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क्षर व अक्षर को धारण करने वाला पुरुषोत्तम

धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे (पन्द्रहवां अध्याय-07)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)

रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके।-प्रधान सम्पादक

प्रश्न-समस्त वेदों द्वारा जानने के योग्य मैं ही हूँ इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-इससे भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि मैं सर्व शक्तिमान परमेश्वर ही समस्त वेदों का विधेय हूँ। अर्थात् उनमें कर्मकाण्ड, उपासना काण्ड और ज्ञान काण्डात्मक जितने भी वर्णन हैं उन सबका अन्तिम लक्ष्य संसार से वैराग्य उत्पन्न करके सब प्रकार के अधिकारियों को मेरा ही ज्ञान करा देना है। अतएव उनके द्वारा जो मनुष्य मेरे स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करते हैं वे ही वेदों के अर्थ को ठीक समझते हैं। इसके विपरीत जो लोग सांसारिक भोगों में फँसे रहते हैं वे उनके अर्थ को ठीक नहीं समझते।
प्रश्न-वेदान्त शब्द यहाँ किसका वाचक है एवं भगवान् ने अपने को उसका कर्ता एवं समस्त वेदों का ज्ञाता बतलाकर क्या भाव दिखलाया है?
उत्तर-वेदों के तात्पर्य निर्णय का अर्थात् वेद विषयक शंकाओं का समाधान करके एक परमात्मा में सबके समन्वय का नाम वेदान्त है। उसका कर्ता अपने को बतलाकर भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि वेदों में मनुष्य को शान्ति प्रदान करने वाला मैं ही हूँ तथा वेदों का ज्ञाता भी मैं ही हूँ इससे यह भाव दिखलाया है कि उनके यथार्थ को मैं ही जानता हूँ।
द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्वाक्षर एव च।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते।। 16।।
प्रश्न-‘इमौ’ और ‘द्वौ’ इन दोनों सर्वनाम पदों के सहित ‘पुरुषौ’ पद किन दो पुरुषों का वाचक है तथा एक को क्षर और दूसरे को अक्षर कहने का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-जिनका प्रसंग इस अध्याय में चल रहा है उन्हीं में से दो तत्त्वों का वर्णन यहाँ ‘क्षर’ और ‘अक्षर’ नाम से किया जाता है यह भाव दिखलाने के लिये ‘इमौ’ और ‘द्वौ’ इन दोनों पदों का प्रयोग किया गया है। जिन दोनों तत्त्वों का वर्णन सातवें अध्याय में अपरा और परा प्रकृति के नाम से आठवें अध्याय में अधिभूत और अध्यात्म के नाम से तेरहवें अध्याय में क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के नाम से और इस अध्याय में पहले अश्वत्थ और जीव के नाम से किया गया है। उन्हीं दोनों तत्त्वों का वाचक पुरुषौ पद है। उनमें से एक को क्षर और दूसरे को अक्षर कहकर भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि दोनों परस्पर अत्यन्त विलक्षण है।
प्रश्न-‘सर्वाणि भूतानि’ और ‘कूटस्थः’ पद किनके वाचक हैं तथा वे क्षर और अक्षर कैसे हैं?
उत्तर-भूतानि पद यहाँ समस्त जीवों के स्थूल, सूक्ष्म और कारण तीनों प्रकार के शरीरों का वाचक है। इन्हीं को तेरहवें अध्याय के पहले श्लोक में क्षेत्र के नाम से कहकर पाँचवें श्लोक में उसका स्वरूप बतलाया है। उस वर्णन से समस्त जड़वर्ग का वाचक यहाँ ‘सर्वाणि’ विशेषण के सहित भूतानि पद हो जाता है। यह तत्त्व नाशवान और अनित्य है। दूसरे अध्याय में अन्तयन्त इमे देहाः और आठवें अध्याय में अधिभूतं क्षरो भावः से यही बात कही गयी है। कूटस्थ शब्द यहाँ समस्त शरीरों में रहने वाले आत्मा का वाचक है। यह सदा एक सा रहता है इसमें परिवर्तन नहीं होता इसलिये इसे कूटस्थ कहते हैं और इसका कभी किसी अवस्था में क्षय, नाश और अभाव नहीं होता इसलिये यह अक्षर है।
उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः।
यो लोकत्रयमाविश्य बिभत्र्यव्यय ईश्वरः।। 17।।
प्रश्न-‘उत्तमः पुरुषः’ किसका वाचक है तथा ‘तु’ और अन्यः इन दोनों पदों का क्या भाव है?
उत्तर-उत्तमः पुरुषः नित्य, शुद्व, बुद्ध, मुक्त, सर्व-शक्तिमान, पर दयालु, सर्वगुण सम्पन्न पुरुषोत्तम भगवान् का वाचक है तथा तु और अन्य इन दोनों के द्वारा पूर्वोक्त क्षर पुरुष और अक्षर पुरुष से भगवान् की विलक्षणता का प्रतिपादन उन पूर्वोक्त दोनों पुरुषों से भिन्न और अत्यन्त श्रेष्ठ है।
प्रश्न-जो तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका धारण-पोषण करता है, इस कथन का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-इस कथन से पुरुषोत्तम के लक्षण का निरूपण किया गया है। अभिप्राय यह है कि जो सर्वाधार, सर्वव्यापी परमेश्वर समस्त जगत् में प्रविष्ट होकर, पुरुष नाम से वर्णित क्षर और अक्षर दोनों तत्त्वों का धारण और समस्त प्राणियों का पालन करता है वही उन दोनों से भिन्न और उत्तम पुरुषोत्तम है।
प्रश्न-जो अव्यय, ईश्वर और परमात्मा कहा गया है इस कथन का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-इससे भी उस ‘पुरुषोत्तम का ही लक्षण बतलाया गया है। अभिप्राय यह है कि जो तीनों लोकों में प्रविष्ट रहकर उनके नाश होने पर भी कभी नष्ट नहीं होता, सदा ही निर्विकार, एकरस रहता है तथा जो क्षर और अक्षर इन दोनों का नियामक और स्वामी तथा सर्वशक्तिमान ईश्वर है एवं जो गुणातीत, शुद्ध और सबका आत्मा है वही परमात्मा पुरुषोत्तम है।
क्षर, अक्षर और ईश्वर इन तीनों तत्त्वों का वर्णन श्वेताश्वतरोपनिषद् में इस प्रकार आया है-
क्षरं प्रधानममृताक्षरं हरः क्षरात्मानावीशते देव एकः।
प्रधान यानी प्रकृति का नाम क्षर है और उसके भोक्ता अविनाशी आत्मा का नाम अक्षर है। प्रकृति और आत्मा इन दोनों शासन एक देव (पुरुषोत्तम) करता है।
यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः।
अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः।। 18।।
प्रश्न-यहाँ ‘अहम्’ पद के प्रयोग का क्या भाव है?
उत्तर-अहम का प्रयोग करके भगवान् ने उपर्युक्त लक्षणों से युक्त पुरुषोत्तम स्वयं मैं ही हूँ इस प्रकार अर्जुन के सामने अपने परम रहस्य का उद्घाटन किया है।
प्रश्न-भगवान् ने अपने को क्षर से अतीत और अक्षर से भी उत्तम बतलाकर क्या भाव दिखलाया है?
उत्तर-‘क्षर’ पुरुष अतीत बतलाकर भगवान् ने यह दिखलाया है कि मैं क्षर पुरूष से सर्वथा सम्बन्ध रहित और अत्यन्त विलक्षण हूँ अर्थात् जो तेरहवें अध्याय में शरीर और क्षेत्र के नाम से कहा गया है उस तीनों गुणों के समुदाय रूप समस्त विनाशशील जडवर्ग से मैं सर्वथा निर्लिप्त हूँ। अक्षर से अपने को उत्तम बतलाकर यह भाव दिखलाया है कि क्षर पुरुष की भाँति अक्षर से मैं अतीत तो नहीं हूँ क्योंकि वह मेरा ही अंश होने के कारण अविनाशी और चेतन है किन्तु उससे मैं उत्तम अवश्य हूँ क्योंकि वह प्रकृतिस्थ है और मैं प्रकृति से परे अर्थात् गुणों से सर्वथा अतीत हूँ। अतः वह अल्पज्ञ है मैं सर्वज्ञ हूँ वह नियम्य है, मैं नियामक हूँ वह मेरा उपासक है मैं उसका स्वामी उपास्य देव हूँ। अतएव उसकी अपेक्षा मैं सब प्रकार से उत्तम हूँ।-क्रमशः (हिफी)

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