भोगों का त्याग कर भगवान को पाना है निवृत्तिमार्ग
धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे (अट्ठारहवां अध्याय-13)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके।-प्रधान सम्पादक
प्रश्न-‘स्तब्धः’ पद कैसे मनुष्य का वाचक है?
उत्तर-जिसका स्वभाव अत्यन्त कठोर है, जिसमें विनय का अत्यन्त अभाव है, जो सदा ही घमंड में चूर रहता है। अपने सामने दूसरों को कुछ भी नहीं समझता। ऐसे घमंडी मनुष्य का वाचक ‘स्तब्धः’ है।
प्रश्न-‘शठः’ पद किसका वाचक है?
उत्तर-जो दूसरों को ठगने वाला वाचक है, द्वेष को छिपाये रखकर गुप्त भाव को दूसरों का अपकार करने वाला है, मन-ही-मन दूसरों का अनिष्ट करने के लिये दाव-पेंच सोचता रहता है। ऐसे धूर्त मनुष्य का वाचक ‘शठः‘ पद है।
प्रश्न-‘नैष्कृतिकः’ पद कैसे मनुष्य का वाचक है?
उत्तर-जो नाना प्रकार से दूसरों की जीविका का नाश करने वाला है, दूसरों की वृत्ति में बाधा डालना ही जिसका स्वभाव है। ऐसे मनुष्य का वाचक ‘नैष्कृतिकः’ पद है।
प्रश्न-‘अलसः’ पद कैसे मनुष्य का वाचक है?
उत्तर-जिसका रात-दिन पड़े रहने का स्वभाव है, किसी भी शास्त्रीय या व्यावहारिक कर्तव्य-कर्म में उसकी प्रवृत्ति और उत्साह नहीं होते, जिसके अन्तःकरण और इन्द्रियों में आलस्य भरा रहता है। ऐसे आलसी मनुष्य का वाचक ‘अलसः’ पद है।
प्रश्न-‘विषादीः’ किसको कहते हैं?
उत्तर-जो रात-दिन शोक करता रहता है, जिसकी चिन्ताओं का कभी अन्त नहीं आता। ऐसे चिन्तापरायण पुरुष को ‘विषादी’ कहते हैं।
प्रश्न-‘दीर्घ सूत्री’ किसको कहते हैं?
उत्तर-जो किसी कार्य का आरम्भ करके बहुत काल तक उसे पूरा नहीं करता आज कर लेंगे, कल कर लंेगे, इस प्रकार विचार करते-करते एक रोज में हो जाने वाले कार्य के लिये बहुत समय निकाल देता है और फिर भी उसे पूरा नहीं कर पाता-ऐसे शिथिल प्रकृति वाले मनुष्य को ‘दीर्घ सूत्री’ कहते हैं।
प्रश्न-वह कर्ता तामस कहा जाता है, इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-इससे यह भाव दिखलाया गया है कि उपर्युक्त विशेषणों में बतलाये हुए सभी अवगुण तमोगुण के कार्य हैं, अतः जिस पुरुष में उपर्युक्त समस्त लक्षण घटते हों या उनमें से कितने ही लक्षण घटते हों उसे तामस कर्ता समझना चाहिये। तामसी मनुष्यों की अधोगति होती है। वे नाना प्रकार की पशु, पक्षी, कीट, पतंग आदि नीच योनियों में उत्पन्न होते हैं। अतः कल्याण चाहने वाले मनुष्य को अपने में तामसी कर्ता के लक्षणों का कोई भी अंश न रहने देना चाहिये।
बुद्धेर्भेदं धृतेश्वैव गुणताóिविधं श्रृणु।
प्रोच्यमानमशेषेण पृथक्त्वेन धनंजय।। 29।।
प्रश्न-इस श्लोक में ‘बुद्धि’ और ‘धृति’ शब्द किन तत्वों के वाचक हैं तथा उनके गुणों के अनुसार तीन-तीन प्रकार के भेद सम्पूर्णता से विभाग पूर्वक सुनने के लिये कहने का क्या भाव है?
उत्तर-‘बुद्धि’ शब्द यहाँ निश्चय करने की शक्ति विशेष का वाचक है, इसे अन्तःकरण भी कहते हैं। बीसवें, इक्कीसवें और बाईसवें श्लोकों में जिस ज्ञान के तीन भेद बतलाये गये हैं, वह बुद्धि से उत्पन्न होने वाला ज्ञान यानी बुद्धि की वृति विशेष है ओर यह बुद्धि उसका कारण है। अठारहवें श्लोक में ‘ज्ञान’ शब्द कम-प्रेरणा के अन्तर्गत आया है और बुद्धि का ग्रहण ‘करण’ के नाम से कर्म-संग्रह में किया गया है। यह ज्ञान का और बुद्धि का भेद है। यहाँ कर्म-संग्रह में वर्णित करणों के सात्त्विक-राजस-तामस भेदों को भलीभाँति समझाने के लिये प्रधान ‘करण’ बुद्धि के तीन भेद बतलाये जाते हैं।
‘धृति’ शब्द धारण करने की शक्ति विशेष का वाचक है, यह भी बुद्धि की ही वृत्ति है। मनुष्य किसी भी क्रिया या भाव को इसी शक्ति के द्वारा दृढ़तापूर्वक धारण करता है। इस कारण वह ‘करण’ के ही अन्तर्गत है। छब्बीसवें श्लोक में सात्त्विक कर्ता के लक्षणों में ‘धृति’ शब्द का प्रयोग हुआ है, इससे यह समझने की गुंजाइश हो जाती है कि ‘धृति’ केवल सात्त्विक ही होती है किन्तु ऐसी बात नहीं है, इसके भी तीन भेद होते हैं-यही बात समझाने के लिये इस प्रकरण में ‘धृति’ के तीन भेद बतलाये गये हैं।
यहाँ गुणों के अनुसार बुद्धि और धृति के तीन-तीन भेद सम्पूर्णता से विभाग पूर्वक सुनने के लिये कहकर भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि मैं तुम्हें बुद्धितत्त्व के और धृतितत्त्व के लक्षण जो सत्त्व, रज और तम इन तीनों गुणों के सम्बन्ध से तीन प्रकार के होते हैं-पूर्ण रूप से और अलग-अलग बतलाता हूँ। अतः सात्त्विक बुद्धि और सात्त्विक धृति को धारण करने के लिये तथा राजस-तामस का त्याग करने के लिये तुम इन दोनों तत्त्वों के समस्त लक्षणों को सावधानी के साथ सुनो।
प्रवृर्तिं च निवृर्तिं च कार्याकार्ये भयाभये।
बन्धं मोक्षं च या वेत्ति बुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी।। 30।।
प्रश्न-‘प्रवृत्ति मार्ग’ किस मार्ग को कहते हैं और उसको यथार्थ जानना क्या है?
उत्तर-गृहस्थ वान प्रस्थादि आश्रमों में रहकर ममता, आसक्ति, अहंकार और फलेच्छा का त्याग करके परमात्मा की प्राप्ति के लिये उसकी उपासना का तथा शाó विहित यज्ञ, दान और तप आदि शुभ कर्मों का, अपने वर्णाश्रम धर्म के अनुसार जीविका के कर्मों का और शरीर सम्बन्धी खान-पान आदि कर्मों का निष्काम भाव से आचरण रूप जो परमात्मा को प्राप्त करने का मार्ग है-वह प्रवृत्ति मार्ग है और राजा जनक, अम्बरीश, महर्षि वसिष्ठ और याज्ञवल्क्य आदि की भाँति उसे ठीक-ठीक समझकर उसके अनुसार चलना ही उसको यथार्थ जानना है।
प्रश्न-‘निवृत्ति मार्ग’ किसको कहते हैं और उसे यथार्थ जानना क्या है?
उत्तर-समस्त कर्मों का और भोगों का बाहर-भीतर से सर्वथा त्याग करके, संन्यास-आश्रम में रहकर परमात्मा की प्राप्ति के लिये सब प्रकार के सांसारिक झंझटों से विरक्त होकर अहंता, ममता और आसक्ति के त्याग पूर्वक शम, दम, तितिक्षा आदि साधनों के सहित निरन्तर श्रवण, मनन, निदिध्यासन करना या केवल भगवान् के भजन, स्मरण, कीर्तन आदि में ही लगे रहना-इस प्रकार जो परमात्मा को प्राप्त करने का मार्ग है, उसका नाम निवृत्ति मार्ग है और श्रीसनकादि, नारद जी, ऋषभ देव जी और शुक्र देव जी की भाँति उसे ठीक-ठीक समझकर उसके अनुसार चलना ही उसको यथार्थ जानना है।-क्रमशः (हिफी)