जीव का भगवान को प्राप्त हो जाना मोक्ष
धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे (अट्ठारहवां अध्याय-14)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके।-प्रधान सम्पादक
प्रश्न-कर्तव्य क्या है और अकर्तव्य क्या है? तथा इन दोनों को यथार्थ जानना क्या है?
उत्तर-वर्ण, आश्रम, प्रकृति और परिस्थिति की तथा देशकाल की अपेक्षा से जिसके लिये जिस समय जो कर्म करना उचित है वही उसके लिये कर्तव्य है और जिस समय जिसके लिये जिस कर्म का त्याग उचित है, वही उसके लिये अकर्तव्य है। इन दोनों को भलीभाँति समझ लेना अर्थात किसी भी कार्य के सामने आने पर यह मेरे लिये कर्तव्य है या अकर्तव्य इस बात का यथार्थ निर्णय कर लेना ही कर्तव्य और अकर्तव्य को यथार्थ जानना है।
प्रश्न-‘भय’ किसको और ‘अभय’ किसको कहते हैं? तथा इन दोनों को यथार्थ जानना क्या है?
उत्तर-किसी दुःख प्रद वस्तु के या घटना के उपस्थित हो जाने पर या उसकी सम्भावना होने से मनुष्य के अन्तःकरण में जो एक आकुलता भरी कम्पवृत्ति होती है उसे भय कहते हैं और इससे विपरीत जो भय के अभाव की वृत्ति है उसे ‘अभय’ कहते हैं। इन दोनों तत्त्व को जान लेना अर्थात् भय क्या है और अभय क्या है तथा किन-किन कारणों से मनुष्य को भय होता है और किस प्रकार उसकी निवृत्ति होकर ‘अभय’ अवस्था प्राप्त हो सकती है, इस विषय को भलीभाँति समझकर निर्भय हो जाना ही भय और अभय इन दोनों को यथार्थ जानना है।
प्रश्न-बन्धन और मोक्ष क्या है?
उत्तर-शुभाशुभ कर्मों के सम्बन्ध से जो जीव को अनादि काल से निरन्तर परवश होकर जन्म-मृत्यु के चक्र में भटकना पड़ रहा है, यही
बन्धन है और सत्संग के प्रभाव से कर्मयोग, भक्ति योग तथा ज्ञान योगादि साधनों में से किसी साधन के द्वारा भगवत्कृपा से समस्त शुभाशुभ कर्म बन्धनों का कट जाना और जीव का भगवान् को प्राप्त हो जाना ही मोक्ष है।
प्रश्न-बन्धन और मोक्ष को यथार्थ जानना क्या है?
उत्तर-बन्धन क्या है, किस कारण से इस जीव का बन्धन है और किन-किन कारणों से पुनः इसका
बन्धन दृढ़ हो जाता है-इन सब बातों को भलीभाँति समझ लेना बन्धन को यथार्थ जानना है और उस बन्धन से मुक्त होना क्या है तथा किन-किन उपायों से किस प्रकार मनुष्य बन्धन से मुक्त हो सकता है, इन सब बातों को ठीक-ठीक जान लेना ही मोक्ष को यथार्थ जानना है।
प्रश्न-वह बुद्धि सात्त्विकी है, इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-इससे यह भाव दिखलाया गया है कि जो बुद्धि उपर्युक्त बातों का ठीक-ठीक निर्णय कर सकती है, इनमें से किसी भी विषय का निर्णय करने में न तो उससे भूल होती है और न संशय ही रहता है-जब जिस बात का निर्णय करने की जरूरत पड़ती है, तब उसका यथार्थ निर्णय कर लेती है-वह बुद्धि सात्त्विकी बुद्धि मनुष्य को संसार बन्धन से छुड़कार परम पद की प्राप्ति कराने वाली होती है, अतः कल्याण चाहने वाले मनुष्य को अपनी बुद्धि सात्त्विकी बना लेनी चाहिये।
यथा धर्ममधर्म च कार्यं चाकार्यमेव च।
अयथावत्प्रजानाति बुद्धिः सा पार्थ राजसी।। 31।।
प्रश्न-‘धर्म’ किसको कहते हैं और ‘अधर्म’ किसको कहते हैं तथा इन दोनों को यथार्थ न जानना क्या है?
उत्तर-अहिंसा, सत्य, दया, शान्ति, ब्रह्मचर्य, शम, दम, तिक्षिजा तथा यज्ञ, दान, तप एवं अध्ययन, अध्यापन, प्रजा पालन, कृषि, पशुपालन और सेवा आदि जितने भी वर्णाश्रम के अनुसार शाó विहित शुभ कर्म हैं-जिनके आचरणों का फल शाóों में इस लोक और परलोक के सुख-भोग बतलाया गया है-तथा जो दूसरों के हित के कर्म हैं, उन सबका नाम धर्म है एवं झूठ, कपट, चोरी, व्यभिचार, हिंसा, दम्भ, अभवयभक्षण आदि जितने भी पाप कर्म हैं-जिनका फल शाóों में दुःख बतलाया है-उन सबका नाम अधर्म है। किस समय किस परिस्थिति में कौन-सा कर्म धर्म है और कौन-सा कर्म अधर्म है-इसका ठीक-ठीक निर्णय करने में बुद्धि का कुण्ठित हो जाना, या संशययुक्त हो जाना आदि उन दोनों का यथार्थ न जानना है।
प्रश्न-‘कार्य’ किसका नाम है और ‘अकार्य’ किसका? तथा
धर्म-अधर्म में और कर्तव्य-अकर्तव्य में क्या भेद है एवं कर्तव्य और अकर्तव्य को यथार्थ न जानना क्या है?
उत्तर-वर्ण, आश्रम, प्रकृति, परिस्थिति तथा देश और काल की अपेक्षा से जिस मनुष्य के लिए जो शाó विहित करने योग्य कर्म है-वह कार्य (कर्तव्य) है और जिसके लिये शाó में जिस कर्म को न करने योग्य निषिद्ध बतलाया है, बल्कि जिसका न करना ही उचित है-वह अकार्य (अकर्तव्य) है। शाó निषिद्ध पाप कर्म तो सबके लिये कोई कर्म कार्य होता है और किसी के लिये कोई अकार्य। जैसे शूद्र के लिये सेवा करना कार्य है और यज्ञ, वेदाध्ययन आदि करना अकार्य है, संन्यास के लिये विवेक, वैराग्य, शम, दमादि का साधन कार्य है और यज्ञ-दानादि का आचरण अकार्य है, वैश्य के लिये कृषि, गोरक्षा और वाणिज्यादि कार्य है और दान लेना अकार्य है। इसी तरह स्वर्गादि की कामना वाले मनुष्य के लिये काम्य-कर्म कार्य हैं और मुमुक्षु के लिये अकार्य हैं, विरक्त ब्राह्मण के लिये संन्यास ग्रहण करना कार्य और भोगासक्त के लिय अकार्य है। इससे यह सिद्ध है कि शाó विहित धर्म होने से ही वह सबके लिये कर्तव्य नहीं हो जाता। इस प्रकार धर्म कार्य भी हो सकता है और अकार्य भी। यही धर्म-अधर्म और कार्य-अकार्य का भेद है। किसी भी कर्म के करने का या त्यागने का अवसर आने पर अमुक कर्म मेरे लिये कर्तव्य है या अकर्तव्य, मुझे कौन सा कर्म किस प्रकार करना चाहिये और कौन-सा नहीं करना चाहिये। इसका ठीक-ठीक निर्णय करने में जो बुद्धि का किंकर्तव्य विभूढ़ हो जाना या संशय युक्त हो जाना है-यही कर्तव्य और अकर्तव्य को यथार्थ न जानना है।
प्रश्न-वह बुद्धि राजसी है, इस कथन का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-इस कथन से यह भाव दिखलाया गया है कि जिस बुद्धि से मनुष्य धर्म-अधर्म का और कर्तव्य-अकर्तव्य का ठीक-ठीक निर्णय नहीं कर सकता, जो बुद्धि इसी प्रकार अन्यान्य बातों का भी ठीक-ठीक निर्णय करने में समर्थ नहीं होती-वह रजोगुण के सम्बन्ध से विवेक में अप्रतिष्ठित, विक्षिप्त और अस्थिर रहती है, इसी कारण वह राजसी है। राजस भाव का फल दुःख बतलाया गया है अतएव कल्याणकामी पुरुषों द्वारा को सत्संग, सद्ग्रन्थों के अध्ययन और सद्विचारों के पोषण द्वारा बुद्धि में स्थित राक्षस भावों का त्याग करके सात्त्विक भावों को उत्पन्न करने और बढ़ाने की चेष्टा करनी चाहिये।-क्रमशः (हिफी)