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जन-जन तक पहुंचे कोर्ट की आवाज

(अशोक त्रिपाठी-हिफी फीचर)

अदालतों के फैसले सिर्फ वादी-प्रतिवादी तक ही सीमित नहीं रहते हैं। उनमें निहित भावना जन-जन तक पहुंचनी चाहिए। ऐसा क्यों नहीं होता है? यह भी विचारणीय है। कुछ मुकदमें तो एक-डेढ़ दशक तक निर्णीत ही नहीं हो पाते। वादी और प्रतिवादी पक्ष के लोग स्वर्ग सिधार जाते हैं। निर्णय भी मिलता है तो उससे पूरी तरह कोई संतुष्ट नहीं होता। इसके बावजूद अदालतों का समय बर्बाद करने के लिस याचिकाएं दायर की जाती हैं उस पर कोर्ट की आवाज को सुनना चाहिए।

अदालतों के फैसले सिर्फ वादी-प्रतिवादी तक ही सीमित नहीं रहते हैं। उनमें निहित भावना जन-जन तक पहुंचनी चाहिए। ऐसा क्यों नहीं होता है? यह भी विचारणीय है। कुछ मुकदमें तो एक-डेढ़ दशक तक निर्णीत ही नहीं हो पाते। वादी और प्रतिवादी पक्ष के लोग स्वर्ग सिधार जाते हैं। निर्णय भी मिलता है तो उससे पूरी तरह कोई संतुष्ट नहीं होता। इसके बावजूद अदालतों का समय बर्बाद करने के लिस याचिकाएं दायर की जाती हैं उस पर कोर्ट की आवाज को सुनना चाहिए। अभी 4 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट और इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसलों को सुनकर ऐसा लगा कि क्या इन पर बहस नहीं होनी चाहिए। कोर्ट की आवाज को मीडिया भी महत्व नहीं दे रही है। मैं अंग्रेजी के अखबार सरसरी तौर पर ही पढ़ता हूं लेकिन वे ऐसी खबरों को महत्व देते हैं। समाजवादी पार्टी की सरकार मेें यूपी मंे मंत्री रहे गायत्री प्रजापति को लेकर इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक फैसला सुनाया। इस खबर को एक हिन्दी अखबार ने भी विस्तार से छापा कि किस तरह गायत्री प्रजापति ने लाखों की घोषित आय को करोड़ों मंे बदल दिया। कुछ अखबारों ने इस खबर को बहुत थोड़ा स्थान दिया। इसी प्रकार सुप्रीम कोर्ट के कुछ फैसले ध्यान खींचते हैं। इनमंे अदालत का समय जाया करने वाली याचिकाओं के बारे मंे विशेष रूप से कहा गया। इन फैसलों के बीच सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला लिव इन रिलेशनशिप के बारे में है। कोर्ट ने स्पष्ट रूप से कहा कि नागरिक आजादी के नाम पर आप यहां तक चले गये लेकिन यह भारतीय संस्कृति के लिए व्यावहारिक नहीं है। इसके बावजूद आप अदालत से यह अपेक्षा करें कि लिव इन रिलेशनशिप मंे रहते हुए आपको पुलिस सुरक्षा भी दिलाई जाए तो हमारे संविधान मंे ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। अदालत अव्यावहारिक परम्पराओं को बढ़ावा नहीं दे सकती।
उत्तर प्रदेश के पूर्व मंत्री गायत्री प्रजापति मार्च 2017 मंे एक महिला से गैंगरेप और उसकी नाबालिग बेटी से भी दुराचार के प्रयास के आरोप मंे जेल भेजे गये। इसके अलावा गायत्री प्रजापति पर घोषित आय से अधिक सम्पत्ति का मामला भी चल रहा हैं। प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने इस मामले में सबूत एकत्रित किये। धनशोधन निवारण अधिनियम (पीएमएलए) के तहत एक विशेष अदालत मंे उनके खिलाफ कार्यवाही चल रही है। इस कार्यवाही को रद्द करने के लिए गायत्री प्रजापति ने इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ मंे याचिका दायर की थी। ईडी ने आरोप लगाया कि कुछ लाख की घोषित आय के विपरीत गायत्री प्रजापति ने 2।98 करोड़ की बेनामी सम्पत्तियां खड़ी कर दीं। इस प्रकार 2012 से 2017 की अवधि के दौरान उत्तर प्रदेश मंे मंत्री रहते हुए अपने आधिकारिक पद का दुरुपयोग किया। इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ ने गायत्री प्रजापति की याचिका खारिज करते हुए सम्पत्ति के इस तरह विस्तार पर सवाल उठाया जो जनता के बीच पहुंचना चाहिए। जनप्रतिनिधियों की सम्पत्ति कौन से जादू से इतनी बढ़ जाती है, जनता को यह भी बताया जाना चाहिए। ईडी ने गायत्री प्रजापति की 36।94 करोड़ की सम्पत्ति अटैच की थी।
उधर, फालतू याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट ने नाराजगी जाहिर करते हुए एक वकील पर 25 हजार का जुर्माना लगाया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि चेयरमैन और चेयर पर्सन जैसे शब्दों को लेकर याचिका अदालत की प्रक्रिया का दुरुपयोग है। वकील से जुर्माने की राशि अधिवक्ता कल्याण कोष में जमा करायी गयी है। सबसे विचारणीय फैसला तो लिव इन रिलेशनशिप को लेकर इलाहाबाद हाईकोर्ट का है। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अपने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा है कि हम लिव-इन-रिलेशनशिप के खिलाफ नहीं है, लेकिन अवैध रिलेशनशिप के खिलाफ है। हाईकोर्ट ने शादीशुदा महिला और उसके प्रेमी की ओर से दाखिल याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा कि सामाजिक ताने-बाने की कीमत पर अवैध संबंधों को पुलिस सुरक्षा नहीं दी जा सकती है। कोर्ट ने कहा कि अवैध संबंध रखने वाले को सुरक्षा देने का अर्थ है कि अवैध लिव-इन रिलेशनशिप को मान्यता देना। इसी के साथ कोर्ट ने दूसरे पुरूष के साथ लिव-इन रिलेशनशिप में रह रही शादीशुदा पत्नी याची की अपने पति से सुरक्षा खतरे की आशंका पर सुरक्षा की मांग में दाखिल याचिका खारिज कर दी है।
यह आदेश जस्टिस रेनू अग्रवाल ने प्रयागराज की सुनीता व अन्य की याचिका पर दिया है। याची की ओर से तर्क दिया गया कि वह 37 साल की बालिग महिला है। वह पति के यातनापूर्ण व्यवहार के कारण छह जनवरी 2015 से ही दूसरे याची के साथ लिव-इन में स्वेच्छा और शांतिपूर्वक तरीके से रह रही है। पति उसके शांतिपूर्ण जीवन को खतरे में डालने की कोशिश कर रहा है। उसे सुरक्षा प्रदान की जाए। दोनों के खिलाफ कोई आपराधिक केस नहीं है और न ही इस मामले में कोई केस दर्ज है। सरकार की तरफ से कहा गया कि याची पर पुरूष के साथ अवैध रूप से लिव-इन में रह रही है। वह शादीशुदा हैं, तलाक नहीं हुआ है। उसका पति जीवित है।
कोर्ट ने पहले भी इस तरह के मामले में सुरक्षा देने से इंकार कर दिया है। कोर्ट ने कहा कि संरक्षण नहीं दिया जा सकता क्योंकि कल को याचिकाकर्ता यह कह सकते हैं कि कोर्ट ने उनके अवैध संबंधों को स्वीकार दिया है। पुलिस को उन्हें सुरक्षा देने का निर्देश अप्रत्यक्ष रूप से ऐसे अवैध संबंधों को हमारी सहमति मानी जायेगी। विवाह की पवित्रता में तलाक पहले से ही शामिल है। यदि याची को अपने पति के साथ कोई मतभेद है तो उसे लागू कानून के अनुसार सबसे पहले अपने पति या पत्नी से अलग होने के लिए आगे बढना होगा। पति के रहते पत्नी को पर पुरूष के साथ अवैध संबंध में रहने की इजाजत नहीं दी जा सकती।
अदालतों के ये फैसले क्या सिर्फ कुछ व्यक्तियों तक ही सीमित रहने चाहिए? इन पर संवाद गोष्ठियां भी होनी चाहिए। (हिफी)

 

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