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शास्त्र विरुद्ध तप करने वाले में नहीं होती श्रद्धा

धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे (सत्तरहवां अध्याय-03)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)

रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके।-प्रधान सम्पादक

प्रश्न-इस प्रकार तप करने वाले मनुष्यों को दम्भ और अहंकार से युक्त बतलाने का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-इस प्रकार के शाó विरुद्ध भयानक तप करने वाले मनुष्यों में श्रद्धा नहीं होती। वे लोगों को ठगने के लिये और उन पर रोब जमाने के लिये पाखण्ड रचते हैं तथा सदा अहंकार से फूले रहते हैं। इसी से उन्हें दम्भ और अहंकार से युक्त कहा गया है।
प्रश्न-ऐसे मनुष्यों को कामना, आसक्ति और बल के अभिमान से युक्त कहने का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-उनकी भोगों में अत्यन्त आसक्ति होती है, इससे उनके चित्त में निरन्तर उन्हीं भोगों की कामना बढ़ती रहती है। वे समझते हैं कि हम जो कुछ चाहेंगे, वही प्राप्त कर लेंगे, हमारे अन्दर अपार बल है, हमारे बल के सामने किसकी शक्ति है जो हमारे कार्य में बाधा दे सके। इसी अभिप्राय से उन्हें कामना, आसक्ति और बल के अभिमान से युक्त कहा गया है।
कर्शयन्तः शरीरस्थं भूतग्राममचेतसः।।
मां चैवान्तः शरीरस्थं तान्विद्धîासुरनिश्चयान्।। 6।।
प्रश्न-शरीर रूप से स्थित भूत समुदाय का क्या अर्थ है?
उत्तर-पंचमहाभूत, मन, बुद्धि, अहंकार, दस इन्द्रियों और पाँच इन्द्रियों के विषय-इन तेईस तत्त्वों के समूह का नाम भूतसमुदाय है। इसका वर्णन तेरहवें अध्याय के पाँचवें श्लोक में क्षेत्र के नाम से आ चुका है।
प्रश्न-वे लोग भूत समुदाय को और अन्तःकरण में स्थित मुझ परमात्मा को भी कृश करने वाले होते हैं, इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-शाó से विपरीत मनमाना घोर तप करने वाले मनुष्य नाना प्रकार के भयानक आचरणों से उपर्युक्त भूत समुदाय को यानी शरीर को क्षीण और दुर्बल करते हैं, इतना ही नहीं है वे अपने घोर आचरणों से अन्तःकरण में स्थित परमात्मा को भी क्लेश पहुँचाते हैं क्योंकि सबके हृदय में आत्म रूप से परमात्मा स्थित है। अतः स्वयं अपने आत्मा को या किसी के भी आत्मा को दुःख पहुँचाना परमात्मा को ही दुःख पहुँचाना है। इसलिये उन्हें भूत समुदाय को और परमात्मा को क्लेश पहुँचाने वाले कहा गया है।
प्रश्न-‘अचेतसः’ पद का क्या अर्थ है?
उत्तर-शाó के प्रतिकूल आचरण करने वाले, बोध शक्ति से रहित, आवरण दोष युक्त मूढ मनुष्यों का वाचक ‘अचेतसः पद है।
प्रश्न-ऐसे मनुष्यों को आसुर-निश्चय वाले कहने का क्या अभ्रिपाय है?
उत्तर-उपर्युक्त शाó विधि से रहित घोर तामस तप करने वाले, दम्भी और घमण्डी मनुष्य सोलहवें अध्याय में वर्णित आसुरी-सम्पदा वाले ही हैं, यही भाव दिखलाने के लिये उनको ‘आसुर-निश्चय वाले’ कहा गया है।
आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः।
यज्ञस्तपस्तथा दानं तेषां भेदमिमं श्रणु।। 7।।
प्रश्न-‘अपि’ पद का क्या भाव है?
उत्तर-‘अपि’ पद से भगवान् यह दिखलाते हैं कि जैसे श्रद्धा और यजन सात्त्विक, राजस और तामस भेद से तीन प्रकार के होते हैं, वैसे ही आहार भी तीन प्रकार के होते हैं।
प्रश्न-‘सर्वस्य पद का क्या अर्थ है?
उत्तर-सर्वस्य पद यहाँ मनुष्य मात्र का वाचक है, क्योंकि आहार सभी मनुष्य करते हैं और यह प्रकरण भी मनुष्यें का ही है।
प्रश्न-आहारादि के सम्बन्ध में अर्जुन ने कुछ भी नहीं पूछा था, पर बिना ही पूछे भगवान् आहारादि की बात क्यों कही?
उत्तर-मनुष्य जैसा आहार करता है, वैसा ही उसका अन्तःकरण बनता है और अन्तःकरण के अनुरूप ही श्रद्धा भी होती है। आहार शुद्ध होगा तो उसके परिणाम स्वरूप अन्तःकरण भी शुद्ध होगा। आहारशुद्धी सत्त्वशुद्धिः। अन्तःकरण की शुद्धि से ही विचार, भाव, श्रद्धादि गुण और क्रियाएँ शुद्ध होंगी। अतएव इस प्रसंग में आहार का विवेचन आवश्यक है। दूसरे, यजन अर्थात् देवादि का पूजन सब लोग नहीं करते, परन्तु आहार तो सभी करते हैं। जैसे जो जिस गुण वाले देवता, यक्ष-राजक्ष या भूत-प्रतों की पूजा करता है-वह उसी के अनुसार सात्त्विक, राजस और तामस आहारों में जो आहार जिसको प्रिय होता है, वह उसी गुण वाला होता है। इसी मात्र को लेकर श्लोक में ‘प्रियः’ पद देकर विशेष लक्ष्य कराया गया है। इसीलिये भगवान् ने यहाँ आहार के तीन भेद बतलाये हैं तथा सात्त्विक आहार का ग्रहण कराने के लिये और राजस-तामस का
त्याग कराने के लिये भी इसके तीन भेद बतलाये हैं। यही बात यज्ञ, दान और तप के विषय में समझ लेनी चाहिये।
आयुः सत्त्वबलारोग्यसुख प्रीतिविवर्धनः।
रस्याः óिग्धाः स्थिरा हृद्या आहाराः सात्त्विकप्रियाः।। 8।।
प्रश्न-आयु, बुद्धि, बल, आरोग्य, सुख और प्रीति का बढ़ना क्या है और उनको बढ़ाने वाले आहार कौन-से हैं?
उत्तर-(1) आयु का अर्थ है उम्र या जीवन, जीवन की अवधि का बढ़ जाना आयु का बढ़ना है।
(2) सत्त्व का अर्थ है बुद्धि। बुद्धि का निर्मल, तीक्ष्ण एवं यथार्थ तथा सूक्ष्मदर्शिनी होना ही सत्त्व का बढ़ना है।
(3) बल का अर्थ है सत्कार्य में सफलता दिलाने वाली मानसिक और शारीरिक शक्ति। इस आन्तर एवं बाह्य शक्ति का बढ़ना ही बल का बढ़ना है।
(4) मानसिक और शारीरिक रोगों का नष्ट होना ही आरोग्य का बढ़ना है।
(5) हृदय में सन्तोष, सात्त्विक प्रसन्नता और पुष्टि का होना और मुखादि शरीर के अंगों पर शुद्ध भाव जनित आनन्द के चिन्हों का प्रकट होना सुख है, इनकी वृद्धि सुख का बढ़ना है।
(6) चित्त वृत्ति का प्रेम भाव सम्पन्न हो जाना और शरीर मंे प्रीतिकर चिन्हों का प्रकट होना ही प्रीति का बढ़ना है।
उपर्युक्त आयु, बुद्धि और बल
आदि को बढ़ाने वाले जो दूध, घी, शाक, फल, चीनी, गेहूँ, जौ, चना,
मूँग और चावल आदि सात्त्विक
आहार हैं-उन सबको समझाने के
लिये आहार का यह लक्षण किया
गया है?-क्रमशः (हिफी)

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