सगुण उपासक होते हैं उत्तम योगवेत्ता
धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे (बारहवां अध्याय-01)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके।-प्रधान सम्पादक
एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते।
ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्त माः।। 1।।
प्रश्न-‘एवम्’ पद का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-‘एवम्’ पद से अर्जुन ने पिछले अध्याय के पचपनवें श्लोक में बतलाये हुए अनन्य भक्ति के प्रकार का निर्देश किया है।
प्रश्न-‘त्वाम्’ पद यहाँ किसका वाचक है और निरन्तर भजन-ध्यान में लगे रहकर उसकी श्रेष्ठ उपासना करना क्या है?
उत्तर-‘त्वाम्’ पद यद्यपि यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण का वाचक है, तथापि भिन्न-भिन्न अवतारों में भगवान् ने जितने सगुण रूप धारण किये हैं एवं दिव्य धाम में जो भगवान् का सगुण रूप विराजमान है-जिसे अपनी-अपनी मान्यता के अनुसार लोग अनेक रूपों और नामों से बतलाते हैं, यहाँ ‘त्वाम्’ पद को उन सभी का वाचक मानना चाहिये क्योंकि वे सभी भगवान् श्रीकृष्ण से अभिन्न हैं। उन सगुण भगवान का निरन्तर चिंतन करते हुए परम श्रद्धा और प्रेमपूर्वक निष्काम-भाव से समस्त इन्द्रियों को उनकी सेवा में लगा देना है, यही निरन्तर भजन-ध्यान में लगे रहकर उनकी श्रेष्ठ उपासना करना है।
प्रश्न-‘अक्षरम्’ विशेषण के सहित ‘अव्यक्तम्’ पद यहाँ किसका वाचक है?
उत्तर-‘अक्षरम्’ विशेषण के सहित ‘अव्यक्तम्’ पद यहाँ निर्गुण-निराकार सच्चिदानन्दधन ब्रह्म का वाचक है। यद्यपि जीवात्मा को भी अक्षर और अव्यक्त कहा जा सकता है, पर अर्जुन के प्रश्न का अभिप्राय उसकी उपासना से नहीं है क्योंकि उसके उपासक का सगुण भगवान् के उपासक से उत्तम होना सम्भव नहीं है और पूर्व प्रसंग में कहीं उसकी उपासना का भगवान् ने विधान भी नहीं किया है।
प्रश्न-उन दोनों प्रकार के उपासकों में उत्तम योगवेत्ता कौन है? इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-इस वाक्य से अर्जुन ने यह पूछा कि यद्यपि उपर्युक्त प्रकार से उपासना करने वाले दोनों ही श्रेष्ठ हैं-इसमें कोई सन्देह नहीं है, तथापि उन दोनों की परस्पर तुलना करने पर दोनों प्रकार के उपासकों में से कौन-से उत्तम हैं-यह बतलाइये।
मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते।
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः।। 2।।
प्रश्न-अतिशय श्रेष्ठ श्रद्धा का क्या स्वरूप है? और उससे युक्त होना क्या है?
उत्तर-भगवान् की सत्ता में उनके अवतारों में, वचनों में, उनकी शक्ति में, उनके गुण, प्रभाव, लीला और ऐश्वर्य आदि में अत्यन्त सम्मानपूर्वक जो प्रत्यक्ष से भी बढ़कर विश्वास है वही अतिशय श्रद्धा और भक्त प्रहलाद की भाँति सब प्रकार से भगवान् पर निर्भर हो जाना ही उपर्युक्त श्रद्धा से युक्त होना है।
प्रश्न-‘वे मुझे उत्तम योगवेत्ता मान्य हैं, इसका क्या भाव है?
उत्तर-इस वाक्य से भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि दोनों प्रकार के उपासकों में जो मुझ सगुण परमेश्वर के उपासक हैं, उन्हीं को मैं उत्तम योगवेत्ता मानता हूँ।
ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते।
सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम्।। 3।।
संनियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः।
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः।। 4।।
प्रश्न-‘अचिन्त्यम्’ का क्या अर्थ है?
उत्तर-जो मन-बुद्धि का विषय न हो, उसे ‘अचिन्त्य’ कहते हैं।
प्रश्न-‘सर्वत्रगम्’ का क्या अर्थ है?
उत्तर-जो आकाश की भाँति सर्वव्यापी हो-कोई भी जगह जिससे खाली न हो, उसे ‘सर्वत्रगम’ कहते हैं।
प्रश्न-‘अनिर्देश्यम्’ का क्या अर्थ है?
उत्तर-जिसका निर्देश नहीं किया जा सकता हो-किसी भी युक्ति या उपमा से जिसका स्वरूप समझाया या बतलाया नहीं जा सकता हो, उसे ‘अनिर्देश्य’ कहते हैं।
प्रश्न-‘कूटस्थम्’ का क्या अर्थ है?
उत्तर-जिसका कभी किसी भी कारण से परिवर्तन न हो, जो सदा एक-सा-रहे, उसे ‘कूटस्थ’ कहते हैं।
प्रश्न-‘ध्रुवम्’ का क्या अर्थ है?
उत्तर-जो नित्य और निश्चित हो जिसकी सत्ता में किसी प्रकार का संशय न हो और जिसका कभी अभाव न हो, उसे ‘ध्रुव’ कहते हैं।
प्रश्न-‘अचलम्’ का क्या अर्थ है?
उत्तर-जो हलन-चलन की क्रिया से सर्वथा रहित हो उसे ‘अचल’ कहते हैं।
प्रश्न-‘अव्यक्तम्’ का क्या अर्थ है?
उत्तर-जो किसी भी इन्द्रिय का विषय न हो अर्थात् जो इन्द्रियों द्वारा जानने में न आ सके, जिसका कोई रूप या आकृति न हो, उसे ‘अव्यक्त’ कहते हैं।
प्रश्न-‘अक्षरम्’ का क्या अर्थ है?
उत्तर-जिसका कभी किसी भी कारण से विनाश न हो, उसे ‘अक्षर’ कहते हैं।
प्रश्न-इन सब विशेषणों के प्रयोग का क्या भाव है? और उस ब्रह्म की श्रेष्ठ उपासना करना क्या है?
उत्तर-उपर्युक्त विशेषणों से निर्गुण-निराकार ब्रह्म के स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है, इस प्रकार उस परब्रह्म का उपर्युक्त स्वरूप समझकर अभिन्न भाव से निरन्तर ध्यान करते रहना ही उसकी उत्तम उपासना करना है।
प्रश्न-‘सर्वभूतहिते रताः’ का क्या भाव है?
उत्तर-‘सर्वभूतहिते रतः’ से यह भाव दिखलाया है कि जिस प्रकार अविवेकी मनुष्य अपने हित में रत रहता है, उसी प्रकार उन निर्गुण-उपासकों का सम्पूर्ण प्राणियों में आत्माभाव हो जाने के कारण वे समान भाव से सबके हित में रत रहते हैं।
प्रश्न-‘सर्वत्र समबुद्धयः’ का क्या भाव है?
उत्तर-इससे यह भाव दिखलाया है कि उपुर्यक्त प्रकार से निर्गुण-निराकार ब्रह्म की उपासना करने वालों की कहीं भेद बुद्धि नहीं रहती। समस्त जगत् में एक ब्रह्म से भिन्न किसी की सत्ता न रहने के कारण उनकी सब जगह समबुद्धि हो जाती है।-क्रमशः (हिफी)