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अर्जुन को अनन्य प्रेम का उपदेश

धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे (ग्यारहवां अध्याय-20)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)

रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके।-प्रधान सम्पादक

प्रश्न-यहाँ ‘एवंविधः’ और ‘मां यथा दृष्टवानसि’ के प्रयोग से यदि यह बात मान ली जाय कि भगवान् ने जो अपना विश्व रूप अर्जुन को दिखलाया था, उसी के विषय में मैं वेदों द्वारा नहीं देखा जा सकता आदि बातें भगवान् ने कही हैं, तो क्या हानि है।
उत्तर-विश्व रूप की महिमा में प्रायः इन्हीं पदों का प्रयोग अड़तालीसवें श्लोक में हो चुका है। इस श्लोक को पुनः उसी विश्व रूप की महिमा मान लेने से पुनरुक्ति का दोष आता है। इसके अतिरिक्त, उस विश्व रूप के लिए तो भगवान् ने कहा है कि यह तुम्हारे अतिरिक्त दूसरे किसी के द्वारा नहीं देखा जा सकता और इसके देखने के लिये अगले श्लोक में उपाय भी बतलाये हैं। इसलिये जैसा माना गया है वही ठीक है।
भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन।
ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परंतप।। 54।।
प्रश्न-जिसके द्वारा भगवान् का दिव्य चतुर्भुज रूप देखा जा सकता है, जाना जा सकता है और उसमें प्रवेश किया जा सकता है-वह अनन्य भक्ति क्या है?
उत्तर-भगवान् में ही अनन्य प्रेम हो जाना तथा अपने मन, इन्द्रिय और शरीर एवं धन, जन आदि सर्वस्व को भगवान् का समझकर भगवान् के लिये भगवान् की ही सेवा में सदा के लिये लगा देना-यही अनन्य भक्ति है, इसका वर्णन अगले श्लोक में अनन्य भक्त के लक्षणों में विस्तारपूर्वक किया गया है।
प्रश्न-सांख्य योग के द्वारा भी तो परमात्मा को प्राप्त होना बतलाया गया है फिर यहाँ केवल अनन्य भक्ति को ही भगवान् के देखे जाने आदि में हेतु क्यों कर बतलाया गया?
उत्तर-सांख्य योग के द्वारा निर्गुण ब्रह्म की प्राप्ति बतलायी गयी है और वह सर्वथा सत्य है परन्तु सांख्य योग के द्वारा सगुण-साकार भगवान् के दिव्य चतुर्भुज रूप के भी दर्शन हो जायं ऐसा नहीं कहा जा सकता। क्योंकि सांख्ययोग के द्वारा साकार रूप में दर्शन के लिये भगवान बाध्य नहीं हैं। यहाँ प्रकरण भी सगुण भगवान् के दर्शन का ही है। अतएव यहाँ केवल अनन्य भक्ति को भगवददर्शन आदि में हेतु बतलाना उचित ही है।
मत्कर्मकृन्मत्परमो म˜क्तः संगवर्जितः।
निवैंरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव।। 55।।
प्रश्न-‘मत्कर्मकृत्’ का क्या भाव है?
उत्तर-जो मनुष्य स्वार्थ, ममता और आसक्ति को छोड़कर सब कुछ भगवान् का समझकर, अपने को केवल निमित्त मात्र मानता हुआ यज्ञ, दान, तप और खान-पान, व्यवहार आदि समस्त शास्त्रविहित कर्तव्य कर्मों को निष्काम भाव से भगवान् की ही प्रसन्नता के लिये भगवान् की आज्ञानुसार करता है-वह ‘मत्कर्मकृत्’ अर्थात् भगवान् के लिये भगवान् के कर्मों को करने वाला है।
प्रश्न-‘मत्परमः’ का क्या भाव है?
उत्तर-जो भगवान् को ही परम आश्रय, परम गति, एकमात्र शरण लेने योग्य, सर्वोत्तम, सर्वाधार, सर्वशक्तिमान् सबके सुहृद परम आत्मीय और अपने सर्वस्व समझता है तथा उनके किये हुए प्रत्येक विधान में सदा सुप्रसन्न रहता है-वह ‘मत्परमः’ अर्थात् भगवान् के परायण है।
प्रश्न-‘म˜क्तः’ का क्या भाव है?
उत्तर-भगवान् में अनन्य प्रेम हो जाने के कारण जो भगवान् में ही तन्मय होकर नित्य-निरन्तर भगवान् के नाम, रूप, गुण, प्रभाव और लीला आदि का श्रवण, कीर्तन और मनन आदि करता है इनके बिना जिसे क्षण भर भी चैन नहीं पड़ती और जो भगवान् के दर्शन के लिये अत्यन्त उत्कण्ठा के साथ निरन्तर लालायित रहता है-यह ‘म˜क्तः’ अर्थात् भगवान का भक्त है।
प्रश्न-संगवर्जित‘ः का क्या भाव है?
उत्तर-शरीर, स्त्री, पुत्र, घर, धन, कुटुम्ब तथा मान-बड़ाई आदि जितने भी इस लोक और परलोक के भोग्य पदार्थ हैं-उन सम्पूर्ण जड़-चेतन पदार्थों में जिसकी किंचित मात्र भी आसक्ति नहीं रह गयी है। भगवान् को छोड़कर जिसका किसी में भी प्रेम नहीं है-वह संगवर्जितः अर्थात आसक्ति रहित है।
प्रश्न-‘सर्वभूतेषु निर्वैरः’ का क्या भाव है?
उत्तर-समस्त प्राणियों को भगवान् का ही स्वरूप समझने अथवा सब में एकमात्र भगवान् को व्याप्त समझने के कारण किसी के द्वारा कितना भी विपरीत व्यवहार किया जाने पर भी जिसके मन में विकार नहीं होता तथा जिसका किसी भी प्राणी में किंचित मात्र भी द्वेष या वैर, भाव नहीं रह गया है-वह ‘सर्वभूतेषु निर्वैरः’ अर्थात् समस्त प्राणियों में बैर भाव से रहित है।
प्रश्न-‘यः’ और ‘सः’ पद उपर्युक्त लक्षणों वाले भगवान् के अनन्य भक्त के वाचक हैं और वह मुझको ही प्राप्त होता है इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-‘यः’ और ‘सः‘ उपर्युक्त लक्षणों वाले भगवान्् के अनन्य भक्त के वाचक हैं और वह मुझको ही प्राप्त होता है-इस कथन का चैवनवें श्लोक के अनुसार सगुण भगवान् के प्रत्यक्ष दर्शन कर लेना, उनको भलीभाँति तत्त्व से जान लेना और उनमें प्रवेश कर जाता है। अभिप्राय यह है कि उपर्युक्त लक्षणों से युक्त जो भगवान् का अनन्य भक्त है वह भगवान की ही कृपा से भगवान् को प्राप्त हो जाता है।-क्रमशः (हिफी)

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