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अर्जुन को विराट स्वरूप के साथ दिखाई योगशक्ति

धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे (ग्यारहवां अध्याय-04)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)

रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक

प्रश्न-यह मान लिया जाय तो क्या आपत्ति है कि जैसे आजकल रेडियो आदि यन्त्रों द्वारा दूर देश के शब्द सुने तथा दृश्य देखे जा सकते हैं, वैसे ही भगवान् ने उन्हें कोई ऐसा यन्त्र दे दिया हो जिससे कि वे एक ही जगह खड़े समस्त विश्व को बिना किसी बाधा के देख सके हों और उस यन्त्र को ही दिव्य दृष्टि कहा गया हो?
उत्तर-रेडियो आदि यन्त्रों द्वारा एक काल में एक जगह दूर देश के वे ही शब्द और सुने और देखे जा सकते हैं, जो एक देशीय हों और उस समय वर्तमान हों। उनसे एक ही यन्त्र से एक ही काल में एक ही जगह सब देशों की घटनाएँ नहीं देखी-सुनी जा सकतीं। न उनसे लोगों के मन की बातें प्रत्यक्ष देखी जा सकती हैं और न भविष्य में होने वाली घटनाओं के दृश्य ही। इसके अतिरिक्त यहाँ के प्रसंग में ऐसी कोई बात नहीं है जिससे यह सिद्ध हो सके कि अर्जुन ने किसी यन्त्र द्वारा भगवान् के विश्व रूप को देखा था। अतएव ऐसा मानना सर्वथा युक्ति विरुद्ध है। हाँ रेडियो आदि यन्त्रों के आविष्कार से आजकल के अविश्वासी लोगों को सीमा तक समझाया जा सकता है कि जब रेडियो आदि भौतिक यन्त्रों द्वारा दूर देश की घटनाएँ सुनी-देखी जा सकती हैं, तब भगवान् की प्रदान की हुई योग शक्ति द्वारा उनके विश्वरूप का देखा जाना कौन बड़ी बात है? अवश्य ही यहाँ यह भी ध्यान रखना चाहिये कि यह भगवान् का कोई ऐसा मायामय मनोयोग नहीं था जिसके प्रभाव से अर्जुन बिना ही मोहित हुए ऐसी घटनाओं को स्वप्न के दृश्यों की भाँति देख रहे थे। अर्जुन जिस स्वरूप को देख रहे थे, वह प्रत्यक्ष सत्य था और उसके देखने का एकमात्र साधन था-भगवत्कृपा से मिली हुई योग शक्ति एवं दिव्य दृष्टि।
प्रश्न-‘ऐश्वरम्’ विशेषण के सहित ‘योगम’ पद किसका वाचक है और उसे देखने के लिये कहने का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-अर्जुन को जिस रूप के दर्शन हुए थे, वह दिव्य था। भगवान् ने अपनी अद्भुत योगशक्ति से ही प्रकट करके उसे अर्जुन को दिखलाया था। अतः उसके देखने से ही भगवान् की अद्भुत योगशक्ति के दर्शन आप ही हो जाते हैं। इसीलिये यहाँ ‘ऐश्वरम’ विशेषण के सहित ‘योगम’ पद भगवान् की अद्भुत योगशक्ति के सहित उसके द्वारा प्रकट किये हुए भगवान् के विराट् स्वरूप का वाचक है और उसे देखने के लिये कहकर भगवान् ने अर्जुन को अपने विराट् स्वरूप के दर्शन द्वारा योग शक्ति को देखने के लिये कहा हैै।
एवमुक्त्वा ततो राजन्महायोगेश्वरो हरिः।
दर्शयामास पार्थाय परमं रूपमैश्वरम्।। 9।।
प्रश्न-यहाँ सअज्य ने भगवान् के लिये ‘महायोगेश्वरः‘ और ‘हरिः’ दो विशेषणों का प्रयोग करके क्या भाव दिखलाया है?
उत्तर-जो महान् यानी बड़े-से-बड़े योगेश्वर हों उनको ‘महायोगेश्वर’ तथा सब पापों और दुःखों के हरण करने वाले को ‘हरि’ कहते हैं। इन दोनों विशेषणों का प्रयोग करके सअज्य ने भगवान् की अद्भुत शक्ति-सामथ्र्य की ओर लक्ष्य कराते हुए धृतराष्ट्र को सावधान किया है। उनके कथन का भाव यह है कि श्रीकृष्ण कोई साधारण मनुष्य नहीं हैं, वे बड़े-से-बड़े योगेश्वर और सब पापों तथा दुःखों के नाश करने वाले साक्षात् परमेश्वर हैं। उन्होंने अर्जुन को अपना जो दिव्य विश्वरूप दिखलाया था, जिसका वर्णन करके मैं अभी आपको सुनाऊँगा, वह रूप बड़े से बड़े योगी भी नहीं दिखला सकते, उसे तो एकमात्र स्वयं परमेश्वर ही दिखला सकते हैं।
प्रश्न-‘रूपम’ के साथ ‘परमम्’ और ‘ऐश्वरम् इन दोनों विशेषणों के प्रयोग का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-जो पदार्थ शुद्ध, श्रेष्ठ और अलौकिक हो उसकी विशेषता का द्योतक ‘परम’ विशेषण है और जिसमें ईश्वर के गुण, प्रभाव एवं तेज दिखलायी देते हों तथा जो ईश्वर की दिव्य योगशक्ति से सम्पन्न हो, उसे ‘ऐश्वर’ कहते हैं। भगवान् ने अपना जो विराट् स्वरूप अर्जुन को दिखलाया था, वह अलौकिक, दिव्य, सर्वश्रेष्ठ और तेजोमय था। साधारण जगत की भाँति पांच भौतिक पदार्थों से बना हुआ नहीं था। भगवान ने अपने परम प्रिय भक्त अर्जुन पर अनुग्रह करके अपना अद्भुत प्रभाव उसको समझाने के लिये ही अपनी अद्भुत योग शक्ति के द्वारा उस रूप को प्रकट करके दिखलाया था। इन्हीं भावों को प्रकट करने के लिए सअज्य ने ‘रूपम’ पद के साथ इन दोनों विशेषणों का प्रयोग किया है।
अनेक वक्त्र नयनमनेका ˜ुतदर्शनम्।
अनेक दिव्याभरणं दिव्याने कोद्यतायुधम्।। 10।।
दिव्यमाल्याम्बरधरम् दिव्यगन्धानुलेपनम्।
सर्वाश्वर्यमयं देवमनन्तं विश्वतोमुखम्।। 11।।
प्रश्न-‘अनेक वक्त्रनयनम्’ का क्या अर्थ है
उत्तर-जिसके नाना प्रकार के असंख्य मुख और आँखें हों, उस रूप को ‘अनेक वक्त्रनयन’ कहते हैं। अर्जुन ने भगवान् का जो रूप देखा, उसके प्रधान नेत्र तो चन्द्रमा और सूर्य बतलाये गये हैं परन्तु उसके अंदर दिखलायी देने वाले और भी असंख्य विभिन्न मुख और नेत्र थे। इसी से भगवान् को अनेक मुखों और नयनों से युक्त बतलाया गया है।
प्रश्न-‘अनेका˜ुत दर्शनम्’ का क्या अर्थ है?
उत्तर-जो दृश्य पहले कभी न देखे हुए हों, जिनका ढंग विचित्र और आश्चर्यजनक हो, उनको ‘अद्भुत दर्शन’ कहते हैं। जिस रूप में ऐसे असंख्य अद्भुत दर्शन हो, उसे अनेका˜ुत दर्शन कहते हैं। भगवान् के उस विराट रूप में अर्जुन ने ऐसे असंख्य अलौकिक विचित्र दृश्य देखे थे, इसी कारण उनके लिये यह विशेषण दिया गया है।
प्रश्न-‘अनेकादिव्याभरणम्’ का क्या अर्थ है?
उत्तर-आम्भरण गहनों को कहते हैं। जो गहने लौकिक गहनों से विलक्षण, तेजोमय और अलौकिक हों-उन्हें ‘दिव्य’ कहते हैं तथा जो रूप ऐसे असंख्य दिव्य आभूषणों से विभूषत हों, उसे अनेकदिव्याभरणम कहते हैं। भगवान् का जो रूप अर्जुन ने देखा था वह नाना प्रकार के असंख्य तेजोमय दिव्य आभूषणों से युक्त था। इस कारण
भगवान् के साथ यह विशेषण दिया गया है।
प्रश्न-‘दिव्ययाने कोद्यतायुधम्’ का क्या अर्थ है?
उत्तर-जिनसे युद्ध किया जाय, उस शस्त्रों का नाम आयुध है और जो आधुध अलौकिक तथा तेजोमय हों, उनको ‘दिव्य’ कहते हैं जैसे भगवान् विष्णु के चक्र, गदा और धनुष आदि हैं। इस प्रकार के असंख्य दिव्य शस्त्र भगवान् ने अपने हाथों में उठा रक्खे थे, इसलिये उन्हें ‘दिव्यानेकोद्यतायुध’ कहा है।-क्रमशः (हिफी)

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