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आसुरी स्वभाव वालों की होती है दुर्गति

धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे (सोलहवां अध्याय-06)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)

रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके।-प्रधान सम्पादक

प्रश्न-‘अनेक चित्तविभ्रान्ताः’ का क्या भाव है?
उत्तर-इससे यह भाव दिखलाया गया है कि आसुर स्वभाव वाले मनुष्यों का चित्त अनेक विषयों में विविध प्रकार से विभ्रान्त रहता है। वे किसी भी विषय पर स्थिर नहीं रहते, भटकते ही रहते हैं।
प्रश्न-‘मोह जाल समावृताः’ का क्या भाव है?
उत्तर-इसका भाव यह है कि जैसे मछली जाल में फँसकर घिरी रहती है, वैसे ही आसुर-स्वभाव वाले मनुष्य अविवेक रूपी मोह-माया के जाल में फँसकर उससे घिरे रहते हैं।
प्रश्न-‘कामभोगेषु प्रसक्ताः’ का क्या भाव है?
उत्तर-इससे यह भाव दिखलाया गया है कि वे आसुरी प्रकृति वाले मनुष्य विषयोपभोग को ही जीवन का एकमात्र ध्येये मानते हैं, इसलिये उसी में विशेष रूप से आसक्त रहते हैं।
प्रश्न-‘वे अपवित्र नरक में गिरते हैं’ इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-इससे उन आसुर स्वभाव वाले मनुष्यों की दुर्गति का वर्णन किया गया है। अभिप्राय यह है कि उपर्युक्त प्रकार की स्थिति वाले मनुष्य भोग के लिये भाँति-भाँति के पाप करते हैं और उनका फल भोगने के लिये उन्हें विष्ठा, मूत्र, रुधिर, पीब आदि गंदी वस्तुओें से भरे दुःखदायक कुम्भी पाक, रौरवादि घोर नरकों में गिरना पड़ता है।
आत्मसंभाविताः स्तब्धा धनमानमदान्विताः।
यजन्ते नामयज्ञैस्ते दम्भेनाविधिपूर्वकम्।। 17।।
प्रश्न-‘आत्मसम्भाविताः’ किन्हें कहते है?
उत्तर-जो अपने ही मन से अपने आपको सब बातों में सर्वश्रेष्ठ, सम्मान्य, उच्च और पूज्य मानते हैं-वे ‘आत्म सम्भावित’ हैं।
प्रश्न-‘स्तब्धाः’ का क्या अर्थ है?
उत्तर-जो घमण्ड के कारण किसी के साथ यहाँ तक कि पूजनीयों के प्रति भी विनय का व्यवहार नहीं करते, वे ‘स्तब्ध’ हैं।
प्रश्न-‘धनमानमदान्विताः’ किनको कहते हैं?
उत्तर-जो धन और मान के मद से उनमत रहते हैं, उन्हें
‘धनमानमदान्विताः’ कहते हैं।
प्रश्न-केवल नाम मात्र के यज्ञों द्वारा पाखण्ड से शास्त्र विधि रहित यजन करते हैं-इस वाक्य का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-इससे यह भाव दिखलाया गया है कि उपर्युक्त लक्षणों वाले आसुर-स्वभाव के मनुष्य जो यज्ञ करते हैं, वह विधि से रहित, केवल नाम मात्र का यज्ञ होता है। वे लोग बिना श्रद्धा के केवल पाखण्ड से लोगों को दिखलाने के लिये ही ऐसे यज्ञ किया करते हैं। उनके ये यज्ञ तामस होते हैं और इसी ‘अधोगच्छन्ति तामसाः’ के अनुसार वे नरकों में गिरते हैं। तामस यज्ञ की पूरी व्याख्या सतरहवें अध्याय के तेरहवें श्लोक में देखनी चाहिये।
अहंकारं बलं दर्पं कामं क्रोधं संश्रिताः।
मामात्मपरदेहेषु प्रद्विषन्तोऽभ्यसूयकाः।। 18।।
प्रश्न-अहंकार, बल, दर्प, काम और क्रोध के परायण का क्या तात्पर्य है?
उत्तर-इससे यह दिखलाया गया है कि वे आसुर स्वभाव वाले मनुष्य अहंकार का अवलम्बन करके कहते हैं कि हम ही ईश्वर हैं, सब भोगों को भोगने वाले हैं, सिद्ध हैं, बलवान हैं और सुखी हैं। ऐसा कौन सा कार्य है जिसे हम न कर सकें। अपने बल का आश्रय लेकर वे दूसरों से वैर करते हैं उन्हें धमकाने, मारने-पीटने और विपत्ति ग्रस्त करने में प्रवृत्त होते हैं। वे अपने बल के सामने किसी को कुछ समझते ही नहीं। दर्प का आश्रय लेकर वे यह डींग हाँका करते हैं कि हम बड़े धनी और बड़े कुटुम्ब वाले हैं। हमारे समान दूसरा है ही कौन। काम का आश्रय लेकर वे नाना प्रकार के दुराचार किया करते हैं और क्रोध के परायण होकर वे कहते हैं कि जो भी हमारे प्रतिकूल कार्य करेगा या हमारा अनिष्ट करेगा, हम उसी को मार डालेंगे। इस प्रकार केवल अहंकार, बल, दर्प, काम और क्रोध का आश्रय लेकर उन्हीं के बल पर वे भाँति-भाँति की कल्पना-अल्पना किया करते हैं और जो कुछ भी कार्य करते हैं, सब इन्हीं दोषों की प्रेरणा से और इन्हीं पर अवलम्बन करके करते हैं। ईश्वर, धर्म या शास्त्र आदि किसी का भ आश्रय नहीं लेते।
प्रश्न इसमंे ‘च’ अव्यय क्यों आया है?
उत्तर- ‘च’ से यह भाव दिखलाया गया है कि ये आसुर स्वभाव वाले मनुष्य केवल अहंकार, बल, दर्प, काम और क्रोध के ही आश्रित नहीं हैं, दम्भ, लोभ, मोह आदि और भी अनेकों दोषों को धारण किये रहते हैं।
प्रश्न-‘अभ्यसूयकाः’ का क्या भाव है?
उत्तर-दूसरों के दोष देखना, देखकर उनकी निन्दा करना, उनके गुणों का खण्डन करना और गुणों में दोषारोपण करना असूया है। आसुर-स्वभाव वाले पुरुष ऐसा ही करते हैं औरों की तो बात क्या, वे भगवान् और संत पुरुषों में दोष देखते हैं-यही भाव दिखलाने के लिये उन्हे अभ्यसूयक कहा गया है।
प्रश्न-आसुरी प्रकृति वाले मनुष्यों को अपने और दूसरों के शरीर में स्थित अन्तर्यामी परमेश्वर के साथ द्वेष करने वाले कहने का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-इससे भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि आसुरी प्रकृति वाले मनुष्य जो दूसरों से वैर बाँधकर उनको नाना प्रकार के कष्ट पहुँचाने की चेष्टा करते हैं और स्वयं भी कष्ट भोगते हैं, वह उनका मेरे ही साथ द्वेष करना है, क्योंकि उनके और दूसरों के सभी के अंदर अन्तर्यामी रूप से मैं परमेश्वर स्थित हूँ। किसी से विरोध या द्वेष करना, किसी का अहित करना और किसी को दुःख पहुँचाना अपने और दूसरों के शरीर में स्थित मुझ परमेश्वर से ही द्वेष करना है।-क्रमशः (हिफी)

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