सम्पूर्ण आकाश में व्याप्त था विराट स्वरूप
धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे (ग्यारहवां अध्याय-08)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक
प्रश्न-‘अनन्तबाहुम्’ का क्या भाव है?
उत्तर-जिसकी भुआओं का पार न हो, उसे ‘अनन्त बाहु’ कहते हैं। इससे अर्जुन ने यह भाव दिखलाया है कि आपके इस विराट रूप में जिस ओर देखता हूँ, उसी ओर मुझे अगणित भुजाएँ दिखलायी दे रही हैं।
प्रश्न-‘शशिसूर्यनेत्रम्’ का क्या अर्थ है?
उत्तर-इससे अर्जुन ने यह भाव दिखलाया है कि चन्द्रमा और सूर्य को आपके दोनों नेत्रों के स्थान में देख रहा हूँ। अभिप्राय यह है कि आपके इस विराट स्वरूप में मुझे सब ओर आपके असंख्य मुख दिखलायी दे रहे हैं उनमें जो आपका प्रधान मुख है, उस मुख पर नेत्रों के स्थान में मैं चन्द्रमा और सूर्य को देख रहा हूँ।
प्रश्न-‘दीप्तिहुताशवक्त्रम्’ का क्या भाव है?
उत्तर-हुताश अग्नि का नाम है तथा प्रज्वलित अग्नि को ‘दीप्तहुताश’ कहते हैं और जिसका मुख उस प्रज्वलित अग्नि के सदृश प्रकाशमान और तेजपूर्ण हो, उसे ‘दीप्तहुताशवक्त्र’ कहते हैं। इससे अर्जुन ने यह भाव दिखलाया है कि आपके प्रधान मुख को मैं सब ओर से प्रज्वलित अग्नि की भाँति तेज और प्रकाश से युक्त देख रहा हूँ।
प्रश्न-‘अपने तेज से जगत् को संतप्त करते हुए देखता हूँ इसका क्या अभिप्राय है?
उत्तर-इससे अर्जुन ने यह बतलाया है कि मुझे ऐसा दिखलायी दे रहा है, मानो आप अपने तेज से इसी सारे विश्व को जिसमें मैं खड़ा हूँ संतप्त कर रहे हैं।
द्यावापृथिव्योरिदमन्तरं हि व्याप्तं त्वयैकेन दिशश्व सर्वाः।
दृष्टा˜ु रूपमुग्रं तवेदं लोकत्रयं प्रव्यथितं महात्मन्।। 20।।
प्रश्न-इस श्लोक का क्या तात्पर्य है?
उत्तर-‘महात्मन्’ सम्बोधन से भगवान् को समस्त विश्व के महान् आत्मा बतलाकर अर्जुन यह कह रहे हैं कि आपका यह विराट् रूप इतना विस्तृत है कि स्वर्ग और पृथ्वी के बीच का यह सम्पूर्ण आकाश और सभी दिशाएँ
उससे व्याप्त हो रही हैं। ऐसा कोई स्थान मुझे नहीं दीखता, जहाँ आपका यह स्वरूप न हो। साथ ही मैं यह देख रहा हूँ कि आपका यह अद्भुत और अत्यन्त उग्र रूप इतना भयानक है कि स्वर्ग, मत्र्य और अन्तरिक्ष इन तीनों लोकों के जीव इसे देखकर भय के मारे अत्यन्त ही त्रस्त-पीड़ित हो रहे हैं। उनकी दशा अत्यन्त ही शोचनीय हो गयी है।
अमी हि त्वां सुरसंघा विशन्ति केचि˜ीताः प्राञंजलयो गृणन्ति।
स्वस्तीत्युक्त्वा महर्षि सिद्ध संघाः स्तुवन्ति त्वां स्तुतिभिः पुष्कलाभिः।। 21।।
प्रश्न-‘सुरसंघाः’ के साथ ‘अमी’ विशेषण देकर वे ही आप में प्रवेश कर रहे हैं’ यह कहने का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-‘सुरसंघाः‘ पद के साथ परोक्षवाची ‘अमी’ विशेषण देकर अर्जुन ने यह भाव दिखलाया है कि मैं जब स्वर्ग लोक गया था, तब वहाँ जिन-जिन देव समुदायों को मैंने देखा था-मैं आज देख रहा हूँ कि वे ही आपके इस विराट रूप में प्रवेश कर रहे हैं।
प्रश्न-कितने ही भयभीत होकर हाथ जोड़े आपके नाम और गुणों का उच्चारण कर रहे हैं-इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-इससे अर्जुन ने यह भाव दिखाया है कि बहुत से देवताओं को भगवान् के उग्र रूप में प्रवेश करते देखकर शेष बचे हुए देवता अपनी बहुत देर तक बचे रहने की सम्भावना न जानकर डरके मारे हाथ जोड़कर आपके नाम और गुणों का बखान करते हुए आपको प्रसन्न करने की चेष्टा कर रहे हैं।
प्रश्न-‘महर्षिसिद्धसंघा‘ किनका वाचक है और वे ‘सबका कल्याण हो’ ऐसा कहकर पुष्कल स्तोत्रों द्वारा आपकी स्तुति करते हैं, इस कथन का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-मरीचि, अंगिरा, भृगु आदि महर्षियों और ज्ञाताज्ञात सिद्धजनों के जितने भी विभिन्न समुदाय हैं-उन सभी का वाचक यहाँ ‘महिर्ष सिद्धसंगाः‘ पद है। वे सबका कल्याण हो’ ऐसा कहकर पुष्कल स्तोत्रों द्वारा आपकी स्तुति करते हैं-इस कथन से अर्जुन ने यह भाव दिखलाया है कि आपके तत्त्व का यथार्थ रहस्य जानने वाले होने के कारण वे आपके इस उग्र रूप को देखकर भयभीत नहीं हो रहे हैं वरं समस्त जगत् के कल्याण के लिये प्रार्थना करते हुए अनेकों प्रकार के सुन्दर भावमय स्तोत्रों द्वारा श्रद्धा और प्रेमपूर्वक आपका स्तवन कर रहे हैं-ऐसा मैं देख रहा हूँ।
रुद्रादित्या बसवो ये च साध्या विश्वेऽश्विनौ मरुतश्वोष्मपाश्व।
गन्धर्वयक्षासुरसिद्धसंघा वीक्षन्ते त्वां विस्मिताश्वैव सर्वे।। 22।।
प्रश्न-‘रुद्राः‘, आदित्याः‘, ‘वसवः’, ‘साध्याः‘, विश्वे’, ‘अश्विनौ’ और ‘मरुतः‘-ये सब अलग-अलग किन-किन देवताओं के वाचक हैं?
उत्तर-ग्यारह रुद्र, बारह आदित्य, आठ वसु और उन्चास मरुत्-इन चार प्रकार के देवताओं के समूहों का वर्णन तो दसवें अध्याय के इक्कीसवें और तेईसवें श्लोकों की व्याख्या और उसकी टिप्पणी में तथा अश्विनी कुमारों का ग्यारहवें अध्याय के छठे श्लोक की टिप्पणी में किया जा चुका है-वहाँ देखना चाहिये। मनु, अनुमन्ता, प्राण, नर, यान, चित्ति, हय, नय, हंस, नारायण, प्रभव और विभु-ये बारह साध्य देवता हैं और ऋतु, दक्ष, श्रव, सत्य, काल, काम,
धुनि, कुरुवान्, प्रभवान् और रोचमान-ये दस विश्वेदेव हैं। आदित्य और रुद्र आदि देवताओं के आठ गण (समुदाय) हैं, उन्हीं में से साध्य और विश्वेदेव भी दो विभिन्न गण हैं।
प्रश्न-‘ऊष्मपाः‘ पद किनका वाचक है?
उत्तर-जो ऊष्म (गरम) अन्न खाते हों, उनको ‘ऊष्मपाः‘ कहते हैं। मनु स्मृति के तीसरे अध्याय के दो सौ सैंतीसवें श्लोक में कहा है कि पितर लोग गरम अन्न ही खाते हैं। अतएव यहाँ ‘ऊष्मपाः’ के पद पितरों के समुदाय का वाचक समझना चाहिये।
प्रश्न-‘गन्धर्व यक्षासुरसिद्धसंगाः’ यह पद किन-किन समुदायों का वाचक है।
उत्तर-कश्यप जी की पत्नी मुनि और प्राधा से तथा अरिष्टा से गन्धर्वों की उत्पत्ति मानी गयी है, ये राग-रागिनियों के ज्ञान में निपुण हैं और देवलोक की वाद्य नृत्यकाल में कुशल समझे जाते हैं। यक्षों की उत्पत्ति महर्षि कश्यप की खसा नामक पत्नी से मानी गयी है। भगवान् शंकर के गणों में भी यक्षलोग हैं। इन यक्षों के और उत्तम राक्षसों के राजा कुबेर माने जाते हैं। देवताओं के विरोधी दैत्य, दानव और राक्षसों को असुर कहते हैं। कश्यप जी की स्त्री दिति से उत्पन्न होने वाले ‘दैत्य’ और ‘दनु’ से उत्पन्न होने वाले ‘दानव’ कहलाते हैं। राक्षसों की उत्पत्ति विभिन्न प्रकार से हुई है। कपिल आदि सिद्धजनों को ‘सिद्ध’ कहते हैं। इन सबके विभिन्न अनेकों समुदायों का वाचक यहाँ ‘गन्धर्वयक्षासुरसिद्धसंगाः‘ पद है।-क्रमशः (हिफी)