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समस्त क्रियाओं का वाचक कर्म है

धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे (अट्ठारहवां अध्याय-08)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)

रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके।-प्रधान सम्पादक

ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना।
करणं कर्म कर्तेति त्रिविधः कर्मसंग्रहः।। 18।।
प्रश्न-ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय-ये तीनों पद अलग-अलग किन-किन तत्त्वों के वाचक हैं तथा यह तीन प्रकार की कर्म प्रेरणा है, इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-किसी भी पदार्थ के स्वरूप का निश्चय करने वाले को ‘ज्ञाता’ कहते हैं वह जिस वृत्ति के द्वारा वस्तु के स्वरूप का निश्चय करता है, उसका नाम ‘ज्ञान’ है और जिस वस्तु के स्वरूप का निश्चय करता है उसका नान ‘ज्ञेय’ है। यह तीन प्रकार की कर्म-प्रेरणा है। इस कथन से यह भाव दिखलाया गया है कि इन तीनों के संयोग से ही मनुष्य की कर्म में प्रवृत्ति होती है अर्थात् इन तीनों का सम्बन्ध ही मनुष्य को कर्म में प्रवृत्त करने वाला है। क्योंकि जब अधिकारी मनुष्य ज्ञान वृत्ति द्वारा यह निश्चय कर लेता है कि अमुक-अमुक वस्तुओं द्वारा अमुक प्रकार से अमुक कर्म मुझे करना है, तभी उसकी उस कर्म में प्रवृत्ति होती है।
प्रश्न-कर्ता, करण और कर्म-ये तीनों पद अलग-अलग किन-किन तत्त्वों के वाचक हैं तथा यह तीन प्रकार का कर्म संग्रह है, इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-देखना, सुनना, समझना, स्मरण करना, खाना, पीना आदि समस्त क्रियाओं को करने वाले प्रकृतिस्थ पुरुष को ‘कर्ता’ कहते हैं उसके जिन मन, बुद्धि और इन्द्रियों के द्वारा उपर्युक्त समस्त क्रियाएँ की जाती हैं-उनका वाचक ‘करण’ पद है और उपर्युक्त समस्त क्रियाओं का वाचक यहाँ कर्म पद है। यह तीन प्रकार का कर्म संग्रह है। इस कथन से यह भाव दिखलाया गया है कि इन तीनों के संयोग से ही कर्म का संग्रह होता है? क्योंकि जब मनुष्य स्वयं कर्ता बनकर अपने मन, बुद्धि और इन्द्रियों द्वारा क्रिया करके किसी कर्म को करता है। तभी कर्म बनता है, इसके बिना कोई भी कर्म नहीं बन सकता। चैदहवें श्लोक में जो कर्म की सिद्धि के अधिष्ठानादि पाँच हेतु बतलाये गये हैं उनमें से
अधिष्ठान और दैव को छोड़कर शेष तीनों को कर्म-संग्रह नाम दिया गया है, क्योंकि उन पाँचों में भी उपर्युक्त तीन हेतु ही मुख्य हैं।
ज्ञानं कर्म च कर्ता च त्रिधैव गुणभेदतः।
प्रोच्यते गुणसंख्याने यथावच्छृणु तान्यपि।। 19।।
प्रश्न-‘गुण संख्याने’ पद किसका वाचक है तथा उसमें गुणों के भेद से तीन-तीन प्रकार के बतलाये हुए ज्ञान, कर्म और कर्ता को सुनने के लिये कहने का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-जिस शाó में सत्त्व, रज और तम इन तीनों गुणों के सम्बन्ध से समस्त पदार्थों के भिन्न-भिन्न भेदों की गणना की गयी हो, ऐसे शाó का वाचक गुणसंख्याने पद है। अतः उसमें बतलाये हुए गुणों के भेद से तीन-तीन प्रकार के ज्ञान, कर्म और कर्ता को सुनने के लिये कहकर भगवान् ने उस शाó को इस विषय में आदर दिया है और कहे जाने वाले उपदेश को
ध्यानपूर्वक सुनने के लिये अर्जुन को सावधान किया है।
ध्यान रहे कि ज्ञाता और कर्ता अलग-अलग नहीं हैं इस कारण भगवान् ने ज्ञाता के भेद अलग नहीं बतलाये हैं तथा सुख के नाम से आगे बतलायेंगे। इस कारण यहाँ पूर्वोक्त छः पदार्थों में से तीन के ही भेद पहले बतलाने का संकेत किया है।
सर्वभूतेषु येनैकं भावभव्ययमीक्षते।
अविभक्तं बिभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम्।। 20।।
प्रश्न-‘येन’ पद यहाँ किसका वाचक है तथा उसके द्वारा पृथक्-पृथक् भूतों में एक अविनाशी परमात्म भाव को विभाग रहित देखना क्या है?
उत्तर-‘येन’ पद यहाँ सांख्य योग के साधन से होने वाले उस अनुभव का वाचक है, जिसका वर्णन छठे अध्याय के उन्तीसवें श्लोक में और तेरहवें
अध्याय के सत्ताईसवें श्लोक में किया गया है तथा जिस प्रकार आकाश तत्त्व को जानने वाला मनुष्य घड़ा, मकान, गुफा, स्वर्ग, पाताल और समस्त वस्तुओं के सहित सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में एक ही आकाश तत्व को देखता है-वैसे ही लोक दृष्टि से भिन्न-भिन्न प्रतीत होने वाले समस्त चराचर प्राणियों में उस अनुभव के द्वारा जो एक अद्वितीय अविनाशी, निर्विकार ज्ञान स्वरूप परमात्म भाव को विभाग रहित समभाव से व्याप्त देखना है। अर्थात् लोकदृष्टि से भिन्न-भिन्न प्रतीत होने वाले समस्त प्राणियों को और स्वयं अपने को एक अविनाशी परमात्मा से अभिन्न समझना है-यही पृथक्-पृथक् भूतों मंे एक अविनाशी परमात्म भाव को विभाग रहित देखना है।
प्रश्न-उस ज्ञान को तू सात्त्विक जान-इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-इस कथन से भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि जो ऐसा यथार्थ अनुभव है, वही वास्तव में सात्त्विक ज्ञान यानी सच्चा ज्ञान है। अतः कल्याण कामी मनुष्य को इसे ही प्राप्त करने की चेष्टा करनी चाहिये। इसके अतिरिक्त जितने भी सांसारिक ज्ञान हैं, वे नाम मात्र के ही ज्ञान हैं। वास्तविक ज्ञान नहीं हैं।
पृथक्त्वेन तु यज्ज्ञानं नानाभावान्पृथग्विधान्।
वेत्ति सर्वेषु भूतेषु तज्ज्ञानं विद्धि राजसम्।। 21।।
प्रश्न-सम्पूर्ण भूतों में भिन्न-भिन्न प्रकार के नाना भावों को अलग-अलग जानना क्या है?
उत्तर-कीट, पतंग, पशु, पक्षी, मनुष्य, राक्षस और देवता आदि जितने भी प्राणी हैं। उन सबमें आत्मा को उनके शरीरों की आकृति के भेद से स्वभाव के भेद से भिन्न-भिन्न प्रकार के नेक और अलग-अलग समझना अर्थात् यह समझना कि प्रत्येक शरीर में आत्मा अलग-अलग है और वे बहुत हैं तथा सब परस्पर विलक्षण हैं। यही सम्पूर्ण भूतों में भिन्न-भिन्न प्रकार के नाना भावों को अलग-अलग देखना है।
प्रश्न-उस ज्ञान को तू राजस जान-इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-इससे भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि उपर्युक्त प्रकार का जो अनुभव है, वह राजस ज्ञान है-अर्थात नाम मात्र का ही ज्ञान है, वास्तविक ज्ञान नहीं है। अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार आकाश के तत्त्व को न जानने वाला मनुष्य भिन्न-भिन्न घट, मठ आदि में अलग-अलग परिच्छिन्न आकाश समझता है और उसमें स्थित सुगन्ध-दुर्गन्धादि से उसका सम्बन्ध मानकर एक से दूसरे को विलक्षण समझता है, किन्तु उसका यह समझना भ्रम है। उसी प्रकार आत्म-तत्त्व को
न जानने के कारण समस्त प्राणियों
के शरीरों में अलग-अलग और
अनेक आत्मा समझना भी भ्रम मात्र है।-क्रमशः (हिफी)

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