भोग योनियांे में नवीन कर्म करने का अधिकार नहीं
धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे (अट्ठारहवां अध्याय-06)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके।-प्रधान सम्पादक
प्रश्न-‘पृथग्विधम्’ विशेषण सहित ‘करणम्’ पद किसका वाचक है।
उत्तर-मन, बुद्धि और अहंकार भीतर के कारण हैं तथा पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और पाँच कर्मेन्द्रियाँ ये दस बाहर के कारण हैं इनके सिवा और भी जो-जो स्रुवा आदि उपकरण यज्ञादि कर्मों के करने में सहायक होते हैं, वे सब बाह्य करण के अन्तर्गत हैं। इसी प्रकार भिन्न-भिन्न कर्मों के करने में जितने भी भिन्न-भिन्न द्वार अथवा सहायक हैं उन सबका वाचक यहाँ ‘पृथग्विधम्’ विशेषण के सहित ‘करणम्’ पद है।
प्रश्न-‘विविधाः’ और ‘पृथक्’ इन दोनों पदों के सहित ‘चेष्टा’ किसका वाचक है?
उत्तर-एक स्थान से दूसरे स्थान में गमन करना, हाथ-पैर आदि अंगों का संचालन, श्वासों का आना-जाना, अंगों को सिकोड़ना-फैलाना, आँखों को खोलना और मूँदना, मन में संकलप-विकल्पों का होना आदि जितनी भी हलचल रूप चेष्टाएँ हैं-उन नाना प्रकार की भिन्न-भिन्न समस्त चेष्टाओं का वाचक यहाँ ‘विविधाः’ और ‘पृथक्’ इन दोनों पदों के सहित ‘चेष्टाः‘ पद है।
प्रश्न-यहाँ दैवम पद किसका वाचक है और उसके साथ ‘पश्चमम्’ पद के प्रयोग का क्या भाव है?
उत्तर-पूर्वकृत शुभाशुभ कर्मों के संस्कारों का वाचक यहाँ ‘दैवम्’ पद है, प्रारब्ध भी इसी के अन्तर्गत है। बहुत लोग इसे ‘अदृष्ट’ भी कहते हैं। इसके साथ ‘पश्चमम्’ पद का प्रयोग करके ‘पश्च’ संख्या की पूर्ति दिखलायी गयी है। अभिप्राय यह है कि पूर्व श्लोकों में जो पाँच हेतुओं के सुनने के लिये कहा गया था, उनमें से चार हेतु तो दैव के पहले अलग बतलाये गये हैं और पाँचवों हेु यह दैव है।
शरीरवाड्मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः।
न्याय्यं वा विपरीतं वा पश्चैते तस्य हेतवः।। 15।।
प्रश्न-‘नरः’ पद यहाँ किसका वाचक है और इसके प्रयोग का क्या भाव है?
उत्तर-‘नरः’ पद यहाँ किसका वाचक है। इसका प्रयोग करके यह भाव दिखलाया है कि मनुष्य शरीर में ही जीव पुण्य और पाप रूप नवीन कर्म कर सकता है। अन्य सब भोग योनियाँ हैं उनमें पूर्वकृत कर्माें का फल भोगा जाता है, नवीम कर्म करने का अधिकार नहीं है।
प्रश्न-शरीर वाडयनोभिः पद शरीर शब्द से किसका वाक से किसका और मनस् से किसका ग्रहण होता है? तथा यहाँ इस पद के प्रयोग का क्या भाव है?
उत्तर-उपर्युक्त पद में शरीर शब्द से वाणी के सिवा समस्त इन्द्रियों के सहित स्थूल शरीर को लेना चाहिये वाक् शब्द का अर्थ वाणी समझना चाहिये और मनस् शब्द से समस्त अन्तःकरण को लेना चाहिये। मनुष्य जितने भी पुण्य पाप रूप कर्म करता है उन सबको शाóकारों ने कायिक, वाचिक और मानसिक-इस प्रकार तीन भेदों में विभक्त किया है। अतः यहाँ इस पद का प्रयोग करके समस्त शुभाशुभ कर्मों का समाहार किया गया है।
प्रश्न-‘नाय्यम्’ पद किस कर्म का वाचक है?
उत्तर-वर्ण, आश्रम, प्रकृति और परिस्थिति के भेद से जिसके लिये जो कर्म कर्तव्य माने गये हैं-उन न्यायपूर्वक किये जाने वाले यज्ञ, दान, तप,
विद्याध्ययन, युद्ध, कृषि, गोरक्षा, व्यापार, सेवा आदि समस्त शाó विहित कर्मों के समुदाय का वाचक यहाँ ‘न्याय्यम्’ पद है।
प्रश्न-‘विपरीतम्’ पद किस कर्म का वाचक है?
उत्तर-वर्ण, आश्रम, प्रकृति और परिस्थिति के भेद से जिसके लिये जिन कर्मों के करने का शाóांे में निषेध किया गया है तथा जो कर्म, नीति और धर्म के प्रतिकूल हैं-ऐसे असत्य भाषण, चोरी, व्यभिचार, हिंसा, मद्यपान, असत्य भाषण, चोरी, व्यभिचार, हिंसा, मद्यपान, अभक्ष्य भक्षण आदि समस्त पाप कर्मों का वाचक यहाँ विपरीतम् पद है।
प्रश्न-‘यत्’ पद के सहित ‘कर्म’ पद किसका वाचक है और उसके ये पाँचों कारण है-इस कथन का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-‘यत्’ पद के सहित ‘कर्म’ पद यहाँ मन, वाणी और शरीर द्वारा किये जाने वाले जितने भी पुण्य और पाप रूप कर्म हैं जिनका इस जन्म तथा जन्मान्तर में जीव को फल भोगना पड़ता है-उन समस्त कर्मों का वाचक है तथा उसके ये पाँचों कारण हैं इस वाक्य से यह भाव दिखलाया है कि इन पाँचों के संयोग बिना कोई भी कर्म नहीं बन सकता जितने भी शुभाशुभ कर्म होते हैं इन पाँचों के संयोग से ही होते हैं। इसलिये बिना कर्तापन के किया जाने वाला कर्म वास्तव में कर्म नहीं है, यह बात सतरहवें श्लोक में कही गयी है।
तत्रैवं सति कर्तारमात्मानं केवलं तु यः।
पश्यत्कृतबुत्विान्न स पश्यति दुर्मतिः।। 16।।
प्रश्न-यहाँ ‘एवम’ के सहित ‘सति’ पद का क्या भाव है?
उत्तर-‘एवम् के सहित ‘सति’ पद का प्रयोग करके यह भाव दिखलाया गया है कि समस्त कर्मों के होने में उपर्युक्त अधिष्ठनादि ही कारण हैं, आत्मा का उन कर्मों से वास्तव में कुछ भी सम्बन्ध नहीं है, इसलिये आत्मा को कर्ता मानना किसी प्रकार भी सम्भव नहीं है। तो भी लोग मूर्खतावश अपने को कर्मों का कर्ता मान लेते हैं, यह कितने आश्चर्य की बात है।
प्रश्न-‘अकृत बुद्धित्वात्’ का क्या भाव है?
उत्तर-सत्संग और सत्-शाóों के अभ्यास द्वारा तथा विवेक, विचार और शम-दमादि आध्यात्मिक साधनों द्वारा जिसकी बुद्धि शुद्ध की हुई नहीं है-ऐसे प्राकृत अज्ञानी मनुष्य को अकृत बुद्धि कहते हैं। अतः यहाँ ‘अकृत बुद्धित्वात्’ पद का प्रयोग करके आत्मा को कर्ता मानने का हेतु बतलाया गया है। अभिशाप यह है कि वास्तव में आत्मा का कर्मों से कुछ भी सम्बन्ध न होने पर भी बुद्धि में विवेकशक्ति न रहने के कारण अज्ञान वश मनुष्य आत्मा को कर्ता मान बैठता है।
प्रश्न-‘आत्मानम्’ पद के साथ ‘केवलम्’ विशेषण के प्रयोग का क्या भाव है?
उत्तर-‘केवलम्’ विशेषण के प्रयोग से आत्मा के यथार्थ स्वरूप का लक्षण किया गया है। अभिप्राय यह है कि आत्मा का यथार्थ स्वरूप ‘केवल’ यानी सर्वथा शुद्ध निर्विकार और असंग है। श्रुतियों में भी कहा है कि असंगों ह्ययं पुरुषः यह आत्मा वास्तव में सर्वथा असंग है। अतः असंग आत्मा का कर्मों का कर्ता मानना अत्यन्त विपरीत है।-क्रमशः (हिफी)