कत्र्तव्य पालन से लोक-परलोक में कल्याण
धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे (सोलहवां अध्याय-03)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके।-प्रधान सम्पादक
प्रश्न-‘पारुष्य’ किसका नाम है?
उत्तर-कोमलता के अत्यन्त अभाव का या कठोरता का नाम ‘पारुष्य’ है। किसी को गाली देना, कटुवचन कहना, ताने मारना आदि वाणी की कठोरता है, विनय का अभाव शरीर की कठोरता है तथा क्षमता और दया के विरुद्ध प्रति हिंसा और क्रूरता के भाव को मन की कठोरता कहते हैं।
प्रश्न-‘अज्ञान’ पद यहाँ किसका वाचक है?
उत्तर-सत्य-असत्य और धर्म-अधर्म आदि को यथार्थ न समझना या उनके सम्बन्ध में विपरीत निश्चय कर लेना ही यहाँ अज्ञान है।
प्रश्न-‘आसुरीसम्पद्’ किसको कहते हैं और ये सब आसुरी सम्पत् से युक्त पुरुष के लक्षण हैं-इस कथन का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-भगवान् की सत्ता को न मानने वाले उनके विरोधी नास्तिक मनुष्यों को असुर कहते हैं। ऐसे लोगों में जो दुर्गुण और दुराचारों का समुदाय रहता है, उसे आसुरी सम्पद् कहते हैं। ये सब आसुरी सम्पत् से युक्त पुरुष के लक्षण हैं, इस कथन से भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि इस श्लोक में दुर्गुण और दुराचारों के समुदाय रूप आसुरी सम्पद् संक्षेप में बतलायी गयी है। अतः ये सब या इनमें से कोई भी लक्षण जिसमें विद्यमान हों, उसे आसुरी सम्पदा से युक्त समझना चाहिये।
दैवी संपद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता।
मा शुचः संपदं
दैवीमभिजातोऽसि पाण्डव।। 5।।
प्रश्न-दैवी-सम्पदा मुक्ति के लिये मानी गयी है-इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-इस कथन से भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि पहले श्लोक से लेकर तीसरे श्लोक तक सात्विक गुण और आचरणों के समुदाय रूप जिस दैवी-सम्पदा का वर्णन किया गया है, वह मनुष्य को संसार
बन्धन से सदा के लिये सर्वथा मुक्त करके सच्चिदानंदधन परमेश्वर से मिला देने वाली है-ऐसा वेद, शास्त्र और महात्मा सभी मानते हैं।
प्रश्न-आसुरी-सम्पदा बन्धन के लिये मानी गयी है-इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-इस कथन से भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि दुर्गुण और दुराचार रूप जो रजोमिश्रित तमोगुण प्रधान भावों का समुदाय है, वही आसुरी-सम्पदा है जिसका वर्णन चैथे श्लोक में संक्षेप में किया गया है। वह मनुष्य को सब प्रकार से संसार में फंसाने वाली और अधोगति में ले जाने वाली है। वेद, शास्त्र और महात्मा सभी इस बात को मानते हैं।
प्रश्न-अर्जुन के लिए यह कहकर कि तू दैवी-सम्पदा को लेकर उत्पन्न हुआ है, अतः शोक मत कर क्या भाव दिखलाया गया है?
उत्तर-इससे भगवान् ने अर्जुन को आश्वासन देते हुए यह कहा है कि तुम स्वभाव से ही दैवी सम्पादा को लेकर उत्पन्न हुए हो, दैवी-सम्पदा के सभी लक्षण तुम्हारे अंदर विद्यमान हैं और दैवी सम्पदा संसार से मुक्त करने वाली है, अतः तुम्हारा कल्याण होने में किसी प्रकार का भी सन्देह नहीं है। अतएव तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये।
द्वौ भूतसगौं लोकेऽस्मिन्दैव आसुर एव च।
दैवो विस्तरशः प्रोक्त आसुरं पार्थ मे श्रृणु।। 6।।
प्रश्न-‘भूतसंगौं’ पद का अर्थ ‘मनुष्य समुदाय’ कैसे किया गया?
उत्तर-सर्ग सृष्टि को कहते हैं, भूतों की सृष्टि को भूतसर्ग कहते हैं। यहाँ ‘अस्मिन् लोके’ से मनुष्य लोक का संकेत किया गया है तथा इस
अध्याय में मनुष्यों के लक्षण बतलाये गये हैं, इसी कारण यहाँ ‘भूतसंगौ’ पद का अर्थ मनुष्य समुदाय किया गया है।
प्रश्न-मनुष्य समुदाय को दो प्रकार का बतलाकर उसके साथ ‘एव’ पद के प्रयोग करने का क्या भाव है?
उत्तर-इससे यह भाव दिखलाया गया है कि मनुष्य समुदाय के अनेक भेद होेते हुए भी प्रधानतया उसके दो ही विभाग हैं, क्योंकि सब भेद इन दो में आते हैं।
प्रश्न-एक दैवी प्रकृति वाला और दूसरा आसुरी प्रकृति वाला इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-इस कथन से दो प्रकार के समुदायों को स्पष्ट करते हुए यह बतलाया गया है कि मनुष्यों के उन दो समुदायों में से जो सात्त्विक है, वह तो दैवी प्रकृति वाला है और जो रजो मिश्रित तमः प्रधान है, वह आसुरी प्रकृति वाला है। राक्षसी और मोहिनी प्रकृति वाले मनुष्यों को यहाँ आसुरी प्रकृति वाले समुदाय के अन्तर्गत ही समझना चाहिये।
प्रश्न-दैवी प्रकृति वाला मनुष्य समुदाय विस्तार पूर्वक कहा गया, अब आसुरी प्रकृति वाले को भी सुन-स वाक्य का क्या भाव है?
उत्तर-इससे यह दिखलाया है कि इस अध्याय के पहले से तीसरे श्लोक तक और अन्य अध्यायों में भी दैवी प्रकृति वाले मनुष्य समुदाय के स्वभाव, आचरण और व्यवहार आदि का वर्णन तो विस्तारपूर्वक किया जा चुका किन्तु आसुरी प्रकृति वाले मनुष्यों के स्वभाव, आचरण और व्यवहार का वर्णन संक्षेप में ही हुआ है, अतः अब त्याग करने के उद्देश्य से तुम उसे भी विस्तार पूर्वक सुनो।
प्रवृतिं च निवृत्तिं च जना न बिदुरासुराः।
न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते।। 7।।
प्रश्न-आसुर-स्वभाव वाले मनुष्य प्रवृत्ति और निवृत्ति को नहीं जानते, इसका क्या अभिप्राय है?
उत्तर-जिस कर्म के आचरण से इस लोक और परलोक में मनुष्य का यथार्थ कल्याण होता है, वही कर्तव्य है। मनुष्य को उसी में प्रवृत्त होना चाहिये और जिस कर्म के आचरण से अकल्याण होता है वह अकर्तव्य सम्बन्धी प्रवृत्ति और निवृत्ति को बिल्कुल नहीं समझते, इसलिये जो कुछ उनके मन में आता है, वही करने लगते हैं।
प्रश्न-उनमें शौच, आचार और सत्य नहीं है, इस कथन का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-‘शौच’ कहते हैं बाहर और भीतर की पवित्रता को जिसका
विस्तृत विवेचन तेरहवें अध्याय के
सातवें श्लोक की टीका में किया गया है, ‘आचार’ कहते हैं उन उत्तम
क्रियाओं को जिनमें ऐसी पवित्रता सम्पन्न होती है और सत्य कहते हैं निष्कपट हितकर यथार्थ भाषण को, जिसका विवेचन इसी अध्याय के दूसरे श्लोक की टीका में किया जा चुका है। अतः उपर्युक्त कथन से यह भाव दिखलाया गया है कि आसुर-स्वभाव वाले
मनुष्यों में इन तीनों में से एक भी नहीं होता वरं इनसे विपरीत उनमें अपवित्रता, दुराचार और मिथ्या भाषण होता है।-क्रमशः (हिफी)