के अनुरूप कहा गया है-इसका क्या अभिप्राय है?
उत्तर-मनुष्य सात्त्विक, राजस, तामस जैसे कर्म करता है, वैसा ही उसका स्वभाव बनता है और स्वभाव अन्तःकरण में रहता है अतः वह जैसे स्वभाव वाला है वैसे ही अन्तःकरण का माना जाता है। इसलिये उसे चाहे स्वभाव से उत्पन्न कहा जाय चाहे अन्तःकरण के अनुरूप बात एक ही है।
प्रश्न-पुरुष को तो ‘पर’ यानी गुणों से सर्वथा अतीत बतलाया गया। फिर यहाँ उसे श्रद्धामय कहने का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-पुरुष का वास्तविक स्वरूप तो गुणातीत ही है परन्तु यहाँ उस पुरुष की बात है, जो प्रकृति में स्थित है और प्रकृति से उत्पन्न तीनों गुणों से सम्बद्ध है। क्योंकि गुणजन्य भेद, प्रकृतिस्थ पुरुष में ही सम्भव है। जो गुणों से परे है उसमें तो गुणों के भेद की कल्पना ही नहीं हो सकी। यहाँ भगवान् यह बतलाते हैं कि जिसकी अन्तःकरण के अनुरूप जैसी सात्त्विक, राजसी या तामसी श्रद्धा होती है-वैसी ही उस पुरुष की निष्ठा या स्थिति होती है। अर्थात् जिसकी जैसी श्रद्धा है वही उसका स्वरूप है। इससे भगवान् ने श्रद्धा, निष्ठा और स्वरूप की एकता करते हुए उनकी कौन-सी निष्ठा है अर्जुन के इस प्रश्न का उत्तर दिया है।
यजन्ते सात्त्विका देवान्यक्षरक्षांसि राजसाः।
प्रेतान्भूतगणांश्राश्वन्ये यजन्ते तामसा जनाः।। 4।।
प्रश्न-सात्त्विक पुरुष देवों को पूजते हैं, इसका क्या अभिप्राय है?
उत्तर-कार्य देखकर कारण की पहचान होती है। इस न्याय के अनुसार जब देवता सात्त्विक हैं तो उनकी पूजा करने वाले भी सात्त्विक ही होंगे, जैसे देव वैसे ही उनके पुजारी। इस लोकोक्ति के अनुसार यह बतलाते हैं कि देवताओं को पूजने वाले मनुष्य सात्त्विक हैं सात्त्विकी निष्ठा वाले हैं। देवताओं से यहाँ सूर्य, चन्द्र, अग्नि, वायु, इन्द्र, वरुण, यम, अश्विनी कुमार और विश्वे देव आदि शाóोक्त देव समझने चाहिये।
यहाँ देव पूजन रूप क्रिया सात्त्विक होने के कारण उसे करने वालों को सात्त्विक बताया है, परन्तु पूर्ण सात्त्विक तो वही है जो सात्त्विक क्रिया को निष्काम भाव से करता है।
प्रश्न-राजस पुरुष यज्ञ-राक्षसों को (पूजते हैं) इससे क्या तात्पर्य है?
उत्तर-जैसे देवताओं को पूजने वाले सात्त्विक पुरुष हैं, उसी न्याय से यक्ष-राक्षसों को पूजने वाले राजस हैं-राजसी निष्ठावाले हैं, यह पहचान करने के लिये ऐसा कहा है। यक्ष से कुबेरादि और राक्षसों से राहु-केतु आदि समझना चाहिये।
प्रश्न-तामस मनुष्य प्रेत और भूतगणों को पूजते हैं-इसका क्या तात्पर्य है?
उत्तर-इससे भी यही बात कही गयी है कि भूत, प्रेत, पिशाचों को पूजने वाले तामसी निष्ठा वाले हैं। मरने के बाद जो पाप-कर्म वश भूत-प्रेतादि के वायु प्रधान देह को प्राप्त होते हैं, वे भूत-प्रेत कहलाते हैं।
प्रश्न-इन लोगों की गति कैसी होती है?
उत्तर-‘जैसा इष्ट वैसी गति’ प्रसिद्ध ही है। देवताओं को पूजने वाले देवगति को प्राप्त होते हैं, यक्ष-राक्षसों को पूजने वाले यक्ष-राक्षसों की गति को और भूत-प्रेतों को पूजने वाले उन्हीं के जैसे रूप, गुण ओर स्थिति आदि को पाते हैं। नवें अध्याय के पचीसवें श्लोक में भगवान् ने ‘यान्ति देवव्रता देवान्’ ‘भूतानि यान्ति भूतेज्याः’ आदि से यही सिद्धांत बतलाया है।
अशाóविहितं घोरं तप्यन्ते ये तपो जनाः।
दम्भाहंकारसंयुक्ताः कामरागबलान्विताः।। 5।।
प्रश्न-शाó विधि से रहित और घोर तप कैसे तप को कहते हैं?
उत्तर-जिस तप के करने का शाóों में विधान नहीं है, जिसमें शाó विधि का पालन नहीं किया जाता जिसमें नाना प्रकार के आडम्बरों से शरीर और इन्द्रियों को कष्ट पहुँया जाता है और जिसका स्वरूप बड़ा भयानक होता है। ऐसे तप को शाó विधि से रहित घोर तप कहते हैं।-क्रमशः (हिफी)

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