उद्धव की छोटी गलती का नतीजा

(अशोक त्रिपाठी-हिफी फीचर)
महाराष्ट्र मंे राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) मंे जिस तरह विघटन हुआ और शरद पवार के भतीजे अजित पवार ने लगभग 30 विधायकों को तोड़कर 8 को मंत्री और खुद को उपमुख्यमंत्री बनवाकर अपने चाणक्य चाचा को मात दी है, उसके बारे में लोग अपने-अपने तरीके से व्याख्या कर सकते हैं। शरद पवार के धृतराष्ट्री प्रेम को भी कुछ लोग इस विघटन के लिए जिम्मेदार मानते हैं क्योंकि महाराष्ट्र मंे लगभग दो दशक से सक्रिय राजनीति करने वाले अजित पवार अपने को ही शरद पवार का उत्तराधिकारी समझते थे। यह बात 5 जुलाई को मुंबई मंे दोनों गुटों के शक्ति प्रदर्शन मंे भी सामने आयी। शरद पवार ने हालांकि राजनीति करते हुए अपनी बेटी सुप्रिया सुले के साथ सांसद प्रफुल्ल पटेल को भी कार्यकारी अध्यक्ष बनाया था लेकिन अजित पवार ने उन्हें भी अपने गुट मंे शामिल कर लिया। तैयारी 30 जून से चल रही थी जब अजीत पवार को पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष चुन लिया गया और वही पत्र निर्वाचन आयोग को 6 जुलाई को भेजा गया है। जाहिर है। पार्टी दरक चुकी थी और इसके पीछे महाअघाड़ी सरकार के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे की एक छोटी सी गलती जिम्मेदार है। शिवसेना मंे एकनाथ शिंदे गुट के बगावत करने के बाद शिवसेना मंे उद्धव ठाकरे के साथ विधायक कम बचे थे लेकिन उन्होंने विश्वासमत का सामना किये बगैर ही इस्तीफा दे दिया था जबकि शरद पवार ने ऐसा करने से उन्हें रोका था। इसका कारण भी था कि शिवसेना के बागी विधायकों को आयोग्य घोषित कराने के लिए विधानसभा अध्यक्ष और राज्यपाल दोनों ने निर्धारित कानून का पालन नहीं किया था। यह बात सुप्रीम कोर्ट ने 11 मई को कही और उद्धव ठाकरे की सरकार को पुनर्जीवित करने मंे असमर्थता जताते हुए कहा कि कोर्ट घड़ी की सुइयों को पीछे कैसे कर सकता है? कोई मुख्यमंत्री इस्तीफा दे रहा है तो सुप्रीम कोर्ट उसे कैसे रोक सकता है। उद्धव ठाकरे ने यह छोटी सी गलती न की होती तो आज महाअघाड़ी की सरकार होती।
अब महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री बन चुके अजित पवार ने 40 विधायकों, विधानपार्षदों और सांसदों के समर्थन के साथ एनसीपी के नाम और प्रतीक चिह्न पर दावा पेश किया है। अजित पवार गुट के सभी विधायकों के दस्तखत वाले हलफनामे चुनाव आयोग को सौंप दिए गए हैं, लेकिन इसके बाद भी उन्हें मुंबई में ही एक होटल में रखा गया है। चुनाव आयोग सूत्रों के अनुसार, बागियों द्वारा लिखे गए खत के मुताबिक, महाराष्ट्र में सत्तासीन गठबंधन में शामिल होने का भौंचक्का कर देने वाला कदम उठाने से कुछ दिन पहले ही 30 जून को अजित पवार को पार्टी अध्यक्ष मनोनीत कर दिया गया था। इसके बाद 5 जुलाई को बुलाई गई बैठक में 63-वर्षीय अजित पवार ने अपने भाषण के दौरान कहा कि वह मुख्यमंत्री बनने की इच्छा रखते हैं। उन्होंने अपने चाचा शरद पवार से सवाल किया कि वह कब सेवानिवृत्त होने की योजना बना रहे हैं। उन्होंने कहा था, अन्य पार्टियों में नेता एक उम्र के बाद रिटायर हो जाते हैं… भाजपा में नेता 75 साल में रिटायर हो जाते हैं, आप कब रुकने वाले हैं…? आपको नए लोगों को भी मौका देना चाहिए… अगर हम गलती करते हैं, तो हमें बताएं… आपकी उम्र 83 साल है, क्या आप ऐसा करेंगे, कभी रुकेंगे या नहीं…? ध्यान रहे एनसीपी के दोनों गुटों ने मुंबई में अलग-अलग बैठकें की थीं। शरद पवार की बैठक में पार्टी के केवल 14 विधायक शामिल हुए, जिससे अजित पवार आगे निकल गए। अजित पवार खेमे की बैठक में एनसीपी के कुल 53 में से 32 विधायकों ने शिरकत की।
इस कदम से मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे का समर्थन करने वाले शिवसेना विधायकों में भी काफी बेचैनी पैदा हो गई है।
मुख्यमंत्री ने अपनी सभी बैठकें और कार्यक्रम रद्द कर दिए। सूत्रों के मुताबिक, विधायक गठबंधन पर आपत्ति जता रहे हैं, और उनका कहना था कि शिवसेना संस्थापक बाल ठाकरे कभी राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के साथ नहीं जुड़ते। इसीलिए सुप्रीम कोर्ट का वह फैसला महत्वपूर्ण है।
सुप्रीम कोर्ट ने उद्धव ठाकरे गुट की उस याचिका पर फैसला सुनाया था, जिसमें शिंदे गुट के 16 विधायकों को अयोग्य ठहराने की मांग की गई थी। लंबे इंतजार के बाद 11 मई को सुप्रीम कोर्ट का महाराष्ट्र राजनीतिक संकट मामले को लेकर फैसला आया था। फैसले के बाद शिंदे गुट को बड़ी राहत मिली। कोर्ट ने साफ शब्दों में कहा कि वह विधायकों की अयोग्यता पर फैसला नहीं लेगा। इसके लिए स्पीकर को जल्द फैसला लेने का आदेश दिया गया है। कोर्ट ने कहा कि उद्धव ठाकरे ने फ्लोर टेस्ट का सामना नहीं किया, ऐसे में उनको बहाल नहीं किया जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने आगे कहा कि व्हिप को पार्टी से अलग करना लोकतंत्र के हिसाब से सही नहीं होगा। पार्टी ही जनता से वोट मांगती है। सिर्फ विधायक तय नहीं कर सकते कि व्हिप कौन होगा। उद्धव ठाकरे को पार्टी विधायकों की बैठक में नेता माना गया था। 3 जुलाई को स्पीकर ने शिवसेना के नए व्हिप को मान्यता दे दी। इस तरह दो नेता और 2 व्हिप हो गए। स्पीकर को स्वतंत्र जांच कर फैसला लेना चाहिए था। गोगावले को व्हिप मान लेना गलत था क्योंकि इसकी नियुक्ति पार्टी करती है। इसके साथ ही पूरा मामला बड़ी बैंच के पास भेज दिया गया। कोर्ट ने यह भी कहा कि राज्यपाल को वो नहीं करना चाहिए जो ताकत संविधान ने उनको नहीं दी है। अगर सरकार और स्पीकर अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा टालने की कोशिश करें तो राज्यपाल फैसला ले सकते हैं लेकिन इस मामले में विधायकों ने राज्यपाल को जो चिट्ठी लिखी, उसमें यह नहीं कहा कि वह उद्धव0सरकार हटाना चाहते हैं। सिर्फ अपनी पार्टी के नेतृत्व पर सवाल उठाए। कोर्ट ने कहा कि किसी पार्टी में असंतोष फ्लोर टेस्ट का आधार नहीं होना चाहिए। राज्यपाल को जो भी प्रस्ताव मिले थे, वह स्पष्ट नहीं थे। यह पता नहीं था कि असंतुष्ट विधायक नई पार्टी बना रहे हैं या कहीं विलय कर रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट का कहना था कि वह अयोग्यता पर फैसला नहीं लेगा। एकनाथ शिंदे गुट की बगावत के बाद शिवसेना दो गुटों में बंट गई थी। उद्धव ठाकरे ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था, जिसके बाद तत्कालीन राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी ने एकनाथ शिंदे को सरकार बनाने के लिए बुलाया था। इसे लेकर सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की गई थी। उद्धव ठाकरे गुट की ओर से 16 विधायकों की सदस्यता की वैधता को चुनौती दी गई थी। सुप्रीम कोर्ट उद्धव ठाकरे को इस्तीफा देने की गलती के चलते ही एकनाथ शिंदे को मुख्यमंत्री की कुर्सी से नहीं उतार पाया था। अगर उस दिन उद्धव ठाकरे पुनः सीएम की कुर्सी पर बैठे जाते तो आज एनसीपी मंे इस प्रकार की टूट भी नहीं होती। (हिफी)