Uncategorizedअध्यात्मधर्म-अध्यात्म

सात्विक कर्मों मंे शरीर का अहंकार नहीं

धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे (अट्ठारहवां अध्याय-11)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)

रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके।-प्रधान सम्पादक

यत्तु कामेप्सुना कर्म साहंकारेण वा पुनः।
क्रियते बहुलायासं त˜ाजसमुदाहृतम्।। 24।।
प्रश्न-बहुलायासम् विशेषण के सहित ‘कर्म’ पद किन कर्मों का वाचक है तथा इस विशेषण के प्रयोग का यहाँ क्या भाव है?
उत्तर-जिन कर्मों में नाना प्रकार की बहुत सी क्रियाओं का विधान है तथा शरीर में अहंकार रहने के कारण जिन कर्मों को मनुष्य भार रूप समझकर बड़े परिश्रम और दुःख के साथ पूर्ण करता है, ऐसे काम्य कर्मों और व्यावहारिक कर्मों का वाचक यहाँ बहुलायासम विशेषण के सहित कर्म पद है। इस विशेषण का प्रयोग करके सात्त्विक कर्म से राजस कर्म का भेद स्पष्ट किया गया है। अभिप्राय यह है कि सात्त्विक कर्मों के कर्ता का शरीर में अहंकार नहीं होता और कर्मों में कर्तापन नहीं होता अतः उसे किसी भी क्रिया के करने में किसी प्रकार के परिश्रम या द्वेष का बोध नहीं होता। इसलिये उसके कर्म आयासयुक्त नहीं हैं किन्तु राजस कर्म के कर्ता का शरीर में अहंकार होने के कारण वह शरीर के परिश्रम और दुःखों से स्वयं दुखी होता है। इसके सिवा सा़ित्त्वक कर्मों के कर्ता द्वारा केवल शाó दृष्टि से या लोकदृष्टि से कर्तव्य रूप में प्राप्त हुए कर्म ही किये जाते हैं। अतः उसके द्वारा कर्मों का विस्तार नहीं होता किन्तु राजस कर्म का कर्ता आसक्ति और कामना से प्रेरित होकर प्रतिदिन नये-नये कर्मों का आरम्भ करता रहता है, इससे उसके कर्मों का बहुत विस्तार हो जाता है। इस कारण भी ‘बहुलायासम्’ विशेषण का प्रयोग करके बहुत परिश्रम वाले कर्मों को राजस बतलाया गया है।
प्रश्न-‘कामेप्सुना’ पद कैसे पुरुष का वाचक है?
उत्तर-इन्द्रियों के भोगों में ममता और आसक्ति रहने के कारण जो निरन्तर नाना प्रकार के भोगों की कामना करता रहता है तथा जो कुछ क्रिया करता है स्त्री, पुत्र, धन, मकान, मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा आदि इस लोक और परलोक के भोगों के लिये ही करता है। ऐसे स्वार्थ परायण पुरुष वाचक यहाँ ‘कामेप्सुना’ पद है।
प्रश्न-‘वा’ पद के प्रयोग का क्या भाव है?
उत्तर-‘वा’ पद का प्रयोग करके यह भाव दिखलाया गया है कि जो कर्म भोगों की प्राप्ति के लिये किये जाते हैं, वे भी राजस हैं और जिनमें भोगों की इच्छा नहीं है, किन्तु जो अहंकारपूर्वक किये जाते हैं। वे भी राजस हैं। अभिप्राय यह है कि जिस पुरुष में भोगों की कामना और अहंकार दोनों हैं, उसके द्वारा किये हुए कर्म राजस हैं-इसमंे तो कहना ही क्या है, किन्तु इनमें से किसी एक दोष से युक्त पुरुष द्वारा किये हुए कर्म भी राजस ही हैं।
प्रश्न-‘साहंकारेण’ पद कैसे मनुष्य का वाचक है?
उत्तर-जिस मनुष्य का शरीर में अभिमान है और जो प्रत्येक कर्म अहंकारपूर्वक करता है तथा मैं अमुक कर्म का करने वाला हूँ, मेरे समान दूसरा कौन है मैं यह कर सकता हूँ, वह कर सकता हूँ इस प्रकार के भाव मन में रखने वाला और वाणी द्वारा इस तरह की बातें करने वाला है, उसका वाचक यहाँ ‘साहंकारेण’ पद है।
प्रश्न-वह कर्म राजस कहा गया है-इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-इससे यह भाव दिखलाया गया है कि उपर्युक्त भावों से किया जाने वाला कर्म राजस है और राजस कर्म का फल दुःख बतलाया गया है तथा रजोगुण कर्मों के संग से मनुष्य को बाँधने वाला है। अतः मुक्ति चाहने वाले मनुष्य को ऐसे कर्म नहीं करने चाहिये।
अनुबन्धं क्षयं हिंसामनवेक्ष्य च पौरुषम्।
मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते।। 25।।
प्रश्न-परिणाम, हानि, हिंसा और सामथ्र्य का विचार करना क्या है और इनका विचार बिना किये केवल मोह से कर्म का आरम्भ करना क्या है?
उत्तर-किसी भी कर्म का आरम्भ करने से पहले अपनी बुद्धि से विचार करके जो यह सोच लेना है कि अमुक कर्म करने से उसका भावी परिणाम अमुक प्रकार से सुख की प्राप्ति या अमुक प्रकार से दुःख की प्राप्ति होगा, यह उसके अनुबन्ध का यानी परिणाम का विचार करना है तथा जो यह सोचता है कि अमुक कर्म में इतना धन व्यय करना पड़ेगा इतने बल का प्रयोग करना पड़ेगा, इतना समय लगेगा, अमुक अंश में धर्म की हानि होगी और अमुक-अमुक प्रकार की दूसरी हानियाँ होंगी-यह क्षय का यानी हानि का विचार करना है और जो यह सोचना है कि अमुक कर्म के करने से अमुक मनुष्यों को या अन्य प्राणियों को अमुक प्रकार से इतना कष्ट पहुँचेगा, अमुक मनुष्योें या अन्य प्राणियों का जीवन नष्ट होगा। यह हिंसा का विचार करना है। इसी तरह जो यह सोचना है कि अमुक कर्म करने के लिये इतने सामथ्र्य की आवश्यकता है, अतः इसे पूरा करने की सामथ्र्य हममें है या नहीं। यह पौरुष का यानी सामथ्र्य का विचार करना है। इस तरह परिणाम, हानि, हिंसा और पौरुष का विचार न करके केवल मोह से कर्म का आरम्भ करना है।
प्रश्न-वह कर्म तामस कहा जाता है-इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-इस कथन से यह भाव दिखलाया गया है कि इस प्रकार बिना सोचे-समझे जिस कर्म का आरम्भ किया जाता है, वह कर्म तमोगुण के कार्य मोह से आरम्भ किया हुआ होने के कारण तामस कहा जाता है? तामस कर्म का फल अज्ञान यानी सूकर, कूकर, वृक्ष आदि ज्ञान रहित योनियों की प्राप्ति या नरकों की प्राप्ति बतलाया गया है अतः चाहिये।
मुक्तसंगोऽनहंवादी घृत्युत्साहसमन्वितः।
सिद्धîसिद्धîोर्निर्विकारः कर्ता सात्त्विक उच्यते।। 26।।
प्रश्न-‘मुक्तसंग’ कैसे मनुष्य को कहते हैं?
उत्तर-जिस मनुष्य का कर्मों से उनके फलरूप समस्त भोगों से किंचित मात्र भी सम्बन्ध नहीं रहा है-अर्थात् मन, इन्द्रिय और शरीर द्वारा जो कुछ भी कर्म किये जाते हैं उनमें और उनके फलरूप मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा, स्त्री, पुत्र, धन, मकान आदि इस लोक और परलोक के समस्त भोगों में जिसकी किंचित मात्र भी ममता, आसक्ति और कामना नहीं रही है-ऐसे मनुष्य को ‘मुक्तसंग’ कहते हैं।
प्रश्न-‘अनहंवादी’ का क्या भाव है?
उत्तर-मन, बुद्धिः इन्द्रियाँ और शरीर इन अनात्म पदार्थों में आत्म बुद्धि न रहने के कारण जो किसी भी कर्म में कर्तापन का अभिमान नहीं करता तथा इसी कारण जो आसुरी प्रकृति वालों की भाँति, मैंने अमुक मनोरथ सिद्ध कर लिया है, अमुक को और सिद्ध कर लूँगा मैं ईश्वर हूँ, भोगी हूँ, बलवान हूँ, सुखी हूँ मेरे समान दूसरा कौन है, मैं यज्ञ करूँगा, दान दूँगा इत्यादि अहंकार के वचन कहने वाला नहीं है, किन्तु सरल भाव से अभिमान शून्य वचन बोलने वाला है-ऐसे मनुष्य को ‘अनहंवादी’ कहते हैं।-क्रमशः (हिफी)

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button